श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
क्रोध, आक्रोश,
प्रेम, आवेश,
भय, चिंता,
पौरुष के सारे प्रवाहों का
‘डस्टबिन’ होती है औरत,
विमर्शकों का
मंथन जारी था..,
असहाय होता है डस्टबिन
एकत्रित करता है कूड़ा
और दुर्गंध से
सना रह जाता है,
सुनो-
विमर्शक नहीं हूँ मैं
किंतु
चिंतन में उठती हैं लहरें..
माटी सोखती है
सारा चुका हुआ
सारा हारा हुआ,
माटी देती है
हर बीज को
अपनी उर्मि
अपना पोषण,
बीज उल्टा पड़ा हो
या सीधा
टेढ़ा या मेढ़ा
आम का हो
या बबूल का,
सारे विमर्शों से परे
माटी अँकुआती है जीवन
धरती को करती है हरा
धरती को रखती है हरा,
हरापन-
प्राणवान होने का प्रमाण है,
माटी फूँकती है प्राण..
मित्रो!
स्त्री, माटी होती है
और दुनिया के
किसी भी शब्दकोश में
माटी का अर्थ
‘डस्टबिन’ नहीं होता।
© संजय भारद्वाज
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य 0अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मोबाइल– 9890122603