श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। )
☆ कालचक्र ☆
उम्र की दहलीज पर
सिकुड़ी बैठी वह देह
निरंतर बुदबुदाती रहती है,
दहलीज की परिधि के भीतर
बसे लोग अनपढ़ हैं,
बड़बड़ाहट और बुदबुदाहट में
फर्क नहीं समझते!
मोतियाबिंद और ग्लूकोमा के
चश्मे लगाये बुदबुदाती आँखें
पढ़ नहीं पातीं वर्तमान
फलत: दोहराती रहती हैं अतीत!
मानस में बसे पुराने चित्र
रोक देते हैं आँखों को
वहीं का वहीं,
परिधि के भीतर के लोग
सिकुड़ी देह को धकिया कर
खुद को घोषित
कर देते हैं वर्तमान,
अनुभवी अतीत
खिसियानी हँसी हँसता है,
भविष्य, बिल्ली-सा पंजों को साधे
धीरे-2 वर्तमान को निगलता है,
मेरी आँखें ‘संजय’ हो जाती हैं…..,
देखती हैं चित्र दहलीज किनारे
बैठे हुओं को परिधि पार कर
बाहर जाते और
स्वयंभू वर्तमान को शनै:-शनै:
दहलीज के करीब आते,
मेरी आँखें ‘संजय’ हो जाती हैं…..!
© संजय भारद्वाज, पुणे
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी
मोबाइल– 9890122603
उम्र होने के बाद अतीत बार बार याद आता है,वर्तमान पीछे छूट जाता है ?
सृष्टि सृजित जीवन के तीनों शाश्वत सत्य- अतीत वर्तमान एवं भविष्य.. सुंदर मनन-चिंतन…और अभिव्यक्ति! साधुवाद।।
अतीत के पीछे दौड़ने की वृत्ति, भविष्य को पाने की लालसा इस बीच वर्तमान को जाता है पर उत्तर के साथ कुछ और भी जीवित रहता है तो वह है अतीत! सुंदर अभिव्यक्ति
अतीत ही साथ चलता है क्योंकि वह एनसाइक्लोपीडिया सा बना रहता है।
गम्भीर लेखन,दूरदृष्टि…. स्वाभाविक है संजय जी … नाम की महिमा जग जाने…ज्योत्स्ना उवाच