श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ नेह ☆

मन विदीर्ण हो जाता है

जब कोई

कह-बोल कर

औपचारिक रूप से

बताता-जताता है,

रिश्तों को शाब्दिक

लिबास पहनाता है,

जानता हूँ,

नेह की छटाओं में

होती नहीं एकरसता है

पर मेरी माँ ने कभी नहीं कहा

‘तू मेरे प्राणों में बसता है।’

# दो गज़ की दूरी, है बहुत ज़रूरी।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(संध्या 7:35 बजे, शुक्रवार, 25.5.18)
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 
मोबाइल– 9890122603

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अलका अग्रवाल

हमारे समय के लोग यहाँ तक माँ भी प्यार जताती नहीं थीं।??

वीनु जमुआर

सही बात! स्नेह, आत्मीयता, प्यार , इन भावनाओं को कथन और कहन के हाथ-पांव की आवश्यकता ही कहाँ होती है?