हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – 3. राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका ☆ – श्री संजय भारद्वाज
श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। )
हम “संजय दृष्टि” के माध्यम से आपके लिए कुछ विशेष श्रंखलाएं भी समय समय पर प्रकाशित करते रहते हैं। ऐसी ही एक श्रृंखला दीपोत्सव पर “दीपावली के तीन दिन और तीन शब्ददीप” तीन दिनों तक आपके चिंतन मनन के लिए प्रकाशित की गई थी। 31 अक्टूबर 2019 को स्व सरदार वल्लभ भाई पटेल जी का जन्मदिवस था जो राष्ट्रीय एकता के प्रतीक हैं। इस अवसर पर श्री संजय भारद्वाज जी का आलेख “राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका” एक विशेष महत्व रखता है। इस लम्बे आलेख को हम कुछ अंकों में विभाजित कर आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। हमें पूर्ण विश्वास है आप इसमें निहित विचारों को गंभीरता पूर्वक आत्मसात करेंगे।
इस लेख की पठनीयता में किसी प्रकार का प्रतिरोध न हो इस दृष्टि से आप इस सप्ताह के “साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच” अगले रविवार से पूर्ववत पढ़ सकेंगे।
– हेमन्त बावनकर
☆ संजय दृष्टि – 3. राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका ☆
ऐसा नहीं है कि लोक निर्विकार या निराकार है। वह सर्वसाधारण मनुष्य है। वह लड़ता, अकड़ता, झगड़ता है। वह रूठता, मानता है। वह पड़ोसी पर मुकदमा ठोंकता है पर मुकदमा लड़ने अदालत जाते समय उसी अग्रज पड़ोसी से आशीर्वाद भी लेता है। इतना ही नहीं, पड़ोसी उसे ‘विजयी भव’ का आशीर्वाद भी देता है। विगत तीन दशकों से भारतीय राजनीति के केंद्र में रहे ‘श्रीरामजन्मभूमि विवाद’ के दोनों पैरोकार महंत परमानंद जी महाराज और स्व. अंसारी एक ही कार में बैठकर कोर्ट जाते रहे। बकौल भारतरत्न अटलबिहारी वाजपेयी, ‘ मतभेद तो हों पर मनभेद न हो’ का जीता-जागता चैतन्य उदाहरण है लोक।
बलुतेदार हो या अबलूतेदार, अगड़ा हो या पिछड़ा, धनवान हो निर्धन, सम्मानित हो या उपेक्षित, हरेक को मान देता है लोक। बंगाल में विधवाओं को वृंदावन भेजने की कुरीति रही पर यही बंगाल दुर्गापूजा में हर स्त्री का हाथ लगवाता है। यही कारण है कि माँ दुर्गा की प्रतिमा बनाने के लिए समाज के विभिन्न वर्गों के घर से मिट्टी ली जाती है। इनमें वेश्या भी सम्मिलित है। अद्वैत या एकात्म भाव का इससे बड़ा उदाहरण और क्या होगा? यह बात अलग है कि भारतीय समाज की कथित विषमता को अपनी दुकानदारी बनानेवालों की मिट्टी, ऐसे उदाहरणों से पलीद हो जाती है।
लोक में मनुष्य ही नहीं पशु-पक्षियों, कीड़े-मकोड़ों की भी प्रतिष्ठा है। महाराष्ट्र में बैलों की पूजा का पर्व ‘बैल पोळा’ मनाया जाता है। वर्ष भर किसान के साथ खेत में काम करनेवाले बैलों के प्रति यह कृतज्ञता का भाव है। पंजाब में बैसाखी में बैलों की पूजा, दक्षिण में हाथी की पूजा इसी कृतज्ञता की कथा कहते हैं। नागपंचमी पर साक्षत काल याने नाग की पूजा भी पूरी श्रद्धा से की जाती है।
पीपल, बरगद, आँवला, तुलसी जैसे पेड़-पौधों की पूजा वसुधा पर हर घटक को परिवार मानने के दर्शन को प्रकट करती है, हर घट में राम देखती है। हर घट में राम देखने की दृष्टि रखनेवालों को अंधविश्वासी, मूर्ख, रिलीजियस फूल, स्टुपिड ब्लैक कहकर उपहास उड़ाने वाले आज पर्यावरण विनाश पर टेसू बहाते हैं। आँख की क्षुद्रता ऐसी कि बरगद को मन्नत के धागे बांधकर कटने से उसका बचाव नहीं दिखा। धागों में अंधविश्वास देखने वाले पर्यावरण संरक्षण का आत्मविश्वास नहीं पढ़ पाए। जिसका दूध पीकर पुष्ट हुए, उस गौ को माँ के तुल्य ‘गौमाता’ का स्थान देना अनन्य लोकसंस्कृति है। पेड़ों के पत्ते न तोड़ना, चींटियों को आटा डालना, पहली रोटी दूध देनेवाली गाय के लिए, अंतिम रोटी रक्षा करने वाले श्वान के लिए इसी अनन्यता का विस्तार है। गाय का दूध दुहकर अपना घर चलाने वाले ग्वालों द्वारा गाय के थनों में बछड़े के पीने के लिए पर्याप्त दूध छोड़ देना, शहरों की यांत्रिकता में बछड़ों को निरुपयोगी मानकर वधगृह भेजने के हिमायतियों की समझ के परे है। वस्तुत: लोकजीवन में सहभागिता और साहचर्य है। लोकजीवन आदमी का एकाधिकार नकारता है। यहाँ आदमी घटक है, स्वामी नहीं है। चौरासी लाख योनियों का दर्शन भी इसे ही प्रतिपादित करता है।
क्रमशः…….4
© संजय भारद्वाज, पुणे
रात्रि 11:21 बजे, 21.9.19
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
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