हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – 6. राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

हम  “संजय दृष्टि” के माध्यम से  आपके लिए कुछ विशेष श्रंखलाएं भी समय समय पर प्रकाशित  करते रहते हैं। ऐसी ही एक श्रृंखला दीपोत्सव पर “दीपावली के तीन दिन और तीन शब्ददीप” तीन दिनों तक आपके चिंतन मनन के लिए प्रकाशित  की गई थी।  31 अक्टूबर 2019 को स्व सरदार वल्लभ भाई पटेल जी का जन्मदिवस  था जो राष्ट्रीय एकता के प्रतीक हैं।  इस अवसर पर श्री संजय भारद्वाज जी का आलेख  “राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका”  एक विशेष महत्व रखता है।  इस लम्बे आलेख को हम कुछ अंकों में विभाजित कर आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। हमें पूर्ण विश्वास है आप इसमें निहित विचारों को गंभीरता पूर्वक आत्मसात करेंगे।

– हेमन्त बावनकर

☆ संजय दृष्टि  –  6.  राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका 

 

जैसा पहले कहा जा चुका है कि भारतीय लोक में दहाई के बिना इकाई का मान नहीं है। समूह के बिना व्यक्ति का अस्तित्व यहाँ अग्राह्य है। यही कारण है कि लोक का क्रियाकलाप सामूहिक है। लोक में नृत्य सामूहिक है। लोक में गायन सामूहिक है। समूह में हर किसी का निबाह हो जाता है। समूह हर किसी को प्रतिभा प्रदर्शन  हेतु मंच देता है तो हरेक के विरेचन के लिए सेतु भी बनता है। सामूहिकता ऐसी कि भोजन भी पंगत में बैठकर सबके साथ ही होगा। भोजन के समय किसी अतिथि के घर आ जाने पर मानसिक विचलन का शिकार हो जाने वाली आधुनिकता की किसी शायर ने लोक से सटीक तुलना करते हुए लिखा है,

एक वो दौर था, सोचता था मेहमान आये तो खाना खाऊँ
लानत है इस दौर पर, सोचता हूँ मेहमान जाये तो खाना खाऊँ

शादी-ब्याह में गाँव जुटता था। जातिप्रथा को लेकर आज जो अरण्यरुदान है, सामूहिकता में हर जाति समाविष्ट है। हरेक अपना दायित्व निर्वहन करता है। ब्याह बेटी का है तो बेटी सबकी है। आज चलन कुछ कम हो गया है पर पहले मोहल्ले के हर घर में विवाह पूर्व बेटी को भोजन के लिए आमंत्रित किया जाता, हर घर बेटी के साथ यथाशक्ति कुछ बाँध देता।

लोकगीत का अपना सनातन इतिहास है। सत्य तो यह है कि लोकगीतों ने इतिहास बचाया। घर-घर बाप-दादा का नाम याद  रखा, घर-घर श्रुत वंशावलियाँ बनाईं और बचाईं। केवल वंशावली ही नहीं, कुल, गोत्र, शासन, गाँव, खेत, खलिहान, कुलदेवता, कुलदेवी, ग्रामदेवता, आचार, संस्कार, परंपरा, राग, विराग, वैराग्य, मोह, धर्म, कर्म, भाषा, अपभ्रंश, वैराग्य की गाथा, रोमांस के किस्से, सब बचाया। इतना ही नहीं 1857 के स्वाधीनता संग्राम के में कमल और रोटी के चिह्न को अँग्रेजों ने दस्तावेज़ों के रूप में भले जला दिया पर लोकगीतों के मुँह पर ताला नहीं जड़ सका। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के रणबाँकुरों के बलिदान को लोकगीतों ने ही जीवित रखा। इसी तरह अनादि काल से चले आ रहे सोलह संस्कारों को धर्मशास्त्रों के बाद  प्रथा में लोगों की ज़ुबान पर लोकगीतों ने ही टिकाये रखा।

त्योहार सामूहिक हैं, एकात्म हैं। व्रत-पर्व, धार्मिक अनुष्ठान, भजन-कीर्तन सब सामूहिक हैं। एकात्मता ऐसी कि त्योहारों में मिठाई का आदान-प्रदान हर छोटा-बड़ा करता है। महिलाएँ व्रत का उद्यापन करें, त्यौहार या अनुष्ठान हरेक में यथाशक्ति एक से लेकर इक्यावन महिलाओं के भोजन/ जलपान का प्रावधान है। लोक-परम्परा भागीदारी का व्रत, त्यौहार  और भागीदारी का अनुष्ठान है। धार्मिक ग्रंथों का पाठ और पारायण भी इसी संस्कृति की पुष्टि करते हैं। श्रीरामचरितमानस का पाठ तो जोड़ने का माध्यम है ही अपितु जो पढ़ना नहीं जानते उन्हें भी साथ लेने के लिए संपुट तो अनिवार्यत: सामूहिक है।

लोकपरंपराओं, लोकविधाओं- गीत, नृत्य, नाट्य, आदि का जन्मदाता कोई एक नहीं है। प्रेरणास्रोत भी एक नहीं है। इनका स्रोत, जन्मदाता, शिक्षक, प्रशिक्षक, सब लोक ही है। गरबा हो, भंगड़ा हो,  बिहू हो या होरी, लोक खुद इसे गढ़ता है, खुद इसे परिष्कृत करता है। यहाँ जो है, समूह का है। जैसे ॠषि परंपरा में सुभाषित किसने कहे, किसने लिखे का कोई रेकॉर्ड नहीं है, उसी तरह लोकोक्तियों, सीखें किसी एक की नहीं हैं। परंपरा की चर्चा अतीतजीवी होना नहीं होता। सनद रहे कि अतीत के बिना वर्तमान नहीं जन्मता और भविष्य तो कोरी कल्पना ही है। जो समुदाय अपने अतीत से, वह भी ऐसे गौरवशाली अतीत से अपरिचित रखा जाये. उसके आगे का प्रवसन सुकर कैसे होगा? विदेशी शक्तियों ने अपने एजेंडा के अनुकूल हमारे अतीत को असभ्य और ग्लानि भरा बताया। लज्जित करने वाला विरोधाभास यह है कि निरक्षरों का ‘समूह’, प्राय: पढ़े-लिखों तक आते-आतेे ‘गिरोह’ में बदल जाता है। गिरोह निहित स्वार्थ के अंतर्गत कृत्रिम एकता का नारा उछालकर उसकी आँच में अपनी रोटी सेंकता है जबकि समूह एकात्मता को आत्मसात कर, उसे जीता हुआ एक साथ भूखा सो जाता है।

लोक का जीवन सरल, सहज और अनौपचारिक है। यहाँ छिपा हुआ कुछ भी नहीं है। यहाँ घरों के दरवाज़े सदा खुले रहते हैं। महाराष्ट्र के शिर्डी के पास शनैश्वर के प्रसिद्ध धाम शनि शिंगणापुर में लोगों के घर में सदियों से दरवाज़े नहीं रखने की लोकपरंपरा है। कैमरे के फ्लैश में चमकने के कुछ शौकीन ‘चोरी करो’(!) आंदोलन के लिए वहाँ पहुँचे भी थे। लोक के विश्वास से कुछ सार्थक घट रहा हो तो उस पर ‘अंधविश्वास’ का ठप्पा लगाकर विष बोने की आवश्यकता नहीं। खुले दरवाज़ों की संस्कृति में पास-पड़ोस में, मोहल्ले में रहने वाले सभी मामा, काका, मामी, बुआ हैं। इनमें से कोई भी किसीके भी बच्चे को अधिकार से डाँट सकता है, अन्यथा मानने का कोई प्रश्न ही नहीं। इन आत्मीय संबोधनों का परिणाम यह कि सम्बंधितों के बीच  अपनेपन का रिश्ता विकसित होता है। गाँव के ही संरक्षक हो जाने से अनैतिक कर्मों और दुराचार की आशंका कम हो जाती है। विशेषकर बढ़ते यौन अपराधों के आँकड़ों पर काम करने वाले संबोधन द्वारा उत्पन्न होने वाले नेह और दायित्व का भी अध्ययन करें तो तो यह उनके शोध और समाज दोनों के लिए हितकर होगा।

क्रमशः…….7

©  संजय भारद्वाज, पुणे

रात्रि 11:21 बजे, 21.9.19

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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