श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ जीवनरेखा 

तप रहा है शरीर;

आराम करो,

गहरा सोओ,

बीच में नींद खुले

तो भी लेटे रहो,

रात-बिरात या

जल्दी उठकर

कलम मत चलाओ,

इन्हीं सबसे

टूटते हैं पोर,

बिगड़ता है

शरीर का लेखा,

खंड-खंड होने

लगती है जीवनरेखा,

अपनों के, परिचितों के

चिकित्सक के निर्देश

अनवरत जारी थे..,

कुछ देर के

घोर नीरव के बाद

मैं चुपचाप उठा,

पिंजरे में कैद

तोते में बसे

किसी पौराणिक पात्र के

प्राण-सी सहेजी

अपनी कलम उठाई,

फिर कलम चलाई,

कुछ अक्षर झरने लगे

टूटे पोर जुड़ने लगे,

शरीर का लेखा

संवरने लगा,

देह में प्राण लौटने लगा,

खुली आँखों से

मैंने जादू देखा

फिर अखंड हो गई

मेरी जीवनरेखा…!

 

©  संजय भारद्वाज 

रात्रि 10:55, 27.09.2018

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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अलका अग्रवाल

कितनी भी मुश्किल हो पर, अपने प्रिय कार्य को करने से जीवन प्राणवान हो जाता है।बहत सुंदर अभिव्यक्ति।

Shekhhar Palakhe

केवल अद्भुत हैं दोनो!!! Your thought process and all your poems!!! Regards