श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ
☆ साथी हाथ बढ़ाना ☆
(चार वर्ष पूर्व गणतंत्र दिवस पर लिखी एक पोस्ट साझा कर रहा हूँ।)
- गण की रक्षा के लिए गांदरबल में कल भारी हिमपात के बीच आतंकियों से जूझते सैनिकों के चित्र देखे।
- चौबीस घंटे पल-पल चौकन्ना सुरक्षातंत्र और उनकी कीमत पर राष्ट्रीय पर्व की छुट्टी मनाता गण अर्थात आप और हम।
- विचार उठा क्यों न राष्ट्रीय पर्वो की छुट्टी रद्द कर उन्हें सामूहिक योगदान से जोड़ें!
- बुजुर्गों तथा बच्चों को छोड़कर देश की आधी जनसंख्या लगभग पैंसठ करोड़ लोगों के एक सौ तीस करोड़ हाथ एक ही समय एक साथ आएँ तो कायाकल्प हो सकता है।
- देश की सामूहिकता केवल डेढ़ घंटे में एक सौ तीस करोड़ पौधे लगा सकती है, लाखों टन कचरा हटा सकती है, कृषकों के साथ मिलकर अन्न उगाने में हाथ बँटा सकती है।
- हो तो बहुत कुछ सकता है। ‘या क्रियावान स पंडितः’..। पूरे मन से साथी साथ आएँ तो ‘असंभव’ से ‘अ’ भी हटाया जा सकता है।
– संजय भारद्वाज
☆ पराक्रम दिवस विशेष – महानायक नेताजी सुभाषचंद्र बोस – भाग – 4 ☆
(केंद्र सरकार ने उनके जन्मदिवस को पराक्रम दिवस के रूप में मनाने का निश्चय किया है। इस अवसर पर नेताजी पर लिखा अपना एक लेख साझा कर रहा हूँ। यह लेख राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की पुस्तक ‘ऊर्जावान विभूतियाँ’ में सम्मिलित है– संजय भारद्वाज )
अपने मिशन को आगे बढ़ाने के लिए 27 जुलाई 1943 को नेताजी सत्रह दिनों की यात्रा पर निकले। 10 अगस्त 1943 को वे रंगून में बर्मा के स्वतंत्रता समारोह में सम्मिलित हुए। फिर बैंकॉक पहुँचे। थाईलैंड से भारत के स्वाधीनता संग्राम के लिए समर्थन मांगा। तत्पश्चात वियतनाम और मलेशिया गये। भारत की आजादी के लिए सर्वस्व अर्पित करने के आह्वान के साथ सुभाषबाबू जहाँ भी जाते, हजारों भारतीयों की भीड़, उनको देखने-सुनने के लिए प्रतीक्षा कर रही होती।
21 अक्टूबर 1943 को सिंगापुर के कैथी सिनेमा हॉल के परिसर में आयोजित विशाल जनसभा में नेताजी ने हुकूमत-ए-आजाद हिंद (स्वतंत्र भारत की सरकार) की घोषणा कर दी। नेताजी को इस सरकार का प्रधानमंत्री, युद्ध और विदेशी मामलों का मंत्री एवं सर्वोच्च सेनापति घोषित किया गया। सरकार के प्रमुख के रूप में शपथ लेते हुए नेताजी ने कहा-
‘ईश्वर के नाम पर मैं यह पवित्र शपथ लेता हूँ कि मैं भारत को और अपने अड़तीस करोड़ देशवासियों को आजाद कराऊँगा। मैं सुभाषचन्द्र बोस, अपने जीवन की आखिरी साँस तक आजादी की इस पवित्र लड़ाई को जारी रखूँगा। मैं सदा भारत का सेवक बना रहूँगा और अपने अड़तीस करोड़ भारतीय भाई-बहनों की भलाई को अपना सबसे बड़ा कर्तव्य समझूँगा। आजादी प्राप्त करने के बाद भी, इस आजादी को बनाए रखने के लिए मैं अपने खून की आखिरी बूँद तक बहाने के लिए सदा तैयार रहूँगा।’
इस मंत्रिमंडल के परामर्शदाता के रूप में रासबिहारी बोस की नियुक्ति हुई। डॉ. लक्ष्मी विश्वनाथन, एस.ए.अय्यर, एस.जी.चटर्जी, अजीज अहमद, एन.एस.भगत, जे.के. भोसले, गुलजारासिंह, एम.जे. कियानी, ए.डी.लोकनाथन, शहनवाज खान, सी.एस.ढिल्लों, करीम गांधी, देबनाथ दास, डी.एम.खान, ए. थेलप्पा, जेधिवी, ईश्वरसिंह को मंत्रिमंडल में स्थान दिया गया। भारत की इस अंतरिम सरकार को जापान, जर्मनी और इटली सहित विश्व के नौ देशों ने मान्यता भी प्रदान कर दी। दिसम्बर 1943 के अंत में जापानी नौसेना ने समारोहपूर्वक अंडमान और निकोबार आजाद हिंद फौज को सौंप दिये। नेताजी ने तुरंत प्रभाव से दोनों द्वीपों का नाम बदलकर क्रमशः शहीद और स्वराज रखा। ए.डी.लोकनाथन को आजाद हिन्द सरकार का ले.गर्वनर नियुक्त किया गया।
इस बीच नेताजी ने आजाद हिन्द फौज में तीन ब्रिगेडों का गठन किया। हर ब्रिगेड में दस हजार सैनिक थे। इन्हें गांधी, आजाद और नेहरु ब्रिगेड का नाम दिया। बाद में उन्होंने महिलाओं की एक रेजिमेंट ‘झांसी की रानी रेजिमेंट’ नाम से गठित की। 6 जुलाई 1944 को आजाद हिन्द रेडिओ के माध्यम से उन्होंने गांधीजी से संवाद स्थापित किया। अपने इस संबोधन में सुभाषबाबू ने विस्तार से आजाद हिन्द फौज की स्थापना के उद्देश्य, अंतरिम सरकार की स्थापना, और जापान से सहयोग जैसे मुद्दों पर चर्चा की। यही वह भाषण था जिसमें नेताजी ने गांधीजी को ‘राष्ट्रपिता’ कहकर संबोधित किया था। गांधीजी का ‘राष्ट्रपिता’ नामकरण इस भाषण के बाद ही पड़ा। नेताजी ने कहा था, ‘एक बार देश आजाद हो जाए, फिर इसे राष्ट्रपिता महात्मा गांधीजी के हाथों सौंप दूँगा।’ आजाद हिंद फौज के सैनिकों को संबोधित करते हुए जून 1944 में नेताजी ने वह अमर नारा दिया, जिसकी अनुगूँज भारत की रग-रग में सदा सुनाई देती रहेगी। यह नारा था-‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा।’ नेताजी के ऐतिहासिक भाषण के कुछ अंश इस प्रकार हैं-
‘अब जो काम हमारे सामने हैं, उन्हें पूरा करने के लिए कमर कस लें। मैंने आपसे; जवानों, धन और सामग्री की व्यवस्था करने के लिए कहा था। मुझे वे सब भरपूर मात्रा में मिल गए हैं। अब मैं आपसे कुछ और चाहता हूँ। जवान, धन और सामग्री अपने आप विजय या स्वतंत्रता नहीं दिला सकते। हमारे पास ऐसी प्रेरक शक्ति होनी चाहिए, जो हमें बहादुर व नायकोचित कार्यों के लिए प्रेरित करे।
सिर्फ इस कारण कि अब विजय हमारी पहुँच में दिखाई देती है, आपका यह सोचना कि आप जीते-जी भारत को स्वतंत्र देख ही पाएंगे, आपके लिए एक घातक गलती होगी। यहाँ मौजूद लोगों में से किसी के मन में स्वतंत्रता के मीठे फलों का आनंद लेने की इच्छा नहीं होनी चाहिए। एक लंबी लड़ाई अब भी हमारे सामने है। आज हमारी केवल एक ही इच्छा होनी चाहिए-मरने की इच्छा, ताकि भारत जी सके; एक शहीद की मौत मरने की इच्छा, जिससे स्वतंत्रता की राह शहीदों के खून से बनाई जा सके।
साथियो, स्वतंत्रता के युद्ध में मेरे साथियो ! आज मैं आपसे एक ही चीज मांगता हूँ; सबसे ऊपर मैं आपसे खून मांगता हूँ। यह खून ही उस का बदला लेगा, जो शत्रु ने बहाया है। खून से ही आजादी की कीमत चुकाई जा सकती है। तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा।’
नेताजी के कदम तेजी से भारत की ओर बढ़ने लगे थे। जापानी सेना के साथ मिलकर आजाद हिन्द फौज इंफाल और कोहिमा तक आ पहुँची। तभी जापान ने पर्ल-हार्बर पर आक्रमण कर दिया। भारी संख्या में अमेरिकी युद्धपोत और सैनिक हताहत हुए। अमेरिका ने युद्ध में सीधे उतरने की घोषणा कर दी। अगस्त में जापान के क्रमशः हिरोशिमा और नागासाकी पर अमेरिका ने अणुबम डाल दिया। पलक झपकते ही लाखों लोग मारे गए। असंख्य विकलांग हो गए । मानवीय इतिहास की इस सर्वाधिक भयानक विभीषिका के बाद जापान ने घुटने टेक दिए।
इधर स्थितियाँ मित्र राष्ट्रों के पक्ष में झुकने लगी। मणिपुर-नागालैंड आ पहुँची जापानी सेना पीछे हटने लगी। अंग्रेजों ने आजाद हिंद फौज के सैनिकों का भीषण संहार किया। पर नेताजी हार माननेवालों में नहीं थे। वे किसी भी मूल्य पर भारत को स्वाधीन देखना चाहते थे। रूस को साथ लेने की दृष्टि से उन्होंने मंचुरिया जाने का फैसला किया। 18 अगस्त 1945 को वे एक युद्धयान से मंचुरिया के लिए रवाना भी हुए।
23 अगस्त 1945 को जापान की दोमेई न्यूज एजेंसी ने बताया कि 18 अगस्त को नेताजी का विमान ताइवान में दुर्घटना ग्रस्त हो गया था और दुर्घटना में बुरी तरह जले नेताजी का अस्पताल में निधन हो गया है। एजेंसी के अनुसार नेताजी की अस्थियाँ जापान के रेनकोजी बौद्ध मंदिर में रखी गई हैं।
तब से, अब तक नेताजी की मृत्यु को संदेह की दृष्टि से देखा जाता है। 1956 और 1977 में गठित जाँच आयोगों ने निष्कर्ष निकाला कि नेताजी की मृत्यु उस विमान दुर्घटना में ही हुई थी। जबकि 1999 में बने मुखर्जी आयोग ने नेताजी की विमान दुर्घटना में मृत्यु का कोई सबूत नहीं पाया। यह पहला आयोग था जिसने ताइवान सरकार से 18 अगस्त 1945 की दुर्घटना की अधिकृत रपट मांगी थी। ताइवान सरकार ने आयोग को बताया कि उस दिन ताइवान में कोई विमान दुर्घटना हुई ही नहीं थी। बाद में भारत सरकार ने मुखर्जी आयोग की रपट को अस्वीकार कर दिया।
18 अगस्त 1945 से 80 के दशक तक देश के विभिन्न भागों से नेताजी को देखे जाने की खबरें आती रहीं। गुमनामी बाबा और स्वामी शारदानंद के नेताजी होने के दावे भी किये गए पर अन्यान्य कारणों से प्रशासनिक स्तर पर इन दावों की कोई जाँच नहीं की गई।
1897 में जन्मे सुभाषबाबू अब नहीं हैं, यह तो निश्चित है। अपनी दैहिक मृत्यु के बाद भी अद्भुत व्यक्तित्व और अनन्य राष्ट्रप्रेम का यह उफनता ज्वालामुखी जनमानस की आँखों में निराकार से साकार हो उठता है। नेताजी को अमर और चेतन मानने का इससे बड़ा प्रमाण और क्या होगा कि उन्हें मरणोपरांत भारतरत्न देने की बात पर देश भर में विरोध की लहर उठी। भारतीय जनता इस योद्धा को मृत मानने को तैयार नहीं। फलतः सरकार को अपनी बात वापस लेनी पड़ी।
नेताजी सुभाषचंद्र बोस का जीवन इस बात का अनन्य उदाहरण है कि अकेला व्यक्ति चाहे तो अदम्य साहस, धैर्य और प्रखर राष्ट्रवाद से महासत्ता को भी चुनौती दे सकता है। भारत की अधिकांश जनता मानती है कि यदि नेताजी होते तो विभाजन नहीं होता।
सुभाषबाबू ने अपने देश के स्वाधीनता संग्राम के यज्ञ की जैसी वेदी बनाई, जिस तरह समिधा तैयार की, विशाल जनसमर्थन जुटाया और फिर अपनी आहुति दे दी, यह भारत ही नहीं अपितु विश्व इतिहास का असाधारण उदाहरण है। उन्होंने ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा’ का केवल नारा भर नहीं दिया बल्कि आजादी हासिल करने के लिए अपना रक्त अर्पित भी कर दिया। आजादी की लड़ाई के इस शीर्षस्थ महानायक को उसीके तय किये हुए अभिवादन में ‘जयहिंद !’
© संजय भारद्वाज
सुभाष बाबू के त्याग और मार्गदर्नेशन ने हमें आज़ादी दिलाई पर इस देश ने उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने में 72 वर्ष लगा दिए।
लेख अपने आप में पूरा इतिहास स्पष्ट करता है।