श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – चुराये हुए साहित्य की दुकानें
ईश्वर ने मनुष्य को अभिव्यक्ति के जो साधन दिये, लेखन उनमें सारस्वत प्रकार है। श्रुति से आरम्भ हुई परम्परा पत्तों से होते हुए आज के पेपरलेस सोशल मीडिया तक आ पहुँची है। हर काल में लिखना, मनुष्य के कह सकने का एक मुख्य माध्यम रहा है। कोई लेखक हो न हो, अपनी बात कहने के बाद एक प्रकार का विरेचन अवश्य अनुभव करता है।
वस्तुत: विचार से कहन तक वाया चिंतन अपनी प्रक्रिया है। प्रक्रिया की अपनी पीड़ा है, प्रक्रिया का अपना आनंद है। यह बीजारोपण से प्रसव तक की कहानी है, हरेक की अपनी है, हरेक की ज़ुबानी है।
सोशल मीडिया के प्रादुर्भाव के बाद अभिव्यक्ति के लिए विशाल मंच उपलब्ध हुआ। चूँकि यह इंटरएक्टिव किस्म का मंच है, पढ़े हुए पर लिखी हुई प्रतिक्रिया भी तुरंत आने लगी। स्वाभाविक था कि लेखकों को इसके तिलिस्म ने बेतहाशा अपनी ओर आकृष्ट किया। लेकिन जल्दी ही इसका श्याम पक्ष भी सामने आने लगा।
बड़ेे साहित्यकारों को पढ़ने-समझने की तुलना में येन-केन प्रकारेण परिदृश्य पर छा जाने का उतावलापन बढ़ा। इस प्रक्रिया में जो साहित्य पहले बाँचा जाता था, अब टीपा जाने लगा।
इसी मनोवृत्ति का परिणाम है-चुराये हुए साहित्य की दुकानें।
मनुष्य जीवन में गर्भावस्था के लिए सामन्यत: नौ महीने का प्राकृतिक विधान है। विज्ञान कितनी ही तरक्की कर ले, इसे कम नहीं कर सकता। अन्यान्य कारणों से आजकल सरोगेसी का मार्ग भी अपनाया जा रहा है। साहित्य के क्षेत्र में अनुसंधान इससे भी आगे पहुँच गया है। सोशल मीडिया पर उपलब्ध साहित्य की बहती गंगा में चर्चित रचना के कुछ शब्द हाथ की सफाई से अपहृत कर लीजिए, फिर उसमें अपने कुछ शब्द बलात ठूँसकर सर्जक हो जाइये। प्रसिद्ध साहित्यिक कृतियों के समानांतर कुछ लिखने का एक पिछला दरवाज़ा भी है। कुछ मामलों में लिखने के बजाय लिखवाने का चलन भी है।
प्रश्न इसके बाद जन्म लेता है। प्रश्न है कि क्या इन दाँव-पेंची अपहरणकर्ताओं को सृजन का सुख मिल सकता है? स्पष्ट उत्तर है-‘नहीं।’ क्या कभी वे अपनी रचना की प्रक्रिया पर चर्चा कर पाएँगे?..‘नहीं।’ चिंतन में फलां शब्द क्यों आया, बता पाएँगेे?..‘कभी नहीं।’ सारे ‘नहीं’ में इनके साहित्यकार होने को कैसे ‘हाँ’ कहा जा सकता है? ‘स’ हित में रचे गए शब्द साहित्य हैं। ऐसे में दूसरे के अहित को सामने रखकर जो जुगाड़ की गई हो, वह साहित्य नहीं हो सकती। फलत: ऐसी जुगाड़ करनेवाला साहित्यकार भी नहीं हो सकता।
ऐसा नहीं है कि ये स्थितियाँ आज से पहले नहीं थीं। निश्चित थीं और आगे भी रहेंगी। अलबत्ता सूचना क्रांति के विस्फोट से पहले संज्ञान में बहुत कम आती थीं। कालानुकूल चोले में मूलभूत समस्याएँ हर युग में कमोबेश एक-सी होती हैं। इनका हल हर युग को अपने समय की नीतिमत्ता और उपलब्ध संसाधनों के हिसाब से तलाशना होता है।
वर्तमान समय में कथित लेखक जिस सोशल मीडिया का लाभ उठाकर चोरी के साहित्य की दुकानें खोले बैठे हैं, उसी मीडिया का उपयोग उनके विरुद्ध किया जाना चाहिए। वैधानिक मार्ग अपना काम करते रहेंगे पर साहित्यिक क्षेत्र में उनका बहिष्कार तो हो ही सकता है। एक मत है कि यों भी पाइरेटेड की उम्र नहीं होती। किंतु पाइरेसी से मूल को नुकसान हो रहा है। वाचन संस्कृति का आलेख अवरोही हो चला है। ऐसे में मात्रा के मुकाबले गुणवत्ता पर ध्यान देना होगा। पाठक जो पढ़े, जितना पढ़े, वह स्तरीय हो। स्तरीय को उस तक उसे पहुँचाने के लिए चोरी का साहित्य हटाना हमारा दायित्व बनता है। इस दायित्व की पूर्ति के लिए सजग साहित्यकार और जागरूक पाठक दोनों को साथ आना होगा। अस्तु!
© संजय भारद्वाज
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈