श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 2 ??

राष्ट्र का संगठन :

राष्ट्र का गठन राज्य या प्रदेश से होता है। प्रदेश, जनपद से मिलकर बनते हैं। जनपद की इकाई तहसील होती है। तहसील नगर और गाँवों से बनती है। नगर या गाँव वॉर्ड अथवा प्रभाग से, प्रभाग मोहल्लोेंं से, मोहल्लेे परिवारों से और परिवार, व्यक्ति से बनता है। इस प्रकार व्यक्ति या नागरिक, राष्ट्र की कोशिका है। व्यक्तियों के संग से संघ के रूप में उभरता है राष्ट्र।

व्यक्ति, समष्टि, सृष्टि  एवं एकात्मता :

संगी-साथी हो चाहे जीवनसंगी, किसीका साथ न हो तो मनुष्य पगला जाता है। मनुष्य को साथ चाहिए, मनुष्य को समाज चाहिए। दूसरे शब्दों में ’मैन इज़ अ सोशल एनिमल।’

सामाजिक होने का अर्थ है कि मनुष्य अकेला नहीं रह सकता। अकेला नहीं रह सकता, अत: स्त्री-पुरुष साथ आए। यूँ भी सृष्टि युग्मराग है। प्रकृति और पुरुष साथ न हों तो सृष्टि चलेगी कैसे?

पाषाणयुग में स्त्री, पुरुष दोनों शिकार करने में सक्षम थे, आत्मनिर्भर थे। आरंभ में लैंगिक आकर्षण के कारण वे साथ आए। यौन सम्बंध हुए, स्त्री ने गर्भ धारण किया। गर्भ में जीव क्या आया मानो मनुष्य की मनुष्यता अवतरित हुई।

वस्तुत: मनुष्य में विराटता अंतर्भूत है। विराट एकाकी नहीं होता और सज्जन में, शठ में सब में होती है। इसी विराटता ने सूक्ष्म से स्थूल की ओर पैर पसारना आरंभ किया। मनुष्य में समूह जागा।

गर्भवती के लिये शिकार करना कठिन था। सुरक्षित प्रसव का भी प्रश्न रहा होगा। भूख, सुरक्षा, शिशु का जन्म आदि अनेक भाव एवं विचार होंगे जिन्होंने सहअस्तित्व तथा दायित्वबोध को जन्म दिया।

मनुष्य का परिवार पनपा। परिवार के लिये बेहतर संसाधन जुटाने की इच्छा ने मनुष्य को विकास के लिये प्रेरित किया। अब पास-पड़ोस भी आया। मनुष्य सुख दुख बाँटना चाहता था। वह समूह में रहने लगा। इसे विकास की मानसिक प्रक्रिया या प्रोसेस ऑफ साइकोलॉजिकल इवोल्यूशन कह सकते हैं।

वैसे इन तमाम सिद्धांतों से पहले अपौरूषेय आदिग्रंथ ऋग्वेद,  ईश्वर का ज्ञानोपदेश सीधे लेकर आ चुका था। स्पष्ट उद्घोष है-

॥ सं. गच्छध्वम् सं वदध्वम्॥

 ( ऋग्वेद 10.181.2)

अर्थात साथ चलें, साथ (समूह में) बोलें। ऋग्वेद द्वारा प्रतिपादित सामूहिकता का मंत्र मानुषिकता एवं एकात्मता का प्रथम अधिकृत संस्करण है।

अथर्ववेद एकात्मता के इसी तत्व के मूलबिंदु तक जाता है-

॥ मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्, मा स्वसारमुत स्वसा।

सम्यञ्च: सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया॥2॥

(अथर्ववेद 3.30.3)

अर्थात भाई, भाई से द्वेष न करें, बहन, बहन से द्वेष न करें, समान गति से एक-दूसरे का आदर- सम्मान करते हुए परस्पर मिल-जुलकर कर्मों को करने वाले होकर अथवा एकमत से प्रत्येक कार्य करने वाले होकर भद्रभाव से परिपूर्ण होकर संभाषण करें।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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Rita Singh

मनुष्य का सामाजिक प्राणी बनने की निरंतर प्रक्रिया

Dr Sunita

बेहतरीन …पढ़ रही हूँ…

वीनु जमुआर

‘मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है’ की सुंदर व्याख्या। ‘व्यक्तिओं के संग से संघ के रूप में उभरता राष्ट्र …’ ??