श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
संजय दृष्टि – लघुकथा- बुतयुग
सारे बदहवास थे। इस तरह की बीमारी इससे पहले न देखी, न सुनी। उस लेटे हुए आदमी के अंग एक-एक कर धीरे-धीरे पत्थर होते जा रहे थे।
अचानक एक औरत की चीख सन्नाटे को चीरने लगी। एक आदमी बालों से पकड़कर औरत को लात, मुक्कों से बेदम मार रहा था। वह चीख रही थी, मदद की गुहार लगा रही थी। भीड़ चुप थी। आदमी ने हैवान की मानिंद चाकू से कई वार औरत पर किए।
औरत अब लोथड़ा थी। आदमी जा चुका था। भीड़ मर चुकी थी।
उधर शोर उठा, ‘ अरे आदमी बुत में बदल गया, आदमी बुत में बदल गया।’ लेटा हुआ आदमी ऊपर से नीचे तक पूरा पत्थर हो चुका था।
बुत युग की यह शुरुआत थी।
© संजय भारद्वाज
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
मनुष्य का बुत बन जाना-एक मार्मिक रचना।
बुतयुग ..
चिंतनीय ! ?