श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये।
संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 4
भारतीय संविधान और सामासिकता :
एकात्मता भारत का प्राण है। यही कारण है कि भारतीय संविधान ने भी सामासिक संस्कृति या ‘कंपोजिट कल्चर’ का उल्लेख किया है। कंपोजिट शब्द का उपयोग भारत के संविधान में यूँ ही नहीं किया गया। डॉ राजेंद्र प्रसाद की अध्यक्षता में बनी इस सभा में भारतीय दर्शन का गहन अध्ययन किये हुए अनेक लोग थे। इनमें सरदार वल्लभभाई पटेल, पं. जवाहरलाल नेहरू, डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी, डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर, पुरुषोत्तमदास टंडन, गोविंदवल्लभ पंत, सच्चिदानंद सिन्हा, वी.टी.कृष्णमाचारी, हरेन्द्रकुमार मुखर्जी, आचार्य कृपलानी, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, सरदार बलदेवसिंह, आबिद हुसैन, सेठ गोविंद दास, पंजाबराव देशमुख, गोपीनाथ बारदोलोई, कन्हैयालाल मुंशी, नरहर विष्णु गाडगील, मोटूरि सत्यनारायण, नीलम संजीव रेड्डी, रामनाथ गोयनका, ठक्कर बापा, गणेश वासुदेव मालवणकर जैसे कुछ सदस्यों के नाम उल्लेेखनीय हैं। 389 सदस्यों की इस सभा के सदस्य ही स्वतंत्र भारत की पहली संसद के सदस्य भी बने।
इस सभा द्वारा उपयोग किये सामासिक शब्द को समझने का प्रयास किया जाय।
समास का अर्थ है योग, दो या दो से अधिक का योग। अंग्रेजी का शब्दकोश उठाकर देखें तो स्पष्ट होता है कि दो या अधिक भिन्न संस्कृति वाले लोग जब साथ आते हैं तो कंपोजिट बनता है। लेखक की दृष्टि में सामासिक शब्द अपने अर्थ में कंपोजिट की तुलना में विराट है। मिलना, जुलना, जुड़ना, एक साथ आना, एकात्म होना अर्थात सामासिक होना। सामासिक होना अर्थात भारतीय होना अर्थात एक अर्थ में भारत होना।
सामासिकता और उत्सव :
सामासिकता के दर्शन दो स्तर पर होते हैं। अंतर्भूत सामासिकता सूक्ष्म शरीर की भाँति होती है जिसके दर्शन के लिए देखने को दृष्टि में बदलना होता है। दूरबीन या बाइनोक्यूलर के स्थान पर सूक्ष्मदर्शी या माइक्रोस्कोप को काम में लाना पड़ता है। उदाहरण के लिए मनुष्य की देह पंचतत्वों से बनी है। कहा भी गया है-
क्षिति जल पावक गगन समीरा, पंचतत्व से बना सरीरा।
इन पंचतत्वों में पानी है जिससे देह का तीन चौथाई भाग बना है। देह की घट-घट में बसा है पानी पर निरी आँख से नहीं दिखता अंतर्भूत जल। उसे देखने, अनुभूत करने के लिये पहले कहे अनुसार देखने को दृष्टि में बदलना पड़ता है।
दूसरा स्तर खुली आँखों से देखा, निहारा जा सकता है। मनुष्य का भीतर जैसा होता है, बाहर का व्यवहार भी वैसा ही होता है। पानी पीता हुआ मनुष्य सहज ही दिखता है। इसी भाँति उत्सव, मेले और तीर्थटन जनमानस की नस- नस में बसी सामासिकता का दर्शन कराते हैं।
क्रमश: ….
© संजय भारद्वाज
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
एकात्मता व सामाजिकता का सुंदर विश्लेषण। अप्रतिम आलेख।