श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये।
संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 5
उत्सव का महत्व :
मनुष्य मूल रूप से उत्सवधर्मी है। संदर्भ भारतीय परंपरा और दर्शन का हो तो यह उत्सव जन्म से मृत्यु तक चलता है। हमारे षोडश संस्कार तो जन्म से पूर्व ही आरंभ हो जाते हैं और मृत्यु के लगभग दो पक्ष बाद तक चलते हैं। यह तब है जब छमाही और वार्षिक श्राद्ध/गया श्राद्ध इत्यादि को इस इस संदर्भ में शामिल नहीं किया गया है। जन्म की आहट सुनाई देने पर बजने वाला बैंड भरपूर आयु लेकर गुजरे व्यक्ति की अंत्येष्टि में भी बजता है। कर्मठ भारतीय जनमानस निष्काम भाव से पाने और खोने को विधि हाथ छोड़कर अपनी सीमाओं में आनंद मनाना जानता है। गोस्वामी जी ने प्रभु श्रीराम के मुख से कहलवाया है,
हानि लाभ जीवन मरन जस अपजस विधि हाथ।
उत्सव जीवन को नीरसता से बाहर लाते हैं। मानसिक विरेचन का साधन बनते हैं उत्सव। किसी भी समुदाय को अपने अतीत से जोड़कर परंपरा के निर्वहन का वाहक, कारक, साधन और साधक होते हैं उत्सव।
समरसता और सामाजिक जुड़ाव मनुष्य जीवन के महत्वपूर्ण बिंदु हैं। नीरसता या एकरसता से समरसता की यात्रा शब्दों में एक ही वाक्य में पूरी हो जाती है पर जीवन में पर्व, त्योहार और उत्सव के माध्यम से प्रकट होती है। इनके साथ ॠतुचक्र और खगोलीय परिवर्तन भी जुड़े हैं। उदाहरण के लिए मांडने, रंगोली, गेरू-चूना, गोबर इन सब में एक दूसरे के साथ समूह में काम किया जाता था। मांडने में जो प्रतीक हैं वे सारे सामासिकता के हैं। प्रतीक प्रकृति से लिए गए हैं। लोक का हर त्यौहार सामासिक है।
क्रमश: ….
© संजय भारद्वाज
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
संजयउवाच@डाटामेल.भारत