श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 6 ??

उत्सवधर्मी समाज :

जितने उत्सव भारतीय समाज में है उतने विश्व के दूसरे किसी भी समुदाय में नहीं है। इस  दर्शन में जीवन प्रतिपल एक उत्सव है। विश्व के अनेक छोटे-बड़े धार्मिक समुदाय अन्यान्य कारणों से भारत में आए। इनमें शरण लेने से लेकर धर्म प्रचार और आक्रमणकारी सभी सम्मिलित हैं। कालांतर में इनमें से अधिकांश भारत में बस गए।  गोस्वामी जी ने बालकांड में भरत के नामकरण के प्रसंग में लिखा है,

बिस्व भरन पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई॥

जो संसार का भरण-पोषण करता है, वही भरत कहलाता है। इसे भारत के संदर्भ में भी ग्रहण किया जा सकता है। उदारमना भारतीय संस्कृति ने घुसपैठियों और आक्रमणकारियों को अपनी ममता की उष्मा उसी प्रकार दी जैसे मादा कौवा अपने अंडों के साथ कोयल के अंडे भी सेती है।  पोषण रस से होता है। जैसे माता पयपान कराती है एवं शिशु पुष्ट होता है। माता और संतान एकात्म होते हैं। पयपान करता शिशु अनेक बार माता को काट लेता है, तब भी माता उसे हटाती नहीं। भारतभूमि व यहाँ आये आक्रमणकारियों के बीच भी यही सम्बंध रहा। समय साक्षी है कि भारत माँ को वासना और लूट-खसोट की दृष्टि से देखनेवालों को भी इस धरती ने पयपान ही कराया।

शत्रु को भी अपनी संतान की तरह देखनेवाली इस धरती पर मनुष्य जन्म पाना तो अहोभाग्य ही  है।

दुर्लभं भारते जन्म मानुष्यं तत्र दुर्लभम्।

अर्थात भारत में जन्म लेना दुर्लभ है। उसमें भी मनुष्य योनि पाना तो दुर्लभतम ही है। अनेक बार भारतीय संस्कृति की सामासिकता के लिए ‘गंगा -जमुनी तहज़ीब’ शब्द का प्रयोग होता है। इन पंक्तियों के लेखक की इससे मतभिन्नता है। गंगा भी भारत की है यमुना भी भारत की है। ऐसे में गंगा-जमुना में भेद कैसे हुआ? यह संस्कृति संगम की है जो अपने साथ अंतर्सलिला सरस्वती को भी समाहित करती है। यूँ भी सरस्वती का अभाव ही सारे छद्मवाद की जड़ होता है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
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Rita Singh

सच में सरस्वती का अभावही सारे छद्मवाद की जड़ है।सुंदर आलेख

अलका अग्रवाल

सच कहा, भारत में मनुष्य जन्म पाना सबके लिए दुर्लभ है।गंगा जमुनी तहजीब एक मुहावरे की तरह हिंदू मुस्लिम एकता को प्रदर्शित करता है। पर, वास्तव में ये दोनों बहनें भारत में ही प्रवाहित होती हैं।फिर इनमें भेद कैसा? अप्रतिम आलेख।