श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 14  – श्रीगणेश चतुर्थी एवं श्राद्ध पक्ष ??

श्रीगणेश चतुर्थी- श्रीगणेश का जन्मोत्सव है श्रीगणेशचतुर्थी। सनातन धर्म में श्रीगणेश प्रथमपूज्य के रूप में प्रतिष्ठित हैं। उनका प्रथमपूज्य होना वैदिक दर्शन में निहित उदात्तता तथा माता-पिता के प्रति गहन आदर व श्रद्धा का प्रतीक है। महर्षि मनु का उवाच है,

उपाध्यान्दशाचार्य आचार्याणां शतं पिता।
सहस्रं तु पितृन माता गौरवेणातिरिच्यते।।

दस उपाध्यायों से बढ़कर आचार्य, सौ आचार्यों से बढ़कर पिता और एक हजार पिताओं से बढ़कर माता, गौरव में अधिक है।

इसी दर्शन का अंगीकार करते हुए श्रीगणेश ने माता-पिता की परिक्रमा को ब्रह्मांड की परिक्रमा की प्रतिष्ठा प्रदान की। यही कारण है कि कालांतर में ‘श्रीगणेश करना’, किसी भी काम का आरंभ करने के अर्थ में रूढ़ हुआ।

आरंभ में श्रीगणेशचतुर्थी घर में मनाया जानेवाले त्योहार तक सीमित था। विशेषत: महाराष्ट्र में पर्व के रूप में इसे व्यक्तिगत से समष्टिगत बनाने का मार्ग दिखाया लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने। आज यह पर्व एकात्मता एवं सहयोग का सजीव प्रतीक बन चुका है।

श्राद्ध पक्ष- भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक श्राद्धपक्ष चलता है। सोलह दिवस चलने वाले श्राद्धपक्ष को पर्व कहना अटपटा लग सकता है। इसका भावपक्ष अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता और कर्तव्य का निर्वहन है। व्यवहार पक्ष देखें तो पितरों को खीर, पूड़ी व मिष्ठान का भोग इसे पर्व का रूप देता है। जगत के रंगमंच के पार्श्व में जा चुकी आत्माओं की तृप्ति के लिए सदाचारी निर्धन पुरोहित के स्थूल शरीर के माध्यम से स्वर्गीय के सूक्ष्म को भोज देना लोकातीत एकात्मता है। ऐसी सदाशय व उत्तुंग अलौकिकता वैदिक दर्शन में ही संभव है। यूँ भी सनातन परंपरा में प्रेत से प्रिय का अतिरेक अभिप्रेरित है। पूर्वजों के प्रति श्रद्धा प्रकट करने की ऐसी परंपरा वाला लिए श्राद्धपक्ष संभवत: विश्व का एकमात्र अनुष्ठान है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वा

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
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लतिका

श्राद्ध पक्ष का महत्वपूर्ण विश्लेषण।

अलका अग्रवाल

गणेश चतुर्थी तथा श्राद्ध पक्ष का सुंदर वर्णन।