श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 20 ??

मेलों का महत्त्व-

मेला भीड़ से लगता है, भीड़ से सजता है। जहाँ भी समूह होगा, वहाँ संभावनाएँ भी बहुगुणित होती जाती हैं। इन संभावनाओं के मूल में धर्म, अर्थ, समाज, संस्कृति, नीति, राजनीति, व्यापार-व्यवसाय, सहयोग, दर्शन, प्रदर्शन, लाभ आदि सभी विद्यमान होते हैं। सामान्यत: मेला एक क्षेत्र विशेष में एक लक्ष्य, एक उद्देश्य विशेष को लेकर आयोजित करने की परंपरा यही है। यह  राजा से रंक तक सभी के लिए उपयोगी होता है।

मेलों में बड़े स्तर पर आर्थिक व्यवहार होता है। बड़े व्यापारियों/व्यवसायियों के साथ छोटे-छोटे दुकानदार भी एक स्थान पर एकत्रित होते हैं। ग्राहक के लिए भाँति-भाँति प्रकार की वस्तुएँ एक स्थान पर लेने का यह अवसर होता है। यह अलग बात है कि मॉल और ऑनलाइन क्रय-विक्रय के इस समय में मेला बहुत पीछे छूटता जा रहा है। तथापि इस संभावना को नकारा नहीं जा सकता कि मॉल की संकल्पना के मूल में मेला ही रहा है।

मेलों में मनोरंजन के साधन और करतब का विशेष आकर्षण होता है। बाल-गोपालों की इसमें विशेष रुचि होती है। हर माता-पिता अपनी संतान को आनंद के अधिकाधिक क्षण देना चाहता है। इसके चलते मनोरंजन के आयोजनों का अच्छा कारोबार होता है।

लोक-कलाकारों, हस्त शिल्पकारों, गायक/गायिकाओं, विभिन्न कलाकारों के लिए मेला बड़ा मंच होता है। यहाँ वे अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन कर सकते हैं। साथ ही यह आय का साधन भी बनता है।

धार्मिक कारणों से लगनेवाले मेलों में साधु-संत बड़ी संख्या में आते हैं। आम आदमी के लिए इन संतों के दर्शन का यह विशेष अवसर होता है। संत समाज के लिए भी यह जनता के बीच आने, उनकी समस्याएँ जानने की भवभूमि बनता है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
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लतिका

‘मेला’ सचमुच बड़ा ही आनंददायक और उत्पादकों का व्यावसायिक का केंद्र भी था। अतीत के महत्वपूर्ण हिस्से को उजागर करने के लिए धन्यवाद!??

अलका अग्रवाल

सच है मेरा जहां एक तरफ व्यावसायिक केंद्र है तो दूसरी तरफ मनोरंजन का केंद्र भी है।इसके लगने के अलग अलग कारण हो सकते हैं। मूलतः यह हर प्रकार के व्यक्ति को एक जगह एकत्रित करने का कारण भी है। जानकारी पूर्ण आलेख।

माया कटारा

मेला सचमुच आनंददायी मिलन स्थल रहता था- भीड़ न हो तो मेला कैसा ? मेले सबंधी विविध पहलुओं से परिपूर्ण बहुरंगी जानकारी को रेखांकित करता आलेख …..अभिवादन…