श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 33 ??

4) संग से संघ बनता है। तीर्थाटन में मनुष्य साथ आता है। इनमें वृद्धों की बड़ी संख्या होती है। सत्य यह है कि अधिकांश बुजुर्ग, घर-परिवार-समाज से स्वयं को कटा हुआ अनुभव करते हैं। परस्पर साथ आने से मानसिक विरेचन होता है, संवाद होता है। मनुष्य दुख-सुख बतियाना है,  मनुष्य एकात्म होता है। पुनः अपनी कविता की कुछ पंक्तियाँ स्मरण आती हैं,

विवादों की चर्चा में

युग जमते देखे,

आओ संवाद करें,

युगों को

पल में पिघलते देखें..!

मेरे तुम्हारे चुप रहने से

बुढ़ाते रिश्ते देखे,

आओ संवाद करें,

रिश्तो में दौड़ते बच्चे देखें..!

बूढ़ी नसों में बचपन का चैतन्य फूँक देती है तीर्थयात्रा।

5) तीर्थाटन मनुष्य को बाहरी यात्रा के माध्यम से भीतरी यात्रा कराता है। मनुष्य इन स्थानों पर शांत चित्त से पवित्रता का अनुभव करता है। उसके भीतर एक चिंतन जन्म लेता है जो मनुष्य को चेतना के स्तर पर जागृत करता है। यह जागृति उसे संतृप्त की ओर मोड़ती है। अनेक तीर्थ कर चुके अधिकांश लोग शांत, निराभिमानी एवं परोपकारी होते हैं।

6) तीर्थाटन में साधु-संत, महात्मा, विद्वजन का सान्निध्य प्राप्त होता है। यह सान्निध्य मनुष्य की ज्ञानप्राप्ति की जिज्ञासा और पिपासा को न्यूनाधिक शांत करता है। व्यक्ति, सांसारिक और भौतिक विषयों से परे भी विचार करने लगता है।

7) किसी भी अन्य सामुदायिक उत्सव की भाँति तीर्थाटन में भी बड़े पैमाने पर वित्तीय विनिमय होता है, व्यापार बढ़ता है, आर्थिक समृद्धि बढ़ती है। वित्त के साथ-साथ वैचारिक विनिमय, भजन, कीर्तन, प्रवचन, सभा, प्रदर्शनी आदि के माध्यम से मनुष्य समृद्ध एवं प्रगल्भ होता है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
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अलका अग्रवाल

तीर्थाटन से वैचारिक विनिमय, भजन, कीर्तन, प्रवचन, सभा, प्रदर्शनी से समृद्ध एवं प्रगल्भ होता है मनुष्य। अप्रतिम आलेख।

माया कटारा

तीर्थाटन की दिल से बात की गई है , विविध पहलुओं से अवगत कराया गया है
मधुर समापन हेतु साधुवाद…