श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा – अंतिम भाग ??

उपसंहार-

त्योहार हो, मेला या तीर्थयात्रा, वैदिक संस्कृति केवल उपदेश नहीं करती अपितु सार्थक क्रियान्वयन को महत्व देती है। यहाँ आत्मतत्व सर्वोच्च है। हर आत्मा को सम्यक भाव से देखना ही एकात्मता है। एकात्मता के बिना तो तीर्थ के लिए आनेवाले हरेक को तीर्थयात्रा का फल भी प्रदान नहीं होता। स्पष्ट निर्देश है-

अकोपमलोऽमलमति: सत्यवादी दृढ़व्रत:।

आत्मोपमश्च भूतेषु स तीर्थफलमश्रुते।।

जिसमें क्रोध नहीं, जिसकी बुद्धि निर्मल है, जो सत्यवादी है, व्रतपालन में दृढ़ है, सब प्राणियों में अपनी आत्मा के समान अनुभव करता है, वह तीर्थ के फल को प्राप्त करता है।

 ‘आत्मोपमश्च’, सब प्राणियों में अपनी आत्मा के समान अनुभव करना, वैदिक दर्शन का प्राणतत्व है। सबमें अपनी आत्मा अर्थात एकात्म भाव।

इतना ही नहीं, अनेकानेक तीर्थों की यात्रा पर  आंतरिक शुचिता को वरीयता दी गई है।

तीर्थानामपि तत्तीर्थं विशुद्धिर्मनस: परा।

तीर्थों में सर्वश्रेष्ठ तीर्थ है अंत:करण की पूर्ण शुद्धता।

 त्यागकैनके अमृत्वमानशु:।

अर्थात त्याग द्वारा अमृत की प्राप्ति होती है। तीर्थ क्षेत्र पर जाकर उपभोग की एक वस्तु का त्याग करने की परंपरा है। द्वैत त्यागकर अद्वैत प्राप्त करने को वैदिकता, तीर्थ कहती है।

अद्वैत या एकात्मता मन को संकीर्णता से मुक्त कर अजातशत्रु होने का स्वर्णिम पथ है। इमानुएल क्लीवर का उद्धरण है, ‘ व्हेन देयर इज़.नो एनेमी विदिन, द एनेमीज़ आउटसाइड कैन नॉट हर्ट यू’  … एकात्म भाव शत्रुता की सारी आशंकाएँ नष्ट कर देता है।

एकात्म होने के लिए आत्मदर्शन होना अनिवार्य है। आदिशंकराचार्य से जब गुरु ने परिचय पूछा तो उन्होंने छह श्लोक कहे थे। ये श्लोक ‘निर्वाण षटकम्’ के नाम से जाने जाते हैं। संदर्भ के लिए केवल प्रथम एवं अंतिम श्वोक देखते हैं-

मनो बुद्धि अहंकार चित्तानि नाहं

न च श्रोत्र जिव्हे न च घ्राण नेत्रे |

न च व्योम भूमि न तेजो न वायु:

चिदानंद रूपः शिवोहम शिवोहम ||1||

मैं मन, बुद्धि, अहंकार और स्मृति नहीं हूँ, न मैं कान, जिह्वा, नाक और आँख हूँ। न मैं आकाश, भूमि, तेज और वायु ही हूँ, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ।

अहम् निर्विकल्पो निराकार रूपो

विभुव्याप्य सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम |

सदा मे समत्वं न मुक्ति: न बंध:

चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम ||6||

मैं समस्त संदेहों से परे, बिना किसी आकार वाला, सर्वगत, सर्वव्यापक, सभी इन्द्रियों को व्याप्त करके स्थित हूँ, मैं सदैव समता में स्थित हूँ, न मुझमें मुक्ति है और न बंधन, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ।

इसी आनंद को परमानंद तक ले जाना वैदिक संस्कृति का लक्ष्य है। आत्मा आनंद है, परमात्मा सच्चिदानंद है।

सत्, चित्, आनंद तक ले जानेवाले वैदिक में मूल शब्द ‘वेद’ है। वेद ‘विद्’ धातु से बना है जिसका अर्थ है ज्ञान। वैदिक संस्कृति  ज्ञान का दर्शन है और ज्ञान निराकार, सर्वव्यापी एवं आनंदरूप होता है।

वेद हों, उपनिषद, वेदांग, या पुराण, स्मृतियाँ हों या ब्राह्मण ग्रंथ, आरण्यक हों या प्रस्थानत्रयी, वैदिक संस्कृति में अंतर्भूत इस शाश्वत ज्ञान का अक्षर-अक्षर दर्शन होता है। वैदिकता ‘एकोऽहम् द्वितीय नास्ति’ का मनसा, वाचा, कर्मणा संदेश देती है। यह संदेश आत्मा और परमात्मा दोनों पर लागू होता है।

गायत्री मंत्र, वैदिक संस्कृति का अंत:करण है। यह महामंत्र आत्मा में परमात्मा को धारण करने की प्रार्थना है। परमात्मा सर्वत्र है। परमात्मा हर आत्मा में है। अत: सभी जन एकात्म हुए।

ॐ भूर्भूव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

समाप्त 

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
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Rita Singh

बहुत सुंदर जानकारी

अलका अग्रवाल

बहुत सुंदर बात कही-एकात्म भाव शत्रुता की सारी सीमाएं मिटा देता है। गायत्री मंत्र वैदिक संस्कृति का अंत:कर्ण है। अप्रतिम आलेख।

लतिका

आधुनिक काल में पारंपरिक ज्ञान का सरलता से विवेचन किया गया है. तीर्थों का हमारे पूर्वजों के जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान है, उससे जुड़े सभी संदर्भ पढ़कर अच्छा लगा. हार्दिक शुभकामनाएँ! 🦚

माया कटारा

आत्मदर्शी मार्ग दर्शन अपने आपमें उस परमशक्ति का साक्षात्कार करने की संजीवनी प्रदान की है आपने – सारे वेद मंत्रों का निचोड़ दिया है आपने
अथ से लेकर इति तक प्रत्येक शब्द शाश्वत सत्य को उजागर कर गया …
सत्यम ,शिवंम्, सुंदरम् का अलौकिक आनंद प्रदान कर गया ..
भारद्वाज परिवार के ऋणानुबंध से उपकृत हूँ ….