श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – अविराम 1111 – लिखता हूँ, सो जीता हूँ – संजय भारद्वाज
यक्ष प्रश्न है कि कहाँ से आरम्भ करूँ? उत्तर के शोध में में खुद को 2017 में खड़ा पाता हूँ। 1982 के बाद से लेखन सदा प्रचुर मात्रा में हुआ पर 2017 से नियमित-सा हो चला।
कविता, लघुकथा, आलेख, संस्मरण, व्यंग्य, कहानी, नाटक, एकांकी, रेडियो रुपक और ‘उवाच’ के रूप में अभिव्यक्ति जन्म लेती रही। सोशल मीडिया के प्रादुर्भाव के बाद पत्र-पत्रिकाओं के साथ-साथ विभिन्न ऑनलाइन प्लेटफार्मों द्वारा भी पाठकों तक पहुँचने लगी थी। तत्पश्चात जून 2019 में ‘ई-अभिव्यक्ति’ ने ‘संजय उवाच’ को साप्ताहिक रूप से प्रकाशित करना आरम्भ किया।
फिर सम्पादक आदरणीय बावनकर जी का एक पत्र मिला। पत्र में उन्होंने लिखा था, “आपकी रचनाएँ इतनी हृदयस्पर्शी हैं कि मैं प्रतिदिन उदधृत करना चाहूँगा। जीवन के महाभारत में ‘संजय उवाच’ साप्ताहिक कैसे हो सकता है?”
‘संजयकोश’ में यों भी लिखना और जीना पर्यायवाची हैं। फलत: इस पत्र की निष्पत्तिस्वरूप ठीक 1111 दिन पहले अर्थात 25 जुलाई 2019 से सोमवार से शनिवार ‘संजय दृष्टि’ के अंतर्गत ‘ई-अभिव्यक्ति’ ने इस अकिंचन के ललित साहित्य को दैनिक रूप से प्रकाशित करना आरम्भ किया। रविवार को ‘संजय उवाच’ प्रकाशित होता रहा।
आज पीछे मुड़कर देखने पर पाता हूँ कि इन 1111 दिनों ने बहुत कुछ दिया। ‘नियमित-सा’ को नियमित होना पड़ा। अलबत्ता नियमित लेखन की अपनी चुनौतियाँ और संभावनाएँ भी होती हैं। नियमित होना अविराम होता है। हर दिन शिल्प और विधा की नई संभावना बनती है तो पाठक को प्रतिदिन कुछ नया देने की चुनौती भी मुँह बाए खड़ी रहती है। अनेक बार पारिवारिक, दैहिक, भावनात्मक कठिनाइयाँ भी होती हैं जो शब्दों के उद्गम पर कुंडली मारकर बैठ जाती हैं। विनम्रता से कहना चाहता हूँ कि यह कुंडली, भीतर की कुंडलिनी को कभी प्रभावित नहीं कर पाई। माँ शारदा की अनुकंपा ऐसी रही कि लेखनी हाथ में आते ही पथ दिखने लगता और लेखक पथिक बन जाता।
पथ में जो दिखा, पथिक उसे शब्दों में अंकित करने लगा। समय साक्षी है कि ‘संजय’ के पास अपने समय का आँखों देखा हाल सुनाने के अलावा विकल्प होता भी नहीं। इसी बाध्यता ने कभी लिखवाया-
दिव्य दृष्टि की
विकरालता का भक्ष्य हूँ,
शब्दांकित करने
अपने समय को विवश हूँ,
भूत और भविष्य
मेरी पुतलियों में
पढ़ने आता है काल,
वरद अवध्य हूँ
कालातीत अभिशप्त हूँ!
पथिक ने अनेक बार यात्रा के बीच पोस्ट लिखी और भेजी। कभी किसी आयोजन में मंच पर बैठे-बैठे रचना भीतर किल्लोल करने लगी, तभी लिखी और भेजी। ड्राइविंग में कुछ रचनाओं ने जन्म पाया तो कुछ ट्रैफिक के चलते प्रसूत ही नहीं हो पाईं।
तब भी जो कुछ जन्मा, पाठकों ने उसे अनन्य नेह और अगाध ममत्व प्रदान किया। कुछ टिप्पणियाँ तो ऐसी मिलीं कि लेखक नतमस्तक हो गया।
नतमस्तक भाव से ही कहना चाहूँगा कि लेखन का प्रभाव रचनाकार मित्रों पर भी देखने को मिला। अपनी रचना के अंत में दिनांक और समय लिखने का आरम्भ से स्वभाव रहा। आज प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से जुड़े 90 प्रतिशत से अधिक रचनाकार अपनी रचना का समय और दिनांक लिखने लगे हैं।
विनम्रता से एक और आयाम की चर्चा करना चाहूँगा। लेखन की इस नियमितता से प्रेरणा लेकर अनेक मित्र नियमित रूप से लिखने लगे। किसी लेखक के लिए यह अनन्य और अद्भुत पारितोषिक है।
आदरणीय हेमंत जी इस नियमितता का कारण और कारक बने। उन्हें हृदय की गहराइयों से अनेकानेक धन्यवाद।
नियमित रूप से अपनी प्रतिक्रिया देनेवाले पाठकों के प्रति आभार। ‘आप हैं सो मैं हूँ।’ मेरा अस्तित्व आपका ऋणी है।
दो हाथोंवाला
साधारण मनुष्य था मैं मित्रो!
तुम्हारी आशा और
तुम्हारे विश्वास ने
मुझे सहस्त्रबाहु कर दिया!
आप सबके ऋण से उऋण होना भी नहीं चाहता। घोर स्वार्थी हूँ। चाहता हूँ कि समय के अंत तक यात्रा करता रहूँ, समय के अंत तक हज़ार हाथों से रचता रहूँ।
(लिखता हूँ, सो जीता हूँ।)
© संजय भारद्वाज
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
संजयउवाच@डाटामेल.भारत