श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
☆ आपदां अपहर्तारं ☆
आज की साधना
श्रीगणेश साधना, गणेश चतुर्थी तदनुसार बुधवार 31अगस्त से आरम्भ होकर अनंत चतुर्दशी तदनुसार शुक्रवार 9 सितम्बर तक चलेगी।
इस साधना का मंत्र होगा- ॐ गं गणपतये नमः
साधक इस मंत्र के मालाजप के साथ ही कम से कम एक पाठ अथर्वशीर्ष का भी करने का प्रयास करें। जिन साधकों को अथर्वशीर्ष का पाठ कठिन लगे, वे कम से कम श्रवण अवश्य करें। उसी अनुसार अथर्वशीर्ष पाठ/ श्रवण का अपडेट करें।
अथर्वशीर्ष का पाठ टेक्स्ट एवं ऑडियो दोनों स्वरूपों में इंटरनेट पर उपलब्ध है।
आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
संजय दृष्टि – काला पानी
सुख-दुख में
समरसता,
हर्ष-शोक में
आत्मीयता,
उपलब्धि में
साझा उल्लास,
विपदा में
हाथ को हाथ,
जैसी कसौटियों पर
कसते थे रिश्ते,
परम्पराओं में
बसते थे रिश्ते,
संकीर्णता के झंझावात ने
उड़ा दी सम्बंधों की धज्जियाँ,
रौंद दिये सारे मानक,
गहरे गाड़कर अपनापन
घोषित कर दिया
उस टुकड़े को बंजर..,
अब-
कुछ तेरा, कुछ मेरा,
स्वार्थ, लाभ,
गिव एंड टेक की
तुला पर तौले जाते हैं रिश्ते..,
सुनो रिश्तों के सौदागरो!
सुनो रिश्तों के ग्राहको!
मैं सिरे से ठुकराता हूँ
तुम्हारा तराजू,
नकारता हूँ
तौलने की
तुम्हारी व्यवस्था,
और स्वेच्छा से
स्वीकार करता हूँ
काला पानी
कथित बंजर भूमि पर,
तुम्हारी आँखों की रतौंध
देख नहीं पाई जिसकी
सदापुष्पी कोख…,
जब थक जाओ
अपने काइयाँपन से,
मारे-मारे फिरो
अपनी ही व्यवस्था में,
तुम्हारे लिए
सुरक्षित रहेगा एक ठौर,
बेझिझक चले आना
इस बंजर की ओर,
सुनो साथी!
कृत्रिम जी लो
चाहे जितना,
खोखलेपन की साँस
अंतत: उखड़ती है,
मृत्यु तो सच्ची ही
अच्छी लगती है..!
© संजय भारद्वाज
प्रातः 10:16 बजे, 10 जुलाई 2021
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
संजयउवाच@डाटामेल.भारत