श्री जय प्रकाश पाण्डेय
वर्तमान में साहित्यकारों के संवेदन में बिखराव और अन्तर्विरोध क्यों बढ़ता जा रहा है, इसको जानने के लिए साहित्यकार के जीवन दृष्टिकोण को बनाने वाले इतिहास और समाज की विकासमान परिस्थितियों को देखना पड़ता है, और ऐसा सब जानने समझने के लिए खुद से खुद का साक्षात्कार ही इन सब सवालों के जवाब दे सकता है, जिससे जीवन में रचनात्मक उत्साह बना रहता है। साक्षात्कार के कटघरे में बहुत कम लोग ऐसे मिलते हैं, जो अपना सीना फाड़कर सबको दिखा देते हैं कि उनके अंदर एक समर्थ, संवेदनशील साहित्यकार विराजमान है।
कुछ लोगों के आत्मसाक्षात्कार से सबको बहुत कुछ सीखने मिलता है, क्योंकि वे विद्वान बेबाकी से अपने बारे में सब कुछ उड़ेल देते है।
खुद से खुद की बात करना एक अनुपम कला है। ई-अभिव्यकि परिवार हमेशा अपने सुधी एवं प्रबुद्ध पाठकों के बीच नवाचार लाने पर विश्वास रखता है, और इसी क्रम में हम माह के हर दूसरे बुधवार को “खुद से खुद का साक्षात्कार” मासिक स्तम्भ प्रारम्भ कर रहे हैं। जिसमें ख्यातिलब्ध लेखक खुद से खुद का साक्षात्कार लेकर हमारे ईमेल ([email protected]) पर प्रेषित कर सकते हैं। साक्षात्कार के साथ अपना संक्षिप्त परिचय एवं चित्र अवश्य भेजिएगा।
आज इस कड़ी में प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार – साहित्यकार श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी का खुद से खुद का साक्षात्कार.
– जय प्रकाश पाण्डेय, संपादक ई-अभिव्यक्ति (हिन्दी)
☆ खुद से खुद का साक्षात्कार #1 – खुद से खुद का साक्षात्कार बतर्ज हम को हमीं से चुरा लो….. श्री प्रभाशंकर उपाध्याय ☆
श्री प्रभाशंकर उपाध्याय
लेखक परिचय
नाम : प्रभाशंकर उपाध्याय
जन्म : 01.09.1954
जन्म स्थान : गंगापुर सिटी (राज0)
शिक्षा : एम.ए. (हिन्दी), पत्रकारिता में स्नातकोत्तर उपाधि।
व्यवसाय : स्टेट बैंक ऑफ बीकानेर एण्ड जयपुर से सेवानिवृत अधिकारी।
सम्पर्क : 193,महाराणा प्रताप कॅालोनी, सवाईमाधोपुर (राज.) पिन-322001
मोबाइल सं. : 9414045857, 8178295268
कृतियां/रचनाएं : चार कृतियां- ’नाश्ता मंत्री का, गरीब के घर’, ‘काग के भाग बड़े‘, ‘बेहतरीन व्यंग्य’ तथा ’यादों के दरीचे’। साथ ही भारत की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लगभग पांच सौ रचनाएं प्रकाशित एवं प्रसारित। कुछेक रचनाओं का पंजाबी एवं कन्नड़ भाषा अनुवाद और प्रकाशन। व्यंग्य कथा- ‘कहां गया स्कूल?’ एवं हास्य कथा-‘भैंस साहब की‘ का बीसवीं सदी की चर्चित हास्य-व्यंग्य रचनाओं में चयन, ‘आह! दराज, वाह! दराज’ का राजस्थान के उच्च माध्यमिक शिक्षा पाठ्यक्रम में शुमार। राजस्थान के लघु कथाकार में लघु व्यंग्य कथाओं का संकलन।
पुरस्कार/ सम्मान : कादम्बिनी व्यंग्य-कथा प्रतियोगिता, जवाहर कला केन्द्र, पर्यावरण विभाग राजस्थान सरकार, स्टेट बैंक ऑफ बीकानेर एण्ड जयपुर, अखिल भारतीय साहित्य परिषद तथा राजस्थान लोक कला मण्डल द्वारा पुरस्कृत/सम्मानित। राजस्थान साहित्य अकादमी का कन्हैयालाल सहल पुरस्कार घोषित।
खुद से खुद का साक्षात्कार बतर्ज हम को हमीं से चुरा लो….. श्री प्रभाशंकर उपाध्याय
ब्रज भाषा के महाकवि देव ने एक बार मन को तड़ी दी थी- नासपीटे, तेरी शरारतों का जरा सा भी अनुमान होता तो तेरे हाथ-पांव तोड़ देता।
अतएव, उसी भय से मैं शैतान मन को अपना साक्षात्कार नहीं दे रहा बल्कि अपने हम को यह सुनहरा अवसर प्रदान कर रहा हूं। लिहाजा, हम को हमीं से चुरा लो गीत की तर्ज पर हमारे हम (जिसे मैंने ‘प्रतिच्छाया हम’ लिखा है) के द्वारा ‘हम’ से लिया इंटरव्यू प्रस्तुत किए दे रहा हूं। लिहाजा, दोनों में जो तीखी तकरार हुई, उसका लुत्फ़ लीजिए है-
हम(प्रतिच्छाया)- तुम लेखक ही क्यों भए…और कुछ क्यों न?
हम- हमरा जनम गणेश चतुर्थी के दिन हुआ था, चित्रा नक्षत्र में। सो मामाश्री ने नामकरण किया, गजानन। शास्त्रों में कहा गया है – ‘सा एशा गणेश विद्या’ (वह विद्या (लिपि) है जिसे गणेश जानते हैं) महाभारत के लेखन के लिए व्यासजी, गणेश जी का स्मरण करते हुए लिखते हैं- ‘लेखको भारतस्यास्य भव गणनायक’। हे गणनायक! आप भारत ग्रंथ के लेखक हों।
गणनायक अर्थात् गणपति … जिन्होंने वैदिक ऋषियों के अनुनय पर वायु में विलीन हो रहे स्वरों और व्यंजनों को सर्वप्रथम आकृति प्रदान की और विश्व के प्रथम लेखक बने।
अत: उसी परंपरा का अनुशीलन करते हुए यह अकिंचन गजानन भी लेखकीय कर्म में अनुरत हुआ।
तुम्हारे प्रश्न का दूसरा गजब उत्तर और देता हूं कि मामू ने गजानन नामकरण क्यों किया? हमारे थोबड़े पर पोंगड़ा सी नासिका तथा सूप सरीखे कर्ण भी गजमुखी होने का आभास कराते थे, सो ‘गज-आनन’ रखा।
हम(प्रतिच्छाया)- मगर, व्यंग्यकार ही क्यों हुए, कथाकार भी तो हो सकते थे?
हम- अय…मेरे हमसाए! अब, इसका उत्तर भी सुन। पंडितजी ने जब जन्मकुंडली हेतु मत्था मारा तो नाम निकला- प्रेमचंद। हमें लगता है कि पिताजी उस नाम पर बिचक गए थे। कदाचित उन्होंने प्रेमचंदजी की फटे जूते वाली तस्वीर देख ली होगी सो घबरा कर, कन्या राशिषन्तर्गत वैकल्पिक नाम रखा-प्रभाशंकर। इस प्रकार हम कहानीकार होते होते रह गए।
हम(प्रतिच्छाया)- वाह गुरू! प्रेमचंद नाम होने से ही हर कोई कथाकार हो जाता है और प्रभाशंकर होने से व्यंग्यकार? बात हजम नहीं हुई।
हम- तुमने गुरू ही बोल दिया है तो तर्क-ए-हाजमा भी हम ही देते हैं। ध्यान देकर सुनो। हम हैं, प्रभाशंकर। संधि विच्छेद हुआ प्रभा+शंकर। भगवान शंकर के पास तीन नेत्र हैं बोलो…हैं कि नहीं? और जब जगत में भय, विद्रुपताएं, अनाचार आदि बढ जाते हैं तो उनका तीसरा नेत्र खुल जाता है। अत: हम भी शंकर की वही ‘प्रभा’ हैं। सांसारिक दो नेत्रों से विसंगतियों, विषमताओं, अत्याचारों और टुच्चेपन को निरखते हैं तथा अपनी ‘प्रभा’ रूपी तीसरी आंख यानी कलम से उन पर प्रहार करते हैं। बोलो सांचे दरबार की जय…। तुम्हारे ज्ञानवर्धन के लिए एक बात और बता दें कि डॉ. हरिश्चंद्र वर्मा के अनुसार – व्यंग्य व्यवहार में महादेव की भांति रुद्र है और परिणाम में शिव। जरा सोचो बरखुरदरी कि हरिश्चंद्रजी तो असत्य लिखने से रहे।
एक पते की बात और कि पिता ने प्रभाशंकर नाम ही रखा गर, हरिशंकर रखा होता तो हम परसाई भी हो जाते और अगर गजानन ही हुआ रहता तो कविश्रेष्ठ ‘मुक्तिबोध’ हो रहते फिर आते हमारे अच्छे दिन और पुरोधाओं के बिगड़ जाते..हा…हा…।
हम(प्रतिच्छाया)- तुम कुतर्क कर रहे हो प्यारे!और बेशर्मी से दांत भी फाड़ रहे हो पर हमारे पास तुम्हारे इस कुतर्क को मानने के अलावा कोई चारा भी तो नहीं। खैर, यह बताओ कि व्यंग्य लेखन में तुमने कोई बड़ा तीर मारा या अभी तक सिर्फ भांजी ही मार रहे हो?
हम- चारा तो अब बचा भी नहीं है क्योंकि उसे तो बरसों पूर्व बिहार का एक पूर्व मुख्यमंत्री खा गया था और अब ‘बे – चारा’ हुए कारावास भुगत रहा है। सो तुम भी चारे के चक्कर ना पड़ो तो ही अच्छा है। चुनांचे, अपने सवाल का जवाब सुनो- भांजी मारना सबसे आसान काम है। आजकल, अधिकांश व्यंग्य लेखक यही कर रहे हैं और हम भी। देखो डियर, हम इस मुगालते में कतई नहीं हैं कि परसाई, शरद, त्यागी या शुक्ल बन जाएंगे। अरे, हम तो ज्ञान और प्रेम भी नहीं बन सके। अलबत्ता, दुर्वासा अवश्य बन सकते थे लेकिन हमारे पास श्राप-पॉवर नहीं था सो कलमकार होकर अपना क्रोध कागजों पर उतारने लगे। कुछ संपादक दया के सागर होकर छाप देते हैं सो अपनी दुकान चल निकली है।
हम(प्रतिच्छाया)- यूं ही यत्र-तत्र छपते रहे या कोई किताब-शिताब भी लिखी?
हम- अब तुमने हमारी दुखती रग पर दोहत्थड़ मार दिया है, यार! कहने को तीन पुस्तकें हैं किन्तु कोई पढता नहीं उन्हें। इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने सूपड़ा साफ कर दिया है। किताबें जो हैं, मरी मरी सी जी रही हैं सोचती होंगी कि यह जीना भी कोई जीना है लल्लू?
हम(प्रतिच्छाया)- जैसी भी हैं, उनके नाम तो बता दीजिए?
हम- ए..लो..तुमसे भी कोई बात छिपी है, ब्रदर! यूं भी हिन्दी लेखक के पास छिपाने को अपना कुछ होता नहीं है। कुछ अरसा पहले लेखकों की चाहने वालियां हुआ करती थीं। उनके खतो-खतूत की खुश्बू में लेखक महीनों डूबता-उतराता रहता था पर अब तो वह तरावट भी नहीं। अब, मामला खुली किताब सा है। फिर भी तुमने नाम पूछे हैं तो बताए देते हैं- ‘नाश्ता मंत्री का गरीब के घर’(1997), ‘काग के भाग बड़े’(2009), ‘बेहतरीन व्यंग्य’(2019)।
हम(प्रतिच्छाया)- मान गए गुरू, तीसरे संकलन का टाइटल ही बेहतरीन व्यंग्य है। इसमें सब बेहतर ही बेहतर होगा?
हम- मां बदौलत, सिर्फ किताब का टाइटल ही बेहतर है, वह भी प्रकाशक की बदौलत बाकी सब खैर सल्ला…।
हम(प्रतिच्छाया)- तुम्हें व्यंग्य में तलवार भांजते हुए तीन दशक से ऊपर हो गए और महज तीन किताबें। तीसरी में भी अधिसंख्य पूर्व के दो संग्रहों से छांटे हुए हैं। बहुत बेइंसाफी है, यह। लोग तो एक साल में ही 25-25 निकाले दे रहे हैं। अब, तुम चुक गए हो उस्ताद!
हम- तुमने उस्ताद कहा है तो यह भी सुन लो कि उस्ताद चुक कर भी नहीं चुकता। वह इंटरव्यू देता है जैसे हम तुम्हें दे रहे हैं। उस्ताद पुरस्कार हथियाता है। उस्ताद मठ बनाता है।
हम(प्रतिच्छाया)- वाह! भाईजान! इंशाअल्ला, तुमने भी पुरस्कार हड़पे और मठ बनाए होंगे….बोलो हां।
हम- नो कमेंट।
हम(प्रतिच्छाया)- चलो, कोई चेले-वेले भी बनाए या कि यूं ही एकला चलो रे का राग अलापते रहे हो?
हम- दो चार जने हैं जो हमें एकांत में गुरू का दर्जा देते हैं किन्तु खुलकर सामने आने से कतराते हैं। अपनी रचनाओं में सुधार करवा ले जाते हैं लेकिन संकलनों में उस बात का उल्लेख नहीं करते। कुछ चेलों ने अपनी किताबों के लिए भूमिका और प्राक्कथन भी लिखवाए। हमने बड़ी मेहनत से उन्हें लिखा मगर वे भूमिकाएं उनकी किताबों में किसी और के नाम से छपीं। पूछा तो मासूमियत से बोले, यह प्रकाशक की बदमाशी है। उस मुए ने आपका नाम हटा कर दूसरे का डाल दिया। हमने भी नेकी कर और कुएं डाल वाली उक्ति का स्मरण करते हुए खुद को दिलासा दे लिया। दरअसल, चेले भी कुछ ही रोज में शक्कर हो जाते हैं।
हम(प्रतिच्छाया)- निराश न होओ गुरूवर क्योंकि तुमने गुरूदेव बनने का यत्न किया। गुरूघंटाल बन जाते तो ऐसा न होता। खैर, तुम्हारी एक रचना- ‘आह! दराज, वाह! दराज’ माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के पाठ्यक्रम में सम्मिलित हुई और सीनियर सैकेंडरी के लाखों विद्यार्थियों तक ले गयी। तुमने गुरुदेव की भांति छात्रों को पाठ पढाया है, गुरु!
हम- हां, भाई! उस तुक्के को तीर बना देख अपन भी चकित हुए थे। दरअसल, कादम्बिनी में 2002 में प्रकाशित वह रचना पाठ्यक्रम समिति के एक सदस्य को इतनी भायी कि उसे उन्होंने कोर्स में घुसवा दिया। बाद में बोर्ड ने सहमति मांगी तो मैंने पूछा कि इसमें ऐसा कौन सुर्खाब का पर लगा है कि आपने इसे कोर्स में फिट कर दिया। तो उत्तर मिला कि यह भाषा विज्ञान पर अच्छा व्यंग्य है। सन् 2006 में एक मास्साब ने दूरभाष पर सूचित किया था कि म्यां! तुमने शिक्षा विभाग में भी अपनी घुसपैठ कर ली है। लाहौलविला कुव्वत!
हम(प्रतिच्छाया)- तुमने संस्मरणों पर आधारित एक किताब ‘यादों के दरीचे’ भी लिख मारी थी लेकिन बैंकवाला उपन्यास ‘कागज से कोर’ अभी तक कोरा क्यों है?
हम- दरअसल, बढ़ती कलम नामक एक अखबार में साप्ताहिक स्तंभ लेखन के तहत संस्मरणों की एक लेखमाला अठारह महीनों तक लिखी थी। फिर, किताबगंज वाले डॉ. प्रमोद सागर मेहरबां हो गए तो ‘यादों के दरीचे’ डायरी के रूप में आ गयी। बैंकवाला उपन्यास ‘कागज से कोर’ सरकारी प्रोजेक्ट की भांति रेंग रहा है। त्रिवर्षी योजना थी जो कालांतर से पंचवर्षीय हुई। बीच बीच में अनेक स्टे आते रहे सो वर्क ऑर्डर पूरा न हो सका। अब, उम्मीद से हूं कि सप्तवर्षीय प्लानिंग के अंतर्गत काम पूरा हो जाएगा। आगे अल्लाह मालिक…।
हम(प्रतिच्छाया)- अब, एक अंतिम प्रश्न। आप व्यंग्य मूल्यों के लिए लिखते हैं कि मूल्यांकन के लिए?
हम- निश्चित तौर पर दोनों के लिए। जो मूल्य देता है, उसके लिए तो तुरंत। यूं भी आजकल पत्रम्-पुष्पम देनेवाली पत्र-पत्रिकाएं बेहद कम बची हैं।
हम(प्रतिच्छाया)- अरे…नहीं… हम जीवन-मूल्यों की बात कर रहे हैं।
हम- ओहो…जीवन मूल्य। जीवन बड़ा मूल्यवान है, भिया! वह बचेगा तो ही हम लिखेंगे ना…।
हम(प्रतिच्छाया)- इतने नादान और कमसिन ना बनो यार! तुम खेले खिलाड़ी हो। मैं नैतिक मूल्यों से संबंधित सवाल कर रहा हूं।
हम- कौन से मूल्य? कुछ सुनाई नहीं दे रहा। ऊंचा सुनने लगा हूं ना…।
हम(प्रतिच्छाया)- तो…हम तुम्हारे सिर पर खड़े होकर बोल देते हैं।
हम- लो..अब, तुम सिर पर भी चढने लगे।
हम(प्रतिच्छाया)- चलो, कान पास लाओ…उसमें बोल देते हैं।
हम- नहीं, तुम्हारा भरोसा नहीं, कान काट दोगे…फिर हम जमाने को मुंह कैसे दिखाएंगे।
हम(प्रतिच्छाया)- कमाल है, हम पर भी यकीन नहीं?
हम- विश्वास तो बाप का भी नहीं किया जाता आजकल और माई-बाप यानी सरकार से तो कतई उठ गया है, लोगों का।
हम(प्रतिच्छाया)- यही तो हम भी पूछ रहे हैं, नैतिक मूल्य इस कदर गिर गए हैं कि बाप और माई-बाप से भी विश्वास उठ गया।
हम- अच्छा तो तुम उन नैतिक मूल्यों की बात कर रहे हो जो सियासत, समाज और साहित्य से तेल लेने चले गए थे और अब तक लापता हैं। तुम्हारे मुताबिक हमें उनकी पुनर्स्थापना के लिए कुछ करना चाहिए। क्यों, पगलैट समझ रखा है, हमें? जब, सरकार ही विस्थापितों की पुनर्स्थापना के लिए कुछ नहीं करती तो हम व्यंग्यकारों ने ठेका लिया हुआ है कि लापता और उखड़े हुए मूल्यों को प्रस्थापित करने के लिए दुबले हुए जाएं। हमरा तो क्लियर-कट एक ही फंडा है, ढिंढोरा खूब पीटो और करो कुछ मत। यथा राजा तथा प्रजा। आमीन।
इतना सुनते ही हमारी प्रेतछाया विलीन होकर अपने ठौर पर जा टिकी।
आयोजन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय, संपादक ई- अभिव्यक्ति (हिन्दी)
संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002 मोबाइल 9977318765