श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है  “कुमायूं  – 14 – उत्तराखंड के व्यंजन ”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #76 – 14 – उत्तराखंड के व्यंजन ☆ 

भारत की विविधता में भोजन की विविधताओं का अपना अलग योगदान है । पहाड़ों पर कृषि कार्य मुश्किल है और चोटियों को काट-काटकर सीढ़ीनूमा खेतों पर किसानी करना मेहनत भरा काम है । इन छोटे छोटे खेतों में पहाड़ी पुरुष और महिलाएं गेहूँ, धान,मक्का, तरह-तरह की दालें, आलू आदि की पैदावार करते हैं और इन्ही उपजों से तैयार होता है कुमायूं का  सीधा सरल व जायकेदार शाकाहारी भोजन । पहाड़ों पर मांसाहारी भोजन का भी खूब चलन है  । पहले जब शिकार की अनुमति थी तब पहाड़ के निवासी जंगली मुर्गी, तीतर, बतखों के अलावा पहाड़ी बकरी , चीतल आदि का शिकार करते और अपनी जिव्हा को तृप्त करते थे । चोरी छिपे शिकार तो अंग्रेजों के जमाने में भी होता था और अगर अभी भी होता है तो पता नहीं पर माँसाहार के शौकीनों के लिए बिनसर  अपने लजीज पहाड़ी मुर्ग के लिए प्रसिद्ध है और होटलों में पहले से आर्डर देकर इसके लजीज व्यंजनों का स्वाद लिया जा सकता है । हम तीन दिन बिनसर में रुके और इन तीन दिनों में हमने कुमांउनी थाली में निम्न व्यंजनों का भरपूर स्वाद लिया ।  

भांग और तिल की चटनी काफी खट्टी बनाई जाती है । भांग की चटनी हो या तिल की चटनी, इसके लिए दानों को पहले गर्म तवे या कड़ाही में भूनकर और फिर इसमें इसमें जीरा, धनिया, नमक और मिर्च स्वादानुसार डालकर पीसा जाता है । नींबू का रस डालकर इसे आलू के गुटके व  रोटी आदि के खाने का मजा अलग ही है । स्वाद आलौकिक इस चटनी में घबराइये नहीं , नशा  बिलकुल भी नहीं होता है ।

‘आलू के गुटके’ विशुद्ध रूप से कुमाऊंनी स्नैक्स हैं । उबले हुए आलू के बड़े बड़े टुकड़ों को , पानी का इस्तेमाल किये बिना  सब्जी के रूप में पकाया जाता है। लाल भुनी हुई मिर्च, धनिया, जीरा आदि मसाले से युक्त इस सब्जी में तडका भी लगाया जाता है और इसे मडुए की रोटी के साथ खाने का मजा कुछ और ही है ।

कुमाऊं का रायता देश के अन्य हिस्सों के रायते से काफी अलग होता है । इसमें बड़ी मात्रा में ककड़ी (खीरा), सरसों के दाने, हरी मिर्च, हल्दी पाउडर और धनिए का इस्तेमाल होता है।  यह रायता बनाने के लिए छाछ  की क्रीम का उपयोग होता और इसे निकालने के लिए  दही को हल्का मथकर एक कपड़े के थैले में भरकर किसी ऊंची जगह पर टांग दिया जाता है ।  कपड़े में से सारा पानी धीरे-धीरे बाहर निकल जाता है, जबकि छाछ की क्रीम थैले में ही रह जाती है ।  इस क्रीम का इस्तेमाल करने से  कुमाऊंगी रायता काफी गाढ़ा होता है।

कुमाऊं की शान है मडुए के आटे से  बनी मडुए की रोटी । मडुआ, रागी जैसा यह एक स्थानीय अनाज है और इसमें बहुत ज्यादा फाइबर होता है,  स्वादिष्ट होने के साथ ही यह स्वास्थ्यवर्धक भी  है । भूरे  रंग की मडुए की रोटी को  घी, दूध या भांग व तिल की चटनी के साथ परोसा जाता है और आलू के गुटके इसके स्वाद को द्विगुणित कर देते हैं।

सिसौंण के साग में बहुत ज्यादा पौष्टिकता होती है ।  सिसौंण एक किस्म की भाजी है जिसे  आम बोलचाल की  भाषा में ‘बिच्छू घास’ के नाम से पुकारा जाता है क्योंकि इसके पत्तों या डंडी को सीधे छूने पर यह दर्द होने लगता और शरीर के उस भाग में  सूजन आ जाती है और बहुत ज्यादा जलन होती है । सिसौंण के हरे पत्तों को सावधानी पूर्वक काटकर जो स्वादिष्ट  सब्जी बनाई जाती है उसमे  और आश्चर्य की बात यह है कि इसे खाने में कोई नुकसान नहीं होता ।

मास के चैंस कुमाऊं क्षेत्र के खायी जाने वाली प्रमुख दाल है।  मास यानी काली उड़द को दड़दड़ा पीस कर बनाई जाने वाली इस दाल में प्रोटीन काफी मात्रा में होता है और इसलिए इसे हजम करना कुछ कठिन होता है और इसे खाना  कब्जियत का कारण भी हो सकता है , ऐसा हम लोगों ने महसूस किया । जीरा, काली मिर्च, अदरक, लाल मिर्च, हींग आदि के साथ यह दाल न सिर्फ स्वाद के मामले में अदभुत होती है बल्कि स्वास्थ्य के लिजाज से भी काफी अच्छी मानी जाती है।.

काप या कापा एक प्रकार की हरी करी है । सरसों, पालक आदि के हरे पत्तों को काटकर उबाल लिया जाता और फिर  पीस कर ‘काप’ बनाया जाता है जोकि कुमाऊंनी खाने का एक अहम अंग है। इसे रोटी और चावल के साथ खाया जाता है ।

गहत की दाल कुमाऊं क्षेत्र में बहुत प्रसिद्द है और  चावल और रोटी के साथ भी इसके लजीज स्वाद का लुत्फ हम लोगों ने लिया । होटल के संचालक ने हमें बताया कि यह दाल खाने से पेट की पथरी (स्टोन) कट जाती है । इसके अलावा इसकी तासीर गर्म होती है, इसलिए सर्दियों में इस दाल का सेवन ज्यादा होता है । धनिए के पत्तों, घी और टमाटर के साथपरोसी गई  इस दाल का स्वाद भुलाए नहीं भूलता है ।

बिनसर में हमने झिंगोरा या झुंअर की खीर खाई । झिंगोरा या झुंअर एक अनाज है और यह उत्तराखंड के पहाड़ों में उगता है। दूध, चीनी और ड्राइ-फ्रूट्स के साथ बनाई गई झिंगोरा की खीर एक आलौकिक स्वाद देती है.

अल्मोड़ा में हमने खोया के अलावा सुगर बॉल का भी इस्तेमाल से तैयार  बाल मिठाई का लुत्फ़ लिया  और साथ ही दही जलेबी भी खाई । दही जलेबी खाने हम अल्मोड़ा के भीड़ भरे बाज़ार में से होकर गुजरे जोकि नंदा देवी मंदिर के नज़दीक ही है । जब हम इस रास्ते से गुजरे तो पत्थरों व लकड़ी से बनी एक पुरानी दोमंजिला  इमारत ने हमें आकर्षित किया जिसकी छत को भी पत्थरों के बड़े बड़े स्लैब से बनाया गया था ।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈
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