श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है  “कुमायूं  – 16 – जिम कार्बेट व सरला देवी ”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #78 – 16 – जिम कार्बेट व सरला देवी ☆ 

लन्दन के शैफर्डबुश में  5 अप्रैल 1901 को जन्मी  कैथरीन को जब भारत के स्वाधीनता आन्दोलन और महात्मा गांधी के संघर्ष के विषय में पता चला तो वे अंततः  1932 में भारत आकर गांधीजी की शिष्या बनी तथा आठ साल तक सेवाग्राम में गांधी जी के सानिध्य में रही और गांधीजी के ‘नई तालीम’ के काम में अपना सहयोग दिया । गांधीजी ने मीरा बहन के बाद अपनी इस दूसरी  विदेशी शिष्या को नया  नाम दिया  सरला देवी । बाद में  गांधीजी के निर्देश पर सरला देवी ने 1940 में कुमांऊ अंचल पहुंचकर स्वाधीनता संग्राम पर  काफी काम किया और इस दौरान वे दो बार जेल भी गई। उन्होंने  कौसानी में लक्ष्मी आश्रम की स्थापना ठीक उसी स्थान के निकट की जहां बैठकर गांधी जी ने गीता पर अपनी पुस्तक ‘अनासक्ति योग’ लिखी थी।  अपने आश्रम के माध्यम से उन्होंने बालिका शिक्षा और महिला सशक्तिकरण का कार्य किया । पर्वतीय अंचल के गांधी विचारों से जुड़े कार्यकर्ताओं को संगठित कर उन्होंने उत्तराखंड सर्वोदय मंडल का गठन किया, वनाधिकार व पर्यावरण केन्द्रित ‘चिपको आन्दोलन’ के प्रमुख कार्यकर्ता सुन्दरलाल बहुगुणा के साथ वे जुडी रही और शराब विरोधी आन्दोलन को सशक्त करती रही । हिन्दी में उन्होंने भारत आकर प्रवीणता हासिल की और दस पुस्तके लिखी । उनके जीवन का सबसे दुखदाई क्षण तब आया जब 1967  से 1977 की अवधि में विदेशी नागरिक होने के कारण उन्हें इस सीमान्त अंचल को छोड़ना पडा । वे पुन: यहाँ वापस आई और  1982 बेरीनाग के निकट हिमदर्शन कुटीर  में उन्होंने अंतिम सांस ली । यह स्थल यद्दपि पाताल भुवनेश्वर के नज़दीक था तथापि दिन ढलने व समयाभाव के कारण में वहाँ न जा सका किन्तु उनके कौसानी आश्रम अवश्य गया और एक बार उनकी शिष्या राधा बहन से भी भोपाल में मिला ।

अपने सहयोगियों के बीच बहनजी के नाम से मशहूर  सरला देवी जब  1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में गिरफ्तार हुई और बाद को रिहा होने के बाद वे गांधी जी से मिलने पूना गई, उसी वक्त के दो संस्मरण उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘ व्यावहारिक वेदांत’ में लिखे हैं ।

‘बापू अब सेवाग्राम वापस जा रहे थे, तो तय हुआ कि मैं पहले अहमदाबाद में एक विकासगृह देखने जाऊं और फिर उनके साथ बम्बई से वर्धा ।

मैं जब विक्टोरिया टर्मिनल पहुँची तो कलकत्ता मेल पहले से प्लेटफार्म पर खडी थी । मैंने बतलाया कि मुझे बापू के साथ जाना है । लोगों ने मुझे वैसे ही प्लेटफार्म में चले जाने दिया । कुछ लोग एक छोटे से आरक्षित डिब्बे में सामान संभाल रहे थे। साधारण डिब्बे से इस डिब्बे में ज्यादा लोग थे, सफ़र में शांति नहीं मिली। हर स्टेशन पर जबरदस्त भीड़ बापू के दर्शन के लिए इक्कठी मिलती थी। हरिजन कोष के लिए बापू अपना हाथ फैलाते थे। लोग जो कुछ दे सकते थे, देते थे , एक पाई से लेकर बड़ी-बड़ी रकमें और कीमती जेवर तक। स्टेशन से गाडी छूटने पर एक-एक पाई की गिनती की जाते थी और हिसाब लिखा जाता था।

सेवाग्राम में जब मैं बापू से विदा लेने गई तो मैंने उनके सामने बा और बापू की एक फोटो रखी । इरादा उस पर उनके हस्ताक्षर लेने का था । बापू बनिया तो थे ही और वे हर एक चीज का नैतिक ही नहीं भौतिक दाम भी जानते थे। वे अपने दस्तखत की कीमत भी जानते थे और इसलिए अपना हस्ताक्षर देने के लिए हरिजन कोष के लिए कम से कम पांच रुपये मांगते थे । पांच रुपये से कम तो वे स्वीकार ही नहीं करते थे । उन्होंने आखों में शरारत भरकर मुझे देखा । मैंने कहा,” क्यों ? क्या आप मुझे भी लूटेंगे ?”

उन्होंने गंभीरता से उत्तर दिया, “ नहीं मैं तुझे नहीं लूट सकता । तेरे पैसे मेरे हैं, इसलिए मैं तुझसे पैसे नहीं ले सकता ।”

मैंने कहा “बहुत अच्छी बात है । तो आप इस पर दस्तखत करेंगे न ?”

“क्या करूँ , मैं बगैर पैसों के दस्तखत भी नहीं कर सकता ।” बापू ने कहा और फिर उन्होंने सोच-समझकर पूंछा “ तुम मेरे दस्तखत के लिए इतनी उत्सुक क्यों हो ?”

मैंने कहा “ यदि मेरी लडकिया लापरवाही करेंगी, पढ़ाई या काम की ओर ठीक से ध्यान नहीं देंगी तो मैं उन्हें आपकी फोटो दिखाकर कहूंगी कि यदि तुम बापू की तरह महान बनना चाहती हो तो तुम्हें आपकी तरह ठीक ढंग से काम करना चाहिए।”

बापू ने जबाब दिया “ मैंने लिखना-पढ़ना सीखा, परीक्षा पास करके बैरिस्टर बना, इन सबमे कोई विशेषता नहीं है। इससे तुम्हारी लडकियाँ मुझसे कुछ नहीं सीख पाएंगी ।  यदि ये मुझसे कुछ सीख सकती हैं तो यह सीख सकती हैं कि जब मैं छोटा था तब मैंने खूब गलतियां की लेकिन जब मैंने अपनी गलती समझी तो मैंने पूरे दिल से उन्हें स्वीकार किया । हम सब लोग गलतियां करते हैं, लेकिन जब हम उनको स्वीकार करते हैं तो वे धुल जाती हैं , और हम फिर दुबारा  वही गलती नहीं करते ।”

उन्होंने मुझे याद दिलाई कि बचपन में वे खराब संगत में पड़ गए थे, उन्होंने सिगरेट पीना और गोश्त खाना शुरू कर दिया था और फिर अपना कर्ज चुकाने के लिए रूपए और सोने की चोरी की थी । जब उन्होंने अपनी  गलती समझी तब उसे पूरी तरह खोल कर अपने पिताजी को लिखा । पिताजी पर इसका अच्छा असर हुआ और उन्होंने मोहन को माफ़ कर दिया । ‘

भारत प्रेमी इन दोनों महान हस्तियों, जिम कार्बेट व सरला देवी  को मेरा नमन।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈
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