श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। 

हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ रहे थे। हम संजय दृष्टि  श्रृंखला को कुछ समय के लिए विराम दे रहे हैं ।

आज से  प्रस्तुत है  रंगमंच स्तम्भ के अंतर्गत महाराष्ट्र राज्य नाटक प्रमाणन बोर्ड द्वारा मंचन के लिए प्रमाणपत्र प्राप्त धारावाहिक स्वरुप में श्री संजय भारद्वाज जी का सुप्रसिद्ध नाटक “एक भिखारिन की मौत”। )

? रंगमंच ☆ दो अंकी नाटक – एक भिखारिन की मौत – 1 ☆  संजय भारद्वाज ?

 पात्र परिचय

‘एक भिखारिन की मौत’ के कुल 8 स्तंभ हैं। रमेश और अनुराधा पत्रकार हैं। छह अन्य पात्र अलग-अलग क्षेत्र के प्रतिनिधि हैं। रमेश और अनुराधा द्वारा लिए जाने वाले साक्षात्कारों के माध्यम से और इन पात्रों की भूमिका द्वारा शनै:-शनै: कथानक का विकास होता है। कथानक की शीर्ष नायिका ‘भिखारिन’ जिसके इर्द-गिर्द कथा चलती है, मंच पर कहीं नहीं है। कथानक के विकास में सहयोगी बने पात्रों का चरित्र चित्रण करते समय नाटककार की कल्पना में चरित्र कैसा था, इसका वर्णन करना ही इस परिचय का उद्दिष्ट है। इससे नाटककार की कल्पना मंच पर उतारने में निर्देशकों को आसानी होगी। नाटककार के निर्देशक होने का लाभ भी अन्य निर्देशकों को मिल सकेगा।

नज़रसाहब – नज़रसाहब चित्रकार है। आयु लगभग 65 वर्ष। अपने आप में खोया चरित्र। प्रसिद्धि की ऊँँचाइयों पर होते हुए भी प्रसिद्धि की प्यास मरी नहीं है। स्वाभाविक रचनात्मक अहंकार का शिकार। अपने मोह  में दूसरे को महत्व न देने वाला, पत्रकारों को बीच-बीच में टोकते रहने के लिए कहनेवाला पर टोकने पर मना करने वाला, एक खास तरह की सनक ओढ़ा हुआ व्यक्तित्व।

मंच  पर कुर्ता-पायजामा पहने, मेहंदी रंगे लाल से बाल और चेहरे पर उच्चवर्गीय लाली पात्र को बेहतर स्वरूप दे सकती है। उसकी भाषा में उर्दू की बहुतायत और बोलने का ख़ास उर्दू लहज़ा है।

एसीपी भोसले – आयु लगभग 45 वर्ष। पारंपरिक भारतीय पुलिस का पारंपरिक असिस्टेंट कमिश्नर। खुर्राट, बेहद चालाक किस्म का चरित्र। एक ओर मीडिया से गहरी मित्रता का स्वांग करता है तो दूसरी ओर पत्रकारों से बातचीत में बेहद सतर्क भी रहता है। यह उसकी प्रोफेशनल एफिशिएंसी भी है। पुलिसिया चरित्र में वरिष्ठ स्तर का ओढ़ा हुआ काईंयापन उसके चरित्र में है।

वह सरकारी वर्दी में है। उसकी भाषा में उच्चारण में स्थानीय भाषा का पुट रहेगा। नाटककार ने स्थानीय प्रभाव की दृष्टि से मराठी का प्रयोग किया है। अन्य प्रांतों में प्रदेश धर्म के अनुरूप भाषा का परिवर्तन चरित्र को दर्शकों से ज्यादा आसानी से जोड़ सकेगा।

मधु वर्मा – हिंदी फिल्मों में जगह बनाने के लिए संघर्षरत अभिनेत्री। सफलता के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार है। आयु लगभग 20 वर्ष। निर्माता की इच्छा और सफलता की चाह के बीच व्यावसायिक संतुलन की समझ रखने वाली। स्वाभाविक रूप से आलोचकों से चिढ़ने वाली।

मधु को आधुनिकतम वस्त्रों में दिखाना अपेक्षित है। उसकी भाषा पर अंग्रेजी का बहुत अधिक प्रभाव है। हिंदी के जरिए पेट भरकर अंग्रेजी बोलने वाले कलाकारों का प्रतीक है मधु वर्मा। उच्चारण में हिंदी का कॉन्वेंट उच्चारण उसके चरित्र को जीवंत करने में सहायक सिद्ध होगा।

प्रोफेसर पंत – विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र का विभागाध्यक्ष। आयु लगभग 55 वर्ष। केवल अपनी बात कहने का आदी होने के कारण दुराग्रही चरित्र। ज्ञानी पर अभिमानी। उसके विचारों से असहमति उसे मान्य नहीं होती।

कोट-पैंट, मोटे फ्रेम का चश्मा चरित्र के अनुकूल होगा। प्रोफेसर की भाषा शुद्ध है। कहने का, समझाने का अपना तरीका है। अपनी बात को अपने आग्रहों और अपनी तार्किकता से रखने वाला चरित्र।

रमणिकलाल – एक छुटभैया नेता। आयु लगभग 50 वर्ष। नेताई निर्लज्जता और टुच्चेपन का धनी। प्रचार का ज़बरदस्त भूखा, चरित्रहीन व्यक्तित्व। अख़बार में अपने प्रेस नोट भेजकर उन्हें प्रकाशित देखने की गहरी ललक रखनेवाला, प्रचार के लिए उल-जलूल बेसिर-पैर का कोई भी हथकंडा अपनाने के लिए तैयार।

उसे कुर्ता, पायजामा, टोपी में दिखाया जा सकता है। उसकी भाषा पर देहाती उच्चारण का प्रभाव है। अपेक्षित है कि वह ‘श’ को ‘स’ बोले जिससे उसके चरित्र को उठाव  मिलेगा।

रूबी – पेशे से कॉलगर्ल। आयु लगभग 25 वर्ष। सकारात्मकता का नकाब ओढ़े हुए सारे नकारात्मक चरित्रों के बीच एकमात्र सच्चा सकारात्मक चरित्र है वह। उसके भीतर और बाहर कोई अंतर नहीं है। अपने भोगे हुए यथार्थ के दम पर खड़ी एक ईमानदार पात्र। समाज का काला मुँँह देख चुकी है, अतः समाज के प्रति उसके मन में आक्रोश फूट-फूटकर भरा है। बेबाक बात कहनेवाली। गहरी संवेदनशील।

रूबी की वेशभूषा में स्कर्ट ब्लाउज या स्कर्ट टी-शर्ट अपेक्षित है। उच्चारण में कोई खास पुट नहीं है किंतु भाषा कथित अश्लील है। जिन शब्दों को सभ्य समाज घुमा-फिराकर कहता है, उन्हें वह सीधे-सपाट कहती है। आक्रोश के क्षणों में उसकी भाषा में गालियों का समावेश है।

अनुराधा – रमेश के साथ नाटक की सूत्रधार। समाचारपत्र की उपासंपादिका। आयु लगभग 35 वर्ष। पत्रकारिता की आवश्यकता और अपेक्षा को पूरी करनेवाली। रमेश के साथ तालमेल रखते हुए वह इंटरव्यू सीरीज़ को सफल करने में जुटी है। चूँकि उसे सम्मोहन का ज्ञान है, वह इस नाटक के सारे सूत्र हाथ में रखते हुए मंच पर नायिका के रूप में उभरती है। सम्मोहन के दृश्यों में विविधता लाने उससे अपेक्षित है। उसके चरित्र में मंचन की दृष्टि से ढेर सारे रंग हैं।

अनुराधा की भाषा साफ़ और उसके पेशे के अनुकूल है। हर चरित्र का इंटरव्यू करते समय भिन्न वस्त्रभूषा का प्रयोग किया जा सकता है। सम्मोहन के दृश्यों को दृष्टिगत रखते हुए पोशाकों का चयन करें। संभव हो तो कुछ दृश्यों में सम्मोहन के लिए सायक्लोड्रामा का उपयोग करें।

रमेश – समाचारपत्र का संपादक। पूरे नाटक का प्रधान सूत्रधार। आयु लगभग 40 वर्ष। सुलझा हुआ पेशेवर चरित्र। अपने अख़बार को आगे ले जाने की इच्छा रखने वाला। इस इच्छा के चलते ‘बदनाम होंगे तो क्या नाम ना होगा’ का सूत्र अपनाने में उसे कोई हिचक नहीं है। पत्रकारिता के हथकंडों के साथ अपने विषय का ज्ञानी। संपादक के रूप में सामने वाले को पढ़ सकने में समर्थ।

रमेश की भाषा शुद्ध है। चूँकि अनुराधा के साथ लह भी पूरे समय मंच पर है, अत: विविधता की दृष्टि से पोशाकों में परिवर्तन अपेक्षित है। थोड़े बढ़े हुए बाल, दाढ़ी, जींस- कुर्ता, सफारी आदि का प्रयोग किया जा सकता है।

प्रथम अंक

प्रवेश एक

(रंगमंच पर विशेष नेपथ्य की आवश्यकता नहीं है। बाएं भाग में एक मेज, कुर्सी, कैलेंडर आदि लगाकर दैनिक ‘नवप्रभात’ का कार्यालय दिखाया जा सकता है। दाएं भाग में अन्य पात्रों के लिए आवश्यक नेपथ्य इस तरह से लगाया जाए कि पात्रानुसार थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ उसी मंचसज्जा का उपयोग किया जा सके।

रंगमंच पर समतोल बनाए रखने के लिए कुछ पात्रों को बाएं भाग में प्रस्तुत करना भी निर्देशक से अपेक्षित है। पर्दा उठने पर रमेश खबर पढ़ते हुए नजर आता है। वह रंगमंच के अगले हिस्से पर है। उसके लिए एक स्पॉटलाइट का प्रयोग किया जा सकता है।)

रमेश-  कल देर रात अर्द्धनग्न भिखारिन मेन पोस्ट के सामने वाले फुटपाथ पर मरी मिली। आश्चर्यजनक बात यह थी कि लाश के शरीर पर एक भी कपड़ा नहीं था। वह पूरी तौर से…, ऊँ हूँ, ख़बर में दम नजर नहीं आता। किसी और ढंग से लिखा जाए। फिर यह ख़बर फ्रंट पेज पर शॉर्ट न्यूज़ में क्यों? दिस केन बी सेंसेशनल हेडलाइन, न्यूड डेड बॉडी एंड डेड सेंसेटिविटी। …एक नंगी मुर्दा औरत और मुर्दा संवेदनशीलता!  वाह! साला सारे अखबारों की हेडलाइंस को पीछे छोड़ देगी यह ख़बर! हड़कंप मच जाएगा। लोग ‘नवप्रभात’ खरीदने के लिए टूट पड़ेंगे।मुखपृष्ठ पर एक बड़ी सारी तस्वीर होगी उस भिखारिन की। तस्वीर के नीचे शीर्षक होगा, ‘चर्चित भिखारिन की रहस्यमयी नंगी लाश! …चर्चित! ‘ (अनुराधा प्रवेश करती है।)

अनुराधा- हाँँ वह भिखारिन चर्चित तो थी ही। सभ्य समाज में कोई स्त्री योंं अर्द्धनग्न शरीर के ऊपरी हिस्से में बगैर कुछ पहने, कमर पर लिपटे जरा से वस्त्र से खुद को थोड़ा बहुत ढके, वह मुख्य शहर के मुख्य चौक पर भीख मांगने बैठी थी।

रमेश- एक बात समझ में नहीं आती। वह चौक में भीख मांगने बैठी ही क्यों थी?… केवल चर्चित होने के लिए..? पर उसे चर्चा की ज़रूरत ही क्या थी? चर्चा उसकी ज़रूरत तो हो ही नहीं सकती।

अनुराधा- पता नहीं। हो सकता है हाँ, हो सकता है ना। फिर भी ऐसा नहीं लगता रमेश कि सारा समाज कितना स्वार्थी और कितना पत्थर-सा हो गया है। निष्प्राण हैं हम सब। पिछले चार दिनों से यह औरत शहर भर में अपनी नग्नता की वजह से चर्चित रही और इस दौरान किसी ने उसके बदन पर एक टुकड़ा कपड़ा भी नहीं फेंका।

रमेश-  यू आर राइट। संवेदनशीलता का संकट एक कड़वा सच है। हज़ारों लोग गुज़रे होंगे मेनपोस्ट के उस फुटपाथ से जहाँँ वह भिखारिन बैठी थी। कितने ही लोगों ने उसे इस हालत में हाथ फैलाते देखा होगा लेकिन..!

अनुराधा- लेट इट बी। चाय पिओगे रमेश?

रमेश-  पूछने की क्या जरूरत है? पत्रकारों के सबसे ज्यादा रुचि दो ही बातों में होती है। एक, कोई सेन्सेशनल न्यूज़  और दूसरा चाय का प्याला।

अनुराधा- हाँ चाय या कॉफी का प्याला ना हो तो देश और समाज की घटनाओं पर घंटों बुद्धिजीवी चर्चाएँ कैसे होंगी?

रमेश- (चाय पीते हुए) अनुराधा, एक विचार आया है मन में। इस भिखारिन की मौत फिलहाल शहर का सबसे ‘हॉट इशू’ है। क्यों न हम इस पर एक इंटरव्यू सीरीज़ करें!

अनुराधा- कैसी इंटरव्यू सीरीज़?

रमेश- हम शहर के कुछ ऐसे चुनिंदा लोगों का इंटरव्यू करें जिन्होंने इस भिखारिन को वहाँँ उस हालत में भीख मांगते देखा है। अलग-अलग क्षेत्र के अलग-अलग व्यक्तित्व। देखें कि इनडिविजिल रिएक्शन, व्यक्तिगत मत क्या है और सामूहिक प्रतिक्रिया क्या है? हम लगभग एक सप्ताह तक इस सीरीज़ को चला सकते हैं। ‘नवप्रभात’ की ज़बरदस्त चर्चा होगी और अखबार अपने आप ज़्यादा बिकेगा।

अनुराधा- यू आर ए टैलेंटेड एडिटर। ‘नवप्रभात’ को एस्टेब्लिश करने का अच्छा मौका है। लेकिन रमेश कल प्रेस क्लब में पोद्दार मिला था। ‘माय सिटी’ शायद इस मामले पर पाठकों की प्रतिक्रिया इकट्ठा कर रहा है। हाँँ लेकिन एक बड़ा फ़र्क आया है। कल तक वह भिखारिन ज़िंदा थी जबकि आज उसकी मौत के बाद संदर्भ बदल गए हैं।

रमेश- वैसे मेरा विचार कुछ अलग था। हम लोगों का इंटरव्यू तो करें पर….!

अनुराधा- पर…?

रमेश- अनुराधा, मेरी समझ से हर व्यक्ति में एक पशु छिपा है। ख़ासतौर पर जिस विकृत मानसिकता में हमारा समाज जीता है, उसमें यह पशु ज्यादा प्रभावी और हिंसक है।

अनुराधा-  मैं समझी नहीं।

 रमेश- अनुराधा, यह भिखारिन युवा थी, फिर लगभग नग्न। मेरी स्पष्ट समझ है कि जिस किसी ने भी उसे देखा होगा, उसके भीतर का पशु थोड़ी देर के लिए ही क्यों न सही, अनियंत्रित ज़रूर हुआ होगा। सवाल यह है कि कोई भी व्यक्ति अपने भीतरी पशु के अनियंत्रित होने की बात पत्रकारों के सामने स्वीकार कैसे और क्यों करेगा?

अनुराधा- पर क्या हासिल होगा रमेश?

रमेश- ज़बरदस्त विवाद। इस भिखारिन के बहाने हम समाज के हर वर्ग का चेहरा देखेंगे।.. और मान लो कोई बड़ी हस्ती ‘नवप्रभात’ के खिलाफ गई तो भी लाभ हमें ही होगा। जितना विवाद होगा, उतनी ही चर्चा भी तो होगी। इस इंटरव्यू सीरीज़ से मैं सात महीने पुराने ‘नवप्रभात’ को सत्तर साल पुराने अखबारों के बराबर लाकर खड़ा कर देना चाहता हूँँ।… लेकिन समस्या वही है कि कोई भी व्यक्ति अपने अनियंत्रण का स्वीकार कैसे करेगा?

अनुराधा- (रमेश को सम्मोहित करती है।) यहाँँ देखो… मेरी आँखों में देखो…मेरी आँखों में देखो… मेरी आँखों में देखो… (थोड़े से प्रतिरोध के बाद रमेश सम्मोहित हो जाता है।)

क्रमशः …

नोट- ‘एक भिखारिन की मौत’ नाटक को महाराष्ट्र राज्य नाटक प्रमाणन बोर्ड द्वारा मंचन के लिए प्रमाणपत्र प्राप्त है। ‘एक भिखारिन की मौत’ नाटक के पूरे/आंशिक मंचन, प्रकाशन/प्रसारण,  किसी भी रूप में सम्पूर्ण/आंशिक भाग के उपयोग हेतु लेखक की लिखित पूर्वानुमति अनिवार्य है।

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
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