रक्षा बंधन विशेष
सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’
(आज प्रस्तुत है संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी द्वारा रचित एक ज्ञानवर्धक आलेख जिसके माध्यम से आप मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड के त्यौहार “कजलियाँ” से अवगत होंगे जो रक्षाबंधन के आसपास मनाया जाता है। इस ज्ञानवर्धक जानकारी के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं का विशेष आभार।)
मध्यभारत बुंदेलखंड का आंचलिक पर्व कजलियाँ
भारतवर्ष त्योहारों का देश है। सभी जगह अलग-अलग प्रकार से त्यौहार मनाया जाता है। भारत का हृदय स्थल कहने पर मध्य प्रदेश आता है और मध्य प्रदेश में सभी त्यौहार बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है चैत्र माह की रामनवमी से लेकर फागुन की होली तक अनेक त्यौहार हैं। वैसे ही बुंदेलखंड के मुख्य त्योहारों में से एक कजलियां हैं। कजलियां सदियों से चली आ रही है वर्षा ऋतु के आगमन और सावन की हरी-भरी वादियों के बीच इस त्यौहार का आना होता है।
जहां पर आगे पीछे रक्षाबंधन राष्ट्रीय पर्व 15 अगस्त भी साथ साथ होता है। सावन में ही भगवान शिव की आराधना भी की जाती है। इस प्रकार सावन का महीना भक्ति, शक्ति और उल्लास से भरा होता है और हो भी क्यों ना प्रकृति की सुंदरता मानव की सुंदरता से अधिक होती है। यह त्योहार विशेष रूप से खेती किसानी से भी जुड़ा हुआ है। सावन में कृष्ण पक्ष के बाद शुक्ल पक्ष की पंचमी को नाग पंचमी मनाया जाता है। उसके दूसरे दिन षष्ठी को गेहूं के दानों को मिट्टी के बर्तनों सकोरे या फिर बड़े किसी चौड़े मुंह वाले बर्तनों पर मिट्टी डालकर गेहूं के बीज बो दिए जाते हैं। और ढक कर रख दिया जाता है रोज शाम संध्या आरती के साथ गाना बजाना होता है। महिलाएं बड़े उत्साह के साथ इसे पूजन करती हैं। धीरे-धीरे कजलियां अपने आप बढ़ने लग जाती हैं जिसे समृद्धि का प्रतीक भी माना जाता है और रक्षाबंधन के दूसरे दिन टोली बना बना कर जिसमें बाजे गाजे के साथ सभी महिलाएं बालिकाएं सिर पर कजलियां लिए झूमती गाती नदियों की ओर जाती हैं नदी या तालाब में कजलियां को साफ धोकर मिट्टी बहा दी जाती है। और ऊपर से कजलियां तोड़ कर ले आती हैं। सभी बड़े बुजुर्गों को कजलियां भेंटकर आशीर्वाद लिया जाता है महिलाएं आपस में पक्की दोस्ती का वादा भी करती हैं जिसे आपस में एक दूसरे को हमेशा भोजली कहना पड़ता है।
” भोजली गंगा भोजली गंगा लहर तुरंगा
हमरो भोजली रानी के बाढे आठो अंगा
ह. ओ देवी गंगा ह. ओ देवी गंगा”
गांव में किसान आज भी एक दूसरे की कजलीयां देखने जाते हैं। और अपने अपने पैदावार खेतों का पता लगा लेते हैं। नदी से आने के बाद कजलीयां कान में लगाया जाता हैं और मीठा खिलाया जाता है।
मध्य प्रदेश में आज भी यह त्यौहार जीवित है। कलियों की एक पुरानी कथा है महोबा के सिंह राजपूतों आल्हा- ऊदल को कौन नहीं जानता इनके वीरता की बखान को आल्हा – ऊदल के दोहे के रूप में गाया जाता है। दिल्ली के राजा पृथ्वीराज ने महोबा के राजा की सुपुत्री राजकुमारी चंद्रावलि का अपहरण करना चाहा, और चढ़ाई कर दिया उस समय चंद्रावलि तालाब में कजलीयां सिराने गई थी। आल्हा उदल, मलखान और चेहरे भाइयों के कारण सभी सेना को खदेड़ दिया गया और तभी से कलियों का त्योहार विजय उत्सव के रुप में मनाया जाने लगा।
एक अन्य कथा है आल्हा – ऊदल दो भाई मां शारदा जो कि सतना के पास ऊंची पहाड़ी पर विराजी है, परम भक्त थे। कहते हैं, वह कब पूजा करते थे आज तक किसी ने नहीं देखा परंतु मंदिर का पट जब भी खुलता है। मां शारदा के चरणों पर कमल का पुष्प और पूजा का सामान मिलता है। कहते हैं दोनों भाइयों में बहुत गहरा प्यार था एक दिन माता राणी प्रसन्न हो गयी और साक्षात दर्शन देने आ गई। आल्हा उस समय पूजा कर रहा था और ऊदल कुछ सामान लेने गया था मां आल्हा से कहा बोलो तुम्हें क्या चाहिए। आल्हा ने बिना देर किए भाई के प्यार से बंधा कहा हम दोनों हमेशा जीवित रहे, परंतु विधि का विधान तो देखिए हम दोनों का मतलब उस समय उनकी धर्मपत्नी से माना गया क्योंकि धर्म है। भाई ऊदल की मोक्ष की कामना लिए आल्हा बहुत उदास हो गया परंतु मां ने वरदान दे चुकी थी। आज भी गांव में आल्हा देव की पूजा की जाती है। जब बारिश नहीं होती तो आल्हा- ऊदल पढा जाता है। और कहते हैं इसको गाने से बारिश का होना अनिवार्य है। आज भी शारदा मंदिर में पूजन होता है पट खुलता है। पूजा में कमल के पुष्प चढ़े हुए मिलते हैं। गांव वाले बताते हैं, आज भी आल्हा देव जीवित है। मध्यप्रदेश में कजलियाँ का त्योहार रक्षा बंधन के दूसरे दिन मनाया जाता है।
© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’
जबलपुर, मध्य प्रदेश