हिन्दी साहित्य- लघुकथा – कपूत / कुमाता ? – डॉ . प्रदीप शशांक
डॉ . प्रदीप शशांक
(e-abhivyakti में डॉ प्रदीप शशांक जी का स्वागत है।)
उत्कर्ष की अवांछनीय हरकतें दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही थीं । गलत दोस्तों की संगत में रहकर वह पूरी तरह बिगड़ चुका था । उत्कर्ष की हरकतों से वह बहुत परेशान रहती थी । वह उसे बहुत समझाने की कोशिश करती किन्तु उत्कर्ष के कानों में जूं तक न रेंगती ।
उत्कर्ष के पिता की मृत्यु के पश्चात उसने यह सोचकर अपने आप को संभाला था कि अब उसका 24 वर्षीय पुत्र ही उसके बुढ़ापे का सहारा बनेगा , किन्तु वह सहारा बनने की जगह उसके शेष जीवन में दुखों का पहाड़ खड़ा करता जा रहा था ।
जुआ ,सट्टा एवं शराब की बढ़ती लत के कारण आये दिन घर पर उधार वसूलने आने वालों से वह बेहद परेशान हो गई थी । आखिर उसने उत्कर्ष के व्यवहार से परेशान होकर अपने ह्रदय को कड़ा करते हुए एक कठोर निर्णय लिया ।
कुछ दिन बाद समाचार पत्रों में आम सूचना प्रकाशित हुई ——- मैं श्रीमती शोभना पति स्व. श्री मयंक, अपने पुत्र उत्कर्ष के आचरण, दुर्व्यवहार एवं अवगुणों से व्यथित होकर अपनी समस्त चल अचल संपत्ति से उसे बेदखल करती हूँ । अगर भविष्य में उसके द्वारा किसी भी व्यक्ति / संस्था से कोई भी सम्पत्ति सम्बन्धी, उधार सम्बन्धी या अन्य लेनदेन किया जाता है तो वह स्वयं उसका देनदार होगा —– ।
उसके चेहरे पर विषाद पूर्ण संतोष का भाव था तथा उसे विश्वास था कि समाज उसके पुत्र की करतूतों को जानकर उसे कुमाता नहीं समझेगा ।
© डॉ . प्रदीप शशांक
जबलपुर (म . प्र .)