हिन्दी साहित्य- लघुकथा – खुशियों की फुलझड़ी – श्री जय प्रकाश पाण्डेय
जय प्रकाश पाण्डेय
खुशियों की फुलझड़ी
जीवन है चलने का नाम ….. जो लोंग परेशानी भरी ज़िंदगी जीते है उनकी संवेदनाएं मरती नहीं है, उनकी संवेदना विपरीत परिस्थतियों से लड़ने की प्रेरणा देती है और वे अन्य के लिए भी प्रेरक बन जाते है, उनकी सहज सरल बातें भी ख़ुशी का पैगाम बनकर उस माहौल में संवेदना, सेवा और सामाजिकता पैदा कर देती है, नारायणगंज शाखा में दूर – अंचल से खाता खोलने आये “रंगैया” ने भी कुछ ऐसी छाप छोडी ……..
रंगैया जब खाता खोलने आया तो बैंकवाले ने पूछा – “रंगैया, खाता क्यों खुलवा रहे हो ?”
रंगैया ने बताया – “साब दस कोस दूर बियाबान जंगल के बीच हमरो गाँव है घास -फूस की टपरिया और घरमे दो-दो बछिया ….घर की परछी में एक रात परिवार के साथ सो रहे थे तो कालो नाग आके घरवाली को डस लियो, रात भर तड़फ -तडफ कर बेचारी रुकमनी मर गई …… मरते दम तक भुखी प्यासी दोनों बेटियों की चिंता करती रही …….. सांप के काटने से घरवाली मरी तो सरकार ने ये पचास हजार रूपये का चेक दिया है , तह्सीलवाला बाबु बोलो कि बैंक में खाता खोलकर चेक जमा कर देना रूपये मिल जायेगे ….. सो खाता की जरूरत आन पडी साब ! …. बैंक वाले ने पूछा – सांप ने काटा तो शहर ले जाकर इलाज क्यों नहीं कराया ?”
रंगैया बोला – “कहाँ साब! गरीबी में आटा गीला …. शहर के डॉक्टर तो गरीब की गरीबी से भी सौदा कर लेते है,वो तो भला हो सांप का … कि उसने हमारी गरीबी की परवाह की और रुकमनी पर दया करके चुपके से काट दियो, तभी तो जे पचास हजार मिले है खाता न खुलेगा …… तो जे भी गए ………… अब जे पचास हजार मिले है तो कम से कम हमारी गरीबी तो दूर हो जायेगी, दोनों बेटियों की शादी हो जैहै और घर को छप्पर भी सुधर जाहे, जे पचास हजार में से तहसील के बाबु को भी पांच हजार देने है बेचारे ने इसी शर्त पर जे चेक दियो है।”
तभी किसी ने कहा – “यदि नहीं दो तो ?……….. ”
रंगैया तुरंत बोला – “नहीं साब …… हम गरीब लोग हैं, प्राण जाय पर वचन न जाही, …साब, यदि नहीं दूँगा तो मुझे पाप लगेगा, उस से वायदा किया हूँ झूठा साबित हो जाऊँगा ….अपने आप की नजर में गिर जाऊँगा …..गरीब तो हूँ और गरीब हो जाऊँगा …….और फिर दूसरी बात जे भी है कि जब किसी गरीब को सांप कटेगा, तो ये तहसील बाबु उसके घर वाले को फिर चेक नहीं देगा ……….”
रंगैया की बातों ने पूरे बैंक हाल में एक नयी चेतना का माहौल बना दिया ………… सब तरफ से आवाजें हुई …. “पहले रंगैया का काम करो।”
भीड़ को चीरते हुए मैंने जाकर रंगैया के हाथों सौ रूपये वाले नए पांच के पैकेट रख दिए ……. उसी पल रंगैया के चेहरे पर ख़ुशी के जो भाव प्रगट हुए वो जुबां से बताये नहीं जा सकते …… बस इतना ही बता सकते हैं कि पूरे हाल में खुशियों की फुलझड़ियां जरूर जल उठीं …… हाल में खड़े लोग कह उठे …. कि – “खुशियाँ हमारे आस -पास ही छुपी होती है यदि हम उनकी परवाह करें तो वे कहीं भी मिल सकती है ………..”
© जय प्रकाश पाण्डेय