हिन्दी साहित्य- लघुकथा – बाजार……. – डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
बाजार…….
हरिनिवास पंडित शहर के मध्य में जूते-चप्पलों का एक भव्य शो रुम चला रहे हैं।
सामने ही इस्माइल मियां पूजन सामग्री की दुकान खोले बैठे हैं।
ठाकुर बलदेव सिंग की किराना दुकान पुरे क्षेत्र में प्रसिद्द है, समीप ही संपत राय महाजन ने फल-फूल तथा सब्जियों की भरी दुकान सजा रखी है।
इधर दलित दयाराम की सोने-चांदी की दुकान अलग ही चमचमा रही है।
रामकृष्ण सर्राफ बिस्किट, बेकरी आयटम व चिप्स /कुरकुरे थोक में बेच रहे है, थोड़े आगे ही नुक्कड़ पर हरी प्रसाद हरिजन की हॉटल/ भोजनालय में खाने वालों की दिनभर भीड़ लगी रहती है।
इस बार निगम के चुनाव में भारी बहुमत से विजयी, सत्संगी- शारदा देवी नगर के महापौर पद को सुशोभित कर रही है और कृषि उपज मंडी के मुख्य आढ़तिया पद को सरदार प्रीतम सिंग जी।
उधर गांव के अधिकांश खेतों को शहरी लोग संभालने लग गए हैं, तो ग्रामीण युवक शहरों में इधर-उधर दुकानों में काम कर रहे हैं।
स्थिति यह है कि, शहर गांव की तरफ और गांव शहर की तरफ दौड़ लगा रहे हैं।
बाजार के ये सारे सुखद दृश्य देख कर रामदीन को ये लगता है कि, हमारा देश सामाजिक समरसता की ओर तेजी से बढ़ रहा है।
किन्तु समाज के मौजूदा हालात देखकर रामदीन को यह भी लगता है कि,
इस नव विकसित बाजारू परिदृश्य के बावज़ूद जातीय, सामाजिक एवं सांप्रदायिक सद्भाव कहीं पीछे छूटता जा रहा है, जिसके बारे में सोचने का किसी के पास समय नहीं है।
बदलते परिवेश में एक ओर रामदीन प्रसन्न है तो दूसरी ओर खिन्न भी।
© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’