हिन्दी साहित्य- लघुकथा – ☆ दमदार ☆ – डॉ . प्रदीप शशांक
डॉ . प्रदीप शशांक
(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा रचित एक सार्थक एवं सटीक लघुकथा “दमदार ”.)
☆ लघुकथा – दमदार ☆
पूस की ठंड से कंपकपाती रात , आफिसर्स कालोनी सन्नाटे में डूबी थी । रात्रि के ग्यारह बज रहे थे , लोग अपने – अपने घरों में रजाइयों में दुबके मानो ठंड से निजात पाने की कोशिश कर रहे थे ।
तभी रात्रि के सन्नाटे को चीरती हुई एक कार आकर रुकी । उसमें से चार पांच युवक उतरे और कार में लगे टेप को , जो पहले से ही बज रहा था और तेज आवाज में बजाना शुरू कर दिया। गाने के बोल ‘ बोलो तारा — रा–रा– तारा –रा– की धुन पर नाचने एवं शोर मचाने लगे ।
कालोनी में जिस घर के सामने ये लोग नाच रहे थे , उस घर के सदस्य भी नाच गाने में शामिल हो गये । कुछ देर के लिये कालोनी का सन्नाटा अचानक उठे शोर से घबराकर न जाने कहां दुबक गया था । आसपास के घरों में नींद में व्यवधान उत्पन्न हुआ । लोगों ने कमरे की खिड़की थोड़ी सी खोलकर बाहर झांका , लेकिन किसी की भी हिम्मत इस शोर-गुल को बंद करवाने की नहीं हुई । सब बाहर का नजारा देखकर , चुपचाप अपने घरों में दुबके रहे ।
सुबह सामान्य ढंग से हुई । रात में जो कुछ हुआ था उसका विरोध करने की किसी में भी हिम्मत नहीं थी , क्योंकि कल थानेदार साहब के साले की सालगिरह थी और वे अपने दोस्तों के साथ सालगिरह मनाकर लौटे थे और रात में कुछ घंटे यहां पर भी खुशियां मनाई गई थीं ।
थानेदार के साले की जगह किसी और की सालगिरह का शोर होता तो रात में ही एक फोन करके शोर मचाने वालों को थाने पहुंचा दिया गया होता ।
© डॉ . प्रदीप शशांक
दमदार
पूस की ठंड से कंपकपाती रात , आफिसर्स कालोनी सन्नाटे में डूबी थी । रात्रि के ग्यारह बज रहे थे , लोग अपने – अपने घरों में रजाइयों में दुबके मानो ठंड से निजात पाने की कोशिश कर रहे थे ।
तभी रात्रि के सन्नाटे को चीरती हुई एक कार आकर रुकी । उसमें से चार पांच युवक उतरे और कार में लगे टेप को , जो पहले से ही बज रहा था और तेज आवाज में बजाना शुरू कर दिया। गाने के बोल ‘ बोलो तारा — रा–रा– तारा –रा– की धुन पर नाचने एवं शोर मचाने लगे ।
कालोनी में जिस घर के सामने ये लोग नाच रहे थे , उस घर के सदस्य भी नाच गाने में शामिल हो गये । कुछ देर के लिये कालोनी का सन्नाटा अचानक उठे शोर से घबराकर न जाने कहां दुबक गया था । आसपास के घरों में नींद में व्यवधान उत्पन्न हुआ । लोगों ने कमरे की खिड़की थोड़ी सी खोलकर बाहर झांका , लेकिन किसी की भी हिम्मत इस शोर-गुल को बंद करवाने की नहीं हुई । सब बाहर का नजारा देखकर , चुपचाप अपने घरों में दुबके रहे ।
सुबह सामान्य ढंग से हुई । रात में जो कुछ हुआ था उसका विरोध करने की किसी में भी हिम्मत नहीं थी , क्योंकि कल थानेदार साहब के साले की सालगिरह थी और वे अपने दोस्तों के साथ सालगिरह मनाकर लौटे थे और रात में कुछ घंटे यहां पर भी खुशियां मनाई गई थीं ।
थानेदार के साले की जगह किसी और की सालगिरह का शोर होता तो रात में ही एक फोन करके शोर मचाने वालों को थाने पहुंचा दिया गया होता ।