डॉ कुंवर प्रेमिल
☆ धारावाहिक लघुकथाएं – औरत #3 – [1] वजूद [2] औरतनामा ☆
[1]
वजूद
औरत सोचने – समझने और मूल्यांकन करने की कसौटी पर खरी उतरी है। बगैर औरत आदमी आधा अधूरा है।
औ❤️रत का अपना एक वजूद है।जिसे झुटलाया नहीं जा सकता। उसे गढ़ने में औरत ने शताब्दियाँ बिताई हैं।
आज कर्मक्षेत्र धरमक्षेत्रे की जीती जागती मिसाल है औरत। परिवार की रीढ़ है औरत। अपने वजूद को खुद निर्मित किया है उसने।
वाह री औरत।
[2]
औरतनामा
द्रोपदी, गांथारी, सीता-सावित्री, पद्मनी या कोई और खेतिहर मजदूर, ये सब एक ही औरत के रूप-प्रतिरूप हैं। हर हाल में औरत का उज्जवल चरित्र ही सामने आया है।
औरत कलियुग की हो या सतयुग की, उसने अपने नारीत्व पर कभी आंच नहीं आने दी। चाहे जो हो, अपना वंश चलते अपनी गरिमा को गिरवी नहीं रखा। औरतनामा गिरवी रखकर उसका जीवन संदिग्ध है।
अपने स्व को बचाने में हरदम संघर्षरत रही है औरत। प्रकृति ने आदमी को उपहार में दी है औरत। आदमी को चाहिए कि औरत की कद्र करें।
कभी वाहियात नही होती है औरत।
© डॉ कुँवर प्रेमिल
एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
सुंदर भावपूर्ण रचना