श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय लघुकथा – ज़मीर –)

☆ लघुकथा ☆ ज़मीर  ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

धर्मपाल चौधरी गाँव के बड़े किसान थे। वे हर साल अपना खेत चौथे या पाँचवें हिस्से पर जोतने के लिए देते थे। इस बार रबी की फ़सल आई ही थी कि घर के उस हिस्से में आग लग गई, जिसमें अनाज रखा हुआ था। सारा अनाज जल गया। ज़ाहिर है कि चौधरी धर्मपाल बहुत दुखी थे। पूरे गाँव के लोग उनके घर सहानुभूति में जमा हो गए थे। इन्हीं में सुरजा राम भी था, जिसने बारह साल तक चौधरी की ज़मीन जोती थी। यह हालत देखकर उसका मन रो रहा था। सारी गेहूँ जल गई, अब घर में रोटी कैसे बनेगी? सुरजा राम ने कुछ दिन पहले ही सुना था कि चौधरी के पल्ले पैसा नहीं है। एक मुक़द्दमे में वह न केवल सारी पूँजी खो चुका है, बल्कि उस पर लाखों रुपये का कर्ज़ चढ़ा हुआ है।

जब वहाँ आठ-दस लोग रह गए तो सुरजा राम ने चौधरी को थोड़ा अलग ले जाकर कहा,” चौधरी साहब, होनी के आगे किसका बस चलता है। हुई तो बहुत बुरी, पर आप घबराओ मत। मेरे पास साठ सत्तर हज़ार रुपये हैं। आप ले लो, अगली फ़सल पर या उससे अगली फ़सल पर दे देना।” इतना सुनते ही धर्मपाल चौधरी के भीतर का सामंत जाग गया। वे वहाँ मौजूद लोगों को सुनाते हुए बोले, “देखो रे, अब यह चौथिया जलायेगा हमारे घर का चूल्हा! बड़ा आया धन्ना सेठ। लड़के सड़कों पर मज़दूरी करते फिरते हैं और यह मेरी फ़िक्र कर रहा है। वाह, तू जा, अपना घर सम्भाल।” सुरजा राम के पाँव जैसे पत्थर हो गए थे। उसे वहीं खड़ा देख चौधरी गरजा, “अब तू जायेगा या पहले तेरे पैर पकड़ कर शुक्रिया अदा करूँ?” सुरजा राम धीरे-धीरे क़दम उठाता चौधरी के घर से बाहर निकल आया। उसका मन हुआ कि वह चौधरी को बद्दुआ दे कि ऐसी आग तेरे घर रोज़ लगती रहे, पर तुरंत उसे पश्चाताप होने लगा कि उसने यह सोच भी कैसे लिया। बेशक वह बेज़मीन है, बेज़मीर तो नहीं।

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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