श्री कमलेश भारतीय
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
आज प्रस्तुत है एक सार्थक व्यंग्य मिलते हैं कैसे कैसे मकान मालिक …. । इस व्यंग्य के सन्दर्भ में आदरणीय श्री कमलेश जी के ही शब्दों में “लीजिए मित्रो । लाॅकडाउन के दौरान पुरानी फाइलों में से व्यंग्य मिला । दैनिक ट्रिब्यून में 27 अक्तूबर , 1987 के रविवारीय में प्रकाशित । यह भी आकाशवाणी , जालंधर, की कार्यक्रम अधिकारी डाॅ रश्मि खुराना की सीरीज मिलते हैं कैसे कैसे लोग के लिए लिखा गया था । बहुत आभार रश्मि जी ।। नवांशहर रहता तो आप पूरा व्यंग्यकार बना कर छोड़तीं पर भाग्य चंडीगढ़ ले गया और कुछ का कुछ बनता गया ,,,,पर कोई खेद नहीं ……।” कृपया आत्मसात करें।
☆ व्यंग्य : मिलते हैं कैसे कैसे मकान मालिक …. ☆
कहावत है : जो सुख छज्जू दे चौबारे, वो वल्ख न बुखारे। पर अपने राम जब से नौकरी में आए हैं तब से अपने चौबारे का सुख भूल गये हैं। अब तो किसी प्यारे गीत के टुकड़े की तरह यह कहावत याद रह गयी है।
अपने घर, अपने चौबारे और अपने शहर को छोड़कर हमने कितनों के बोल सहे, कितने मकान मालिकों के नखरे उठाये, मीठे कड़वे ताने सहे ,,,,भगवान् मुंह न खुलवाये। वैसे भी मकान मालिक की बात करते ही उनका रौब से भरा चेहरा जब याद आता है तब बोलती वैसे ही बंद हो जाती है।
अजीब इत्तेफाक कि जब नौकरी शुरू की थी तब भी मकान लेने में दिक्कत आती थी क्योंकि तब हम कुंवारे थे। तब से एक ज़माना गुजर गया। हम बीबी बच्चों वाले हुए और अब भी मकान मालिक हमें मकान किराये पर मकान देने में बहुत तकलीफ महसूस करते हैं। तब हमारे कुंवारे होने से परहेज था , अब शादीशुदा होने पर ऐतराज। जब शादी नहीं हुई थी और हम मकान किराये पर लेने जाते थे तब मकान मालिक किसी तेज़ गेंदबाज की तरह पहली ही गेंद पर आउट कर देते थे -हम तो शादीशुदा को ही मकान किराये पर देते हैं। आप शादीशुदा हो क्या ?
हम किसी अपराधी की तरह जैसे ही मुंह लटकाते उसी समय घर के दरवाजे ज़ोर से बंद हो जाते। हम क्लीन बोल्ड हुए बल्लेबाज की तरह पैविलियन लौट आते। ज़माना काफी तरक्की कर गया है। अब मकान मालिक शादीशुदा लोगों को मकान किराये पर देने से कतराने लगे हैं। वे साफ कह देते हैं कि मियां बीबी की तो कोई बात नहीं। आपके बच्चों की फौज की परेड से हमें डर लगता है। हम बेबस होकर कभी अपने बच्चों को देखते हैं तो कभी परिवार नियोजन के पोस्टर याद करते हैं। काश , हमने सरकार की बात पर ध्यान दिया होता तो यूं सरेआम मकान मालिकों की निगाहें हमें बेइज्जत न कर डालतीं।
जिसे देश घूमने का शौक हो , उसे अलग अलग मकानों में रह कर अपनी यह इच्छा पूरी कर लेनी चाहिए। इसीलिए तो इस शेर से छेड़छाड़ करने का मन बन गया है :
सैर कर दुनिया की गाफिल
मकान बदल बदल के ,,,,,
अपने राम ने जितने मकान बदले होंगे उतने ही मकान मालिकों के नियम सामने आते गये। अब तो मकान मालिकों के नियमों की लम्बी चौड़ी सूची भी याद हो गयी है। बिल्कुल वैसे ही जैसे बचपन में पहाड़े याद करने पड़े थे।
अपने राम को एक मकान मालिक के कुत्ते की इज्जत न करने पर मकान खाली करने का हुक्म भी सुनना पड़ा था। तब हमें इस मुहावरे पर ईमान करना पड़ा था कि उनसे प्यार करना है तो उनके कुत्ते से भी प्यार करो। हमें मालूम था कि हमें यह मकान बड़ी तलाश के बाद किराये पर मिला था। इसलिए कुत्ता हमें जब जब घूर घूर कर देखता था तब तब हम उसे उतने ही प्यार से पुकारते थे परंतु इस महंगाई के ज़माना में हम खुद ग्लुकोज के बिस्कुट न खाकर उनके कुत्ते को बिस्कुट कब तक खिला सकते थे ? हमारी मकान मालकिन हमें उत्साहित करते कहती -आपसे पहले वाले किरायेदार से तो पूरी तरह हिल मिल गया था पर क्या करें आपसे तो हमारे रोमी की दोस्ती हो ही नहीं रही। शायद आप इसे इसकी पसंद के बिस्कुट खिलाना भूल जाते हो।
अब आप लोग ही बताइए कि आदमी को रोटी नसीब नहीं और मकान मालिकों के कुत्ते किरायेदारों के बिस्कुटों पर पलते रहेंगे ?
हमारी एक मकान मालकिन ने सारा घर हमें सौंप दिया जैसे देश तेरे हवाले। छोटी मोटी मरम्मत का काम भी हमारे विश्वास पर छोड़ गयीं। हम कहें कि घोर कलयुग में ऐसी मकान मालकिन ? जरूर हमने पूर्व जन्म में मोती दान किए होंगे। पर कहते हैं न कि बुरे को नहीं उसकी मां को मारो।
आंगन में लगे पेड़ को कटवाने का आदेश जारी किया तो मजबूरी जाहिर करने पर सलाह दी कि आपके दफ्तर के चपरासी किस काम आयेंगे ?
-वे तो दफ्तर के काम के लिए हैं मां जी। घर के काम काज के लिए थोड़े हैं।
-हमारे काका को देखो। फलाने शहर में अफसर है। घर का हर काम दफ्तर के चपरासी करते हैं और एक तुम हो पेड़ भी नहीं कटवा सकते ? तेरा इतना कहा भी न मानेंगे ? कह कर तो देख।
-न मांजी। मुझसे यह भ्रष्टाचार नहीं होता।
-बड़ा आया हरिश्चंद्र,,,,भूखा मरेगा। मेरा मकान खाली कर दे।
मरता क्या न करता ? मकान खाली कर दिया। नये मकान मालिक के किराये के रेट ही बांटा कम्पनी की तरह ऊंचे थे। यानी नब्बे रुपये , नब्बे पैसे जैसे। वे मकान मालिक एक सप्ताह पहले से ही हमारा हालचाल पूछने आने लगते और विदा होते होते किराये के पैसों की याद दिला देते यह कहते हुए -बेटा। फिर आना पड़ेगा। किराया आज ही दे देते तो अच्छा होता। हम उन्हें सौ का नोट पकड़ाते और वे किसी चालाक बस कंडक्टर की तरह छुट्टे रुपये न होने का बहाना लगा सौ का नोट ही उड़ा ले जाते। हम सोचते कि अगले महीने एडजस्ट कर लेंगे पर वे हमारे पांव ही न लगने देते और कहते कि हमने तो दूसरे दिन ही बच्चों के साथ दस का नोट भिजवा दिया था। फिर हम उनसे किराये की रसीद मांगते तो वे कहते बेटा रसीद तो लिखी गयी।
-कब और कहां ?
-हमारे दिल में।
-पर हम आपका दिल निकाल कर तो सरकार को नहीं दिखा सकते न।
-फिर आप मकान बदल लो।
और लीजिए नये मकान मालिक ने तो ऐसा समां बांधा कि पूछो मत। हमारे लोकतंत्र ने हर छोटे बड़े को वोट डालने का अधिकार दिया है लेकिन हमारे मकान मालिक ने यह हक छीनने की कोशिश भी की। जब कमेटी वाले वोट बनाने आए तब हमने फाॅर्म भर कर जैसे ही उनको सौंपने चाहा तो किसी फिल्म के खलनायक की तरह वे अवतरित हुए और फाॅर्म के टुकड़े टुकड़े कर दिये। कमेटी वालों को भगा दिया। कारण पूछने पर बताया कि आपको वोट की पड़ी है और हमें हाउस टैक्स बचाने की। हमने कमेटी में लिखवा रखा है कि हमारे कोई किरायेदार नहीं रहता और अगर तुम्हारी वोट हमारे पते पर बन गयी तो हमारी पोल खुल जायेगी और साबित हो जायेगा कि किरायेदार तो है। फिर बरखुरदार हमारे ऊपर हाउस टैक्स लग जायेगा। वोट बनवाने का इतना ही शौक है तो कोई और मकान ढूंढ लो।
अब आप बताइए कि ऐसे उसूलों वाले मकान मालिकों के सामने बिजली कम जलाना , बल्ब कम वोल्टेज के लगाना , बच्चों के कूदने से छत कमज़ोर न हो जाये , पानी की बूथद बूंद बचाना , फूल न तोड़ना, घर आने का ठीक वक्त याद रखना , आंगन की सफाई और जमादार के पैसे देना आदि इतनी लम्बी लिस्ट है कि इन उसूलों का पालन करने वाली शख्सियत को कैलाश मानसरोवर जाकर तपस्या करने वाले योगी से भी ज्यादा मुश्किल टाॅस्क मिल गया। वैसे भी इस महंगाई के दौर में अपने मकान की चाह तो पूरी हो या न ,,,,,किरायेदार रहना पड़ेगा तो मकान मालिकों की उंगलियों पर नाचना पड़ेगा। भगवान् उन्हें सुदबुद्धि दे। सबको सन्मति दे भगवान्।
© कमलेश भारतीय
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