श्री रमेश सैनी
(हम सुप्रसिद्ध वरिष्ठ व्यंग्यकार, आलोचक व कहानीकार श्री रमेश सैनी जी के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने व्यंग्य पर आधारित नियमित साप्ताहिक स्तम्भ के हमारे अनुग्रह को स्वीकार किया। किसी भी पत्र/पत्रिका में ‘सुनहु रे संतो’ संभवतः प्रथम व्यंग्य आलोचना पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ होगा। व्यंग्य के क्षेत्र में आपके अभूतपूर्व योगदान को हमारी समवयस्क एवं आने वाली पीढ़ियां सदैव याद रखेंगी। इस कड़ी में व्यंग्यकार स्व रमेश निशिकर, श्री महेश शुक्ल और श्रीराम आयंगार द्वारा प्रारम्भ की गई ‘व्यंग्यम ‘ पत्रिका को पुनर्जीवन देने में आपकी सक्रिय भूमिकाअविस्मरणीय है।
आज प्रस्तुत है व्यंग्य आलोचना विमर्श पर ‘सुनहु रे संतो’ की अगली कड़ी में आलेख ‘21वीं सदी का व्यंग्य : दिशा और दशा’।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो #4 – 21वीं सदी का व्यंग्य : दिशा और दशा ☆ श्री रमेश सैनी ☆
[प्रत्येक व्यंग्य रचना में वर्णित विचार व्यंग्यकार के व्यक्तिगत विचार होते हैं। हमारा प्रबुद्ध पाठकों से विनम्र अनुरोध है कि वे हिंदी साहित्य में व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए उन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ]
व्यंग्य लेखन हड़बड़ी का नहीं, जिम्मेदारी का है – रमेश सैनी
21वीं सदी के व्यंग्य पर बात करने के लिए हमें बीसवीं सदी के व्यंग्य के परिदृश्य को आधार बनाना पड़ेगा .तब हम 21वीं सदी में अब तक के परिदृश्य और भविष्य के व्यंग्य की संभावना पर बात कर सकते हैं.क्योंकि अभी 21वीं सदी के दो ही दशक गुजरे हैं। और उसमें मुकम्मल बात नहीं हो सकती है.हां उसकी संभावना पर हम अब तक हुए लेखन पर बात कर सकते हैं.भारतीय जीवन दर्शन और परंपरा आशावादी दृष्टिकोण ले लेकर आगे बढ़ती है. हमारे जीवन में निराशा का भाव बहुत कम होता है. हमारे जीवन या समाज के सामने दुर्दिन, कष्ट, दुख आएं पर हम उन से विमुख नहीं होते हैं. हम उनका सामना करते हैं. वरन उन दिनों की दशा पर एक ही सकारात्मक दृष्टिकोण तय कर लेते हैं. कि यह सब कुछ पहले से ही नियति ने तय कर रखा था. जब नियति द्वारा सब कुछ तय है. तब घबड़ाना क्यों ?फिर विश्वास करते हैं कि ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’. इस विश्वास के सहारे हमारे जीवन और समाज में संघर्षों के दिनों में उर्जा बढ़ जाती है. इस काल में हमारा जीवन अर्निभाव से सहज, सरल, सतत गति से चलता रहता है.
भारतीय साहित्य और राजनीति में जब काल के हिसाब से गणना करते हैं. तब स्वभाव या प्राकृतिक रूप से दो कालखंड हमारे सामने दृष्टिगत होते हैं .पहला काल खंड स्वतंत्रता के पहले अर्थात 1947 के पूर्व और दूसरा काल खण्ड स्वतंत्रता के बाद अर्थात 1947 के बाद का. इन दोनों की अपनी विशेषता है. पहला कालखंड नवजागरण संघर्ष और अपनी भारतीयता को बचाने का था. अपनी मुक्ति का संघर्ष का समय था. जिसमें समाज के प्रत्येक वर्ग का सहयोग और योगदान था. जिसमें जीवन और समाज में व्याप्त विसंगतियां विडम्बनाएं हमारे समक्ष अमूर्त रूप में थी. उस समय हमारे समक्ष स्पष्ट लक्ष्य था. अंग्रेजी शासन से मुक्ति. मुक्ति संघर्ष के समय में भी समाज बहुत सारी मे विसंगतियां विडम्बनाएं जैसे जात-पात, छुआछूत अंधविश्वास, जमीदारी प्रथा, आदि समाज में घुन की भांति थी.पर सब मुक्ति संघर्ष के सामने सामाजिक चेतना से बाहर थी इसी कारण उस समय के परिदृश्य में लेखन के केन्द्र में सिर्फ राष्ट्रवाद था।उस समय का अधिकांश व्यंग्य राजनीति और तत्कालीन विदेशी सत्ता के विरोध में था. इन व्यंग्य का असर सत्ता पर उस वक्त आसानी से अनुभव किया जा सकता था.
स्वतंत्रता के बाद भारतीय साहित्य में आमूल परिवर्तन देखा जा सकता है. भारतीय जनमानस का ध्यान समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, पाखंडवाद, ठकुरसुहाती, नौकरशाही, अवसरवादी, बेरोजगारी, अकाल, गिरते नैतिक मूल्य, धार्मिक कट्टरता,अंधविश्वास आदि विद्रूपताएं विडंबनाएं विसंगतियां ,बुराइयां आदि दिखने लगी थी ,जबकि यह पहले से व्याप्त थी. पर इसे पूर्व में अनदेखा किया गया. इन विसंगतियों को उस वक्त के व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई शरद जोशी रवीन्द्रनाथ त्यागी,आदि व्यंग्यकारों ने निर्डरता से समाज के सामने उजागर किया. सामाजिक और मानवीय सरोकारों के प्रति प्रतिबद्ध लेखन से एक नया शिल्प आया और इन लेखकों को व्यंग्यकारों के रुप में पहचाना गया. इन व्यंग्य लेखों के माध्यम से साहित्य में इन लेखकों को व्यंग्यकारों की रूप में स्वीकार्यता मिली. इसमें भी कोई संदेह नहीं है. उस समय केवल व्यंग्यकारों ने मानवीय सरोकारों, संवेदना के साथ अपनी लेखक की जिम्मेदारी का ईमानदारी से निर्वाह किया था .यह बात रेखांकित करने की बात है इन व्यंग्यकारों की एक लंबी फेहरिस्त है जो अपनी सामाजिक मानवीय सरोकारों और संवेदना के साथ समाज और जीवन के प्रति प्रतिबद्ध रहे.
21वीं सदी के आरंभ में भी सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियां लगभग बीसवीं सदी के समान है इसमें कोई खास बदलाव नहीं हुआ है. समाज में आज भी गरीबी, भूख, अकाल, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संकट, भ्रष्टाचार, अपहरण ,बलात्कार, उपभोक्तावाद आतंकवाद आदि ने उन सभी विसंगतियों का विस्तार किया है, पर बीसवीं सदी के उत्तरार्ध के लेखकों ने 21वीं सदी में भी इन विसंगतियों को अपनी दृष्टि से ओझल नहीं होने दिया.पर नई पीढ़ी विशेषकर 21वीं सदी के आरंभ की पीढ़ी जिन्होंने कुछ वर्षों पहले लेखन अपना आरंभ किया है.उनकी दृष्टि में ये विसंगतियां और बुराईयां गौड़ थी. पर उपरोक्त बुराईयों के साथ-साथ भारतीय जीवन और समाज में के परिदृश्य में धीरे-धीरे बहुत बदलाव दिख रहा था. जिसे हम महसूस कर सकते थे. राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य में धीरे-धीरे परिवर्तन हो रहा था. शिक्षा और स्वास्थ्य में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ.लोगों की जीवन शैली बदल गई.संयुक्त परिवार टूट कर एकल हो गए . इंटरनेट, बेबसाइट, फेसबुक आदि सोशल मीडिया ने सूचना माध्यम को सहज बना दिया.यह हमारी सामाजिक संरचना में प्रवेश कर गया. तकनीकी क्रांति ने लोगों की सोचने समझने की क्षमता को प्रभावित किया. इस तकनीकी प्रभाव ने लोगों को तकनीक का पराधीन बना दिया. इंटरनेट, वेबसाइट, सर्च इंजन सूचना के महत्वपूर्ण स्त्रोत हो गए.इसका प्रभाव लेखकों पर भी पड़ा. इस कारण लेखक धीरे-धीरे बाहर की दुनिया से अलग होने लगा.और वह मानवीय संवेदनाएं, सरोकार, आर्थिक,सामाजिक, राजनैतिक विसंगतियां लेखन के विषय छूटने लगे वैश्वीकरण, निजीकरण, बाजारवाद, के मायावी संसार में लेखक भी फंस कर रह गया. इस सदी के प्रारंभ की रचना देखें .तो आप खुद अनुभव करेंगे कि रचनाओं के विषय बदल गए हैं.मानवीय सामाजिक राजनैतिक विसंगतियों से बचकर लिखने लगा है.उसमें उसका अपना गुणा भाग रहता है.वह रचनाओं के माध्यम से अपना नफा नुकसान का बहीखाता रखता है.आज का व्यंग्यकार बहुत डरा हुआ है.वह बहुत संभलकर और सावधानी से लिख रहा है.वह ऐसे विषय पर लिखता है. जिसका सामाजिक राजनैतिक और मानवीय सरोकारों से कोई संबंध नहीं रहता है.इसका सबसे बढ़िया उदाहरण है.पिछले दिनों बाजार में प्याज बहुत महंगी हो गई .सभी शहरों में ₹150 से लेकर ₹200 तक बिकी. बहुत से लेखकों ने प्याज की महंगाई पर व्यंग्य लिखें. जबकि उस वक्त भी बहुत सी ऐसी सामाजिक और राजनीतिक विसंगतियां थी .जिस पर लेखक मौन रहा है.उसने साहस नहीं दिखाया. शाहीनबाग था, ,किसान आत्महत्या कर रहे थे. लड़कियों पर बलात्कार हो रहे थे नेताओं द्वारा धार्मिक प्रपंच कर रहे थे,आदि. पर इन पर व्यंग्यकारों के लेख नहीं आए. क्योंकि इस पर लिखना एक रिस्क लेना था.चाहे वह रिस्क सत्ता से हो या समाज से.
मोबाइल, कंप्यूटर क्रांति ने सिर्फ मनुष्य को नहीं बदला है, वरन उसमें उपभोक्ता संस्कृति ने विस्तार में सहयोग कर मनुष्यता को ही बदल दिया है. इसका प्रभाव लेखन पर बहुत सरलता से देखा जा सकता है.जीवन और समाज में व्याप्त विसंगतियों को धीरे धीरे ढका जा रहा है.एक नयी आभासी दुनिया का सृजन किया जा रहा है. एक नए प्रकार का लेखन सामने आ रहा है जिसे हम यथार्थवाद कह सकते हैं. इसके दुष्प्रभाव से साहित्य में यथार्थवाद की स्वीकार्यता बढ़ती जा रही है. यथार्थवाद ने हमारी वैचारिक शक्तियों को कमजोर सा कर दिया है,हमारी सांस्कृतिक और सामाजिक मूल्यों को पीछे कर दिया है.उपभोक्ता संस्कृति से उपजे बाजारवाद ने इसमें आग में घी का काम किया है. इसके प्रमाण में एक ही बात कहना चाहता हूँ. इस समय के महत्वपूर्ण व्यंग्यकार ज्ञान चतुर्वेदी भी बाजारवाद की शक्तिशाली भुजाओं से अपनों को नहीं बचा सके.विगत दिनों उनका उपन्यास “हम न मरब” में भारतीय ग्रामीण क्षेत्र की परंपरागत गालियों की भरमार थी. इसे हम सार्वजनिक, परिवार के साथ बैठकर पढ़ नहीं सकते हैं.जबकि इन गालियों से बचा जा सकता था.इन गालियों ने उपन्यास का बाजार बना दिया. लोगों ने इस संबंध में उनसे पूछा, तब उनका उत्तर था-“जिस पृष्ठभूमि में यह उपन्यास लिखा गया, उस क्षेत्र का परिवेश और पात्र इसी भाषा (गालियों वाली) का उपयोग करते हैं.इसे हम परिवार के बीच में जोर से बोल कर नहीं पढ़ सकते हैं क्योंकि हमारी सामाजिक और पारिवारिक मर्यादा भी है. जिनको हमें बचाए रखना पड़ता है.यथार्थवादी लेखन ,कहीं नहीं कहीं हमारी मूल्यों को नीचे ले जा रहा है. इसी तरह बाजार को सामने रखकर उन्होंने मार्फत लेखन के बहाने एक हमारे समय के महत्वपूर्ण और महान लेखक की छवि को यथार्थ वाद से धूमल करने का प्रयास किया.अब प्रश्न उठता है यथार्थवादी लेखन के माध्यम से आने वाली पीढ़ी और 21वीं सदी को हम क्या परोस रहे हैं.यह चिंतनीय और विचारणीय है.
तकनीक और सूचना के विस्तार ने लेखकों को पाठक तक पहुंचने का रास्ता आसान कर दिया है अब लेखक को जो प्लाट क्लिक किया उसे फटाफट लिखा और हड़बड़ी में व्हाट्सएप या फेसबुक में डाल दिया .जबकि व्यंग्य हड़बड़ी का लेखन नहीं है वरन जिम्मेदारी का है. पर लेखक आत्ममुग्धता वह लाइक ,अच्छी ,बढ़िया, सहमत आदि टिप्पणियों का इंतजार करता है. फिर इन टिप्पणियों को देख लेखक गदगद हो जाता है. पर यहां पर उसका नुकसान भी हो रहा है क्योंकि यहाँ लेखक और पाठक के बीच का संपादक गायब है और टिप्पणियाँ मुंह देखी होती है..लेखक में इतना संयम भी नहीं है.कि वह अपनी रचना का संपादन खुद कर सकें. इन माध्यमों से लेखक आत्ममुग्धता का शिकार हो रहा है.इससे व्यंग्य की गुणवत्ता पर सवाल उठने लगे हैं. यह लेखक और व्यंग्य के लिए चिंता का विषय है.
आज व्यंग्य बहुतायत से लिखा जा रहा है अखबारों पत्रिका में व्यंग्य स्तंभ जरूरी हो गया है पर उन्होंने पर कतर दिए है. अखबार और पत्रिकाओं ने लेखों को शब्द सीमा तक सीमित कर दिया .एक तरह व्यंग्य का बोनसाई बना दिया है. जो सुंदर और आकर्षक होते हैं. पर उनमें से उनकी आत्मा सुगंध और स्वाद गायब है.पर लेखक छपास के मोह में अपनी आत्मा से समझौता कर रहा है.अब तो वन लाइनर व्यंग्य का इंतजार हो रहा है.
इन सबके बावजूद व्यंग्य की उपरोक्त विसंगतियों के समांतर समाज में व्याप्त विसंगतियों प्रकृति और प्रवृत्तियों पर भी व्यंग्यकारों की दृष्टि है. और वे विसंगतियों को केंद्र में रख कर अपने लेखकीय दायित्व का निर्वाह कर रहे हैं. अभी 21वीं सदी सदी का मात्र दो दशक बीता है. इस समय में 21वीं सदी का पूरी तरह मूल्यांकन नहीं कर सकतेहैं. जो बीत गया है. वह भी पूरा 21वी सदी का सच नहीं है हां 21वीं सदी तकनीक के माध्यम से आगे बढ़ रही है और व्यंग्यकार की दृष्टि सब पर बराबर है.जोकि व्यंग्य के लिए आवश्यक है. अभी समय पहले ही व्यंग्ययात्रा के संपादक वरिष्ठ व्यंग्यकार डॉक्टर प्रेम जनमेजय की एक रचना आई थी “बर्फ का पानी” यह रचना आश्वस्त करती है कि भविष्य में व्यंग्य साहित्य की महत्वपूर्ण रचनाओं में से एक होगी .इसी तरह व्यंग्य में एक नये शिल्प के साथ ललित लालित्य ने धमाकेदार उपस्थिति दर्ज की है.
भविष्य के गर्भ में क्या है यह अभी कह नहीं सकते. पर जो अभी दिख रहा है.इस आधार पर समाज में व्याप्त विसंगतियों और विडम्नाओं के विरोध में रहकर आज का व्यंग्यकार अपने पूर्वजों की परम्परा से मुंह नहीं मोड़ेगा. क्योंकि वह पहले से अधिक साधन सम्पन्न है.
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© श्री रमेश सैनी
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≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈