श्री रमेश सैनी
(हम सुप्रसिद्ध वरिष्ठ व्यंग्यकार, आलोचक व कहानीकार श्री रमेश सैनी जी के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने व्यंग्य पर आधारित नियमित साप्ताहिक स्तम्भ के हमारे अनुग्रह को स्वीकार किया। किसी भी पत्र/पत्रिका में ‘सुनहु रे संतो’ संभवतः प्रथम व्यंग्य आलोचना पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ होगा। व्यंग्य के क्षेत्र में आपके अभूतपूर्व योगदान को हमारी समवयस्क एवं आने वाली पीढ़ियां सदैव याद रखेंगी। इस कड़ी में व्यंग्यकार स्व रमेश निशिकर, श्री महेश शुक्ल और श्रीराम आयंगार द्वारा प्रारम्भ की गई ‘व्यंग्यम ‘ पत्रिका को पुनर्जीवन देने में आपकी सक्रिय भूमिकाअविस्मरणीय है।
आज प्रस्तुत है व्यंग्य आलोचना विमर्श पर ‘सुनहु रे संतो’ की अगली कड़ी में आलेख ‘व्यंग्य निबंध – व्यंग्य को प्रभावित करने वाले मूल कारक ’।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो # 7 – व्यंग्य निबंध – व्यंग्य को प्रभावित करने वाले मूल कारक ☆ श्री रमेश सैनी ☆
[प्रत्येक व्यंग्य रचना में वर्णित विचार व्यंग्यकार के व्यक्तिगत विचार होते हैं। हमारा प्रबुद्ध पाठकों से विनम्र अनुरोध है कि वे हिंदी साहित्य में व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए उन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ]
अर्थशास्त्र का मूल सिद्धांत है “जब उत्पादन जरुरत से अधिक हो जाता है तब उसके मूल्य गिर जाते हैं”. साथ में यह भी जोड़ा जा सकता है कि जब सामान की गुणवत्ता गिर जाती है तब भी उसके मूल्य गिर जाते हैं. इसके साथ एक और चीज जोड़ी जा सकती है, जब किसी कीमती चीज का नकली सामान आ जाता है तब भी वह सामान सस्ता मिलने लगता है. और हम असल नकल की पहचान करना भूल जाते हैं. यह सिर्फ अर्थ शास्त्र में ही लागू नहीं होता है वरन जहां जीवन है. जहाँ जीवन से जुड़ी चीजें हैं.जीवन से जुड़ा बाजार है. बाजार से जुड़ा नफा नुकसान का गणित है. वहाँ भी यह सिद्धांत लागू हो जाता है. जब भी नफा नुकसान जुड़ता है. वहांँ मानवीय कमजोरियां घर कर जाती है. नई नई विसंगतियां, विकृतियां पैदा हो जाती हैं. यह सब सिर्फ जीवन और समाज में ही नहीं होता है वरन दूसरे क्षेत्र, यथा समाजशास्त्र, राजनीति, कला साहित्य में पैदा हो जाती हैं. फिर साहित्य और साहित्यकार कैसे अछूता रह सकता है. साहित्य की बात करेंगे तो काफी विस्तार हो जाएगा.
हम सिर्फ साहित्य की महत्वपूर्ण और वर्तमान समय की लोकप्रिय विधा व्यंग्य के बारे में ही बात करेंगे. व्यंग्य और व्यंग्यकार के बारे में कबीर से लेकर परसाई तक यह अवधारणा है कि व्यंग्य और व्यंग्यकार बिना लाभ हानि पर विचार कर बेधड़क होकर विसंगति, विकृति, पाखंड, कमजोर पक्ष में अपनी बात रखता है. परसाई जी के समय तक इस अवधारणा का ग्राफ लगभग सौ फीसदी ठीक रहा. पर आधुनिक वैज्ञानिक और तकनीकी विकास,बाजारवाद के प्रभाव ने इस अवधारणा को ध्वस्त कर दिया है. बाजार के प्रभाव ने लेखक को कब जकड़ लिया है. उसे पता ही नहीं चला और वह अपना लेखकीय दायित्व भूलने लगा. अब अधिकांश लेखकों का मकसद दिखावा प्रचार, और प्रदर्शन हो गया. अब उसका सृजन बाजार का माल बनके रह गया है. उसे यह महसूस हो गया है कि ‘जो दिखता है वह बिकता है’ और आज जो बिक रहा है वहीं दिख रहा है. अतः व्यंग्य और व्यंग्यकार बाजार के हिस्से हो गए हैं. अखबार, पत्रिका, संपादक जो डिमांड कर रहे हैं. लेखक उसे माल की भाँति सप्लाई कर रहा है. थोड़ा बहुत भी इधर उधर होता है संपादक कतरबौ़ंत करने में हिचक/देर नहीं करता है. पर यह चिंतनीय बात है कि लेखक चुप है. पर सब लेखक चुप नहीं रहते हैं. वे आवाज उठाते हैं. वे रचना भेजना बंद कर देते हैं, या फिर अपनी शर्तों पर रचना भेजते हैं. पर इनकी संख्या बहुत कम है. व्यंग्य की लोकप्रियता कल्पनातीत बढ़ी है इसकी लोकप्रियता से आकर्षित होकर अन्य विधा के लेखक भी व्यंग्य लिखने में हाथ आजमाने लगे हैं. व्यंग्य में छपने का स्पेस अधिक है. अधिकांश लघु पत्रिकाएं गंभीर प्रकृति की होती हैं. वे कहानी कविता निबंध आदि को तो छापती हैं पर व्यंग्य को गंभीरता से नहीं लेती है. और व्यंग्य छापने से परहेज करती हैं.., बड़े घराने की संकीर्ण प्रवृत्ति की पत्रिकाएं व्यंग्य तो छापती हैं. पर जो लेखक बिक रहा है, उसे छापती है. यहाँ एक बात महत्वपूर्ण है कि व्यंग्य के मामलों अखबारों में लोकतंत्र है. अधिकांश अखबार लगभग रोजाना व्यंग्य छाप रहे हैं. वहांँ पर सबको समान अवसर है. बस उनकी रीति नीति के अनुकूल हो. और व्यंग्यकार को अनुकूल होने में देर नहीं लगती है सब कुछ स्वीकार्य है, बस छापो. इस कारण व्यंग्यकारों की बाढ़ आ गई है और बाढ़ में कूड़ा करकट कचरा सब कुछ बहता है. इस दृश्य को सामने रखकर देखते हैं तो परसाई और शरद जोशी के समय के व्यंग्य की प्रकृति और प्रभाव स्मरण आ जाता है तब हम पाते है कि उससे आज के समय के व्यंग्य में काफी कुछ बदलाव आ गया है. अब तो व्यंग्यकार कमजोर दबे कुचले वर्ग की कमजोरियों पर भी व्यंग्य लिखने लगा है. और कह रहा है. यह है व्यंग्य. व्यंग्य के लेखन का मकसद ही दबे कुचले कमजोर, पीड़ित के पक्ष में और पाखंड प्रपंच, विसंगतियों, विकृतियों के विरोध से ही शुरु होता है. आज के अनेक लेखक व्यंग्य की अवधारणा, मकसद, को ध्वस्त कर अपनी पीठ थपथपा रहे है. अपने और अपने आका को खुश कर रहे है. इस खुश करने की प्रवृत्ति ने व्यंग्य में अराजकता का माहौल बना दिया है. कोई तीन सौ शब्दों का व्यंग्य लिख रहा है, कोई पाँच सौ से लेकर हजार शब्दों के आसपास लिख रहा है. तो कोई फुल लेंथ अर्थात हजार शब्दों से ऊपर. अनेक विसंगतियों को रपट, सपाट, या विवरण लिख रहा है और कह रहा है यह है व्यंग्य. प्रकाशित होने पर उसे सर्वमान्य मान लेता है और अपनी धारणा को पुख्ता समझ उसे स्थापित करने में लग जाता है. अपितु ऐसा होता नहीं है.इस कारण व्यंग्य के बारे हर कोई अपनी स्थापना को सही ठहराने में लगा है. वह जो लिख रहा है या जिसे वह व्यंग्य कह रहा है वही व्यंग्य है और शेष…… उसके बारे में वह न कहना चाहता और नही कुछ सुनना. क्योंकि उसे दूसरे की रचना पढ़ने और न समझने की फुरसत है. आज लेखक अपने को सामाजिक, साहित्यिक जिम्मेदारी से मुक्त समझता है. वह सिर्फ दो लोगों के प्रतिबद्ध है. पहला, सम्पादक की पसंद क्या है ? बस उसे उसी का ध्यान रखना है. उसे व्यंग्य के जरूरी तत्व मानवीय मूल्यों और सामाजिक सरोकारों से परहेज सा लगता है. और दूसरा अपने/स्वयं से. वर्तमान समय में अपने व्यक्त करने के लिए अनेक विकल्प है. वह अपने बीच में किसी प्रकार की बाधा नहीं चाहता है.उसके पास प्रिंट मीडिया के अलावा फेसबुक, वाट्सएप, यूट्यूब, ट्विटर, ब्लॉग आदि अनेक पटल है जहाँ पर वह अपने आप को बिना किसी अवरोध के अपने अनुरुप पाता है. ऐसी स्थिति में जब आपके बीच छन्ना, बीनना गायब हो जाता है. तब कचरा मिला माल सामने दिखता है. व्यंग्य में यह सब कुछ हो रहा है. व्यंग्य भी बाजार में तब्दील होता जा रहा है.
नये लोग व्यंग्य की व्यापकता, प्राथमिकता प्रचार को देख कर इसकी ओर आकर्षित हो रहे हैं. कुछ लोग तो इसे कैरियर की तरह ले रहे हैं. जबकि वे व्यंग्य की प्रकृति, प्रवृत्ति, प्रभाव, से पूरी तरह से अनभिज्ञ हैं. पर व्यंग्य लिख रहे हैं. परसाई जी कहते हैं कि उन्होंने कभी भी मनोरंजन के लिए नहीं लिखा है. पर आज के अधिकांश लेखक मनोरंजन के लिए लिख रहे है.
आज का लेखन मानवीय मूल्य सामाजिक सरोकार,से दूर हो गया है. पाखंड, प्रपंच ,भ्रष्टाचार, धार्मिक अंधविश्वास, ठकुरसुहाती,आदि विषय पुराने जमाने के लगते हैं. आधुनिकता के चक्कर में जीवन से जुड़ी विसंगतियां भी उसे रास नहीं आती है.राजनैतिक और सामाजिक मूल्यों में गिरते ग्राफ पर लिखने से उसे खतरा अधिक दिखता है और लाभ न के बराबर. उसे साहित्य भी बाजार के समान दिखने लगा है. अतः वह नफा नुकसान को देखकर सृजन करता है. कुछ इसी प्रकार अनेक कारक है. जो व्यंग्य की मूल प्रवृत्ति में भटकाव लाते हैं और व्यंग्य की संरचना, स्वभाव को प्रभावित कर रहे हैं.
© श्री रमेश सैनी
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≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈