श्री रमेश सैनी

(हम सुप्रसिद्ध वरिष्ठ व्यंग्यकार, आलोचक व कहानीकार श्री रमेश सैनी जी  के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने व्यंग्य पर आधारित नियमित साप्ताहिक स्तम्भ के हमारे अनुग्रह को स्वीकार किया। किसी भी पत्र/पत्रिका में  ‘सुनहु रे संतो’ संभवतः प्रथम व्यंग्य आलोचना पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ होगा। व्यंग्य के क्षेत्र में आपके अभूतपूर्व योगदान को हमारी समवयस्क एवं आने वाली पीढ़ियां सदैव याद रखेंगी। इस कड़ी में व्यंग्यकार स्व रमेश निशिकर, श्री महेश शुक्ल और श्रीराम आयंगार द्वारा प्रारम्भ की गई ‘व्यंग्यम ‘ पत्रिका को पुनर्जीवन  देने में आपकी सक्रिय भूमिकाअविस्मरणीय है।  

आज प्रस्तुत है व्यंग्य आलोचना विमर्श पर ‘सुनहु रे संतो’ की अगली कड़ी में आलेख ‘व्यंग्य निबंध – ‘व्यंग्य के प्रतिमान और वर्तमान’।  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो # 11 – व्यंग्य निबंध – व्यंग्य के प्रतिमान और वर्तमान ☆ श्री रमेश सैनी ☆ 

[प्रत्येक व्यंग्य रचना में वर्णित विचार व्यंग्यकार के व्यक्तिगत विचार होते हैं।  हमारा प्रबुद्ध  पाठकों से विनम्र अनुरोध है कि वे हिंदी साहित्य में व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए उन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ]

व्यंग्य की जब भी बात होती है. तब स्वभावतः होता है कि कबीर के समय पर चले जाते हैं. कबीर ने अपने समय की विसंगति पाखंड प्रपंच पर कठोरता से प्रहार किया है. उनके शबद, बानी और दोहों ने समाज को जगाने का काम किया. कबीर ने बहुत बेबाकी से अपने समय की बात रखी. उन्होंने धार्मिक अंधविश्वास पाखंड प्रपंच पर तीखे तेवर से बातो को समाज के सामने आगे बढ़ाया.. कबीर के समय में धर्म की सत्ता अधिक प्रभावशाली थी. कबीर कहते हैं

मेरा मन समरई राम को मेरा मन रामाहि आहि

इब  मन रामहि है चला सीस नवाबों काहि

यहाँ पर कबीर ने मनुष्यता को उच्चतर स्तर दिया है. राम को जीवन का पर्याय माना है. कबीर राम और मनुष्य के अंतर को मिटा देते हैं। उनका मानना है रामत्व भरे जीवन से भय, त्रास अभाव दूर रहते हैं. अभिमान लुप्त हो जाता है. तब ऐसी स्थिति में अन्य के आगे शीश नबाने क्या फायदा.

कबीरा खड़ा बाजार में लिए लुकाठी हाथ

जो घर फूकों आपनो चलै हमारे साथ

यह समझने की जरूरत है. यहाँ कबीर साहित्य मनुष्य और मनुष्यता को बड़ा बनाने में प्रयास रत है. उस समय का बाजार अलग था. उस समय के बाजार में सकारात्मक पहलू थे. उस समय के बाजार में सबके लिए विशेष कर किसानों के लिए आर्थिक आधार था. उनका सम्मान था. इस बाजार ने किसानों को स्वायत्तता प्रदान कर मनुष्य और मनुष्यता को आगे बढ़ाया. कबीर का रास्ता वे ही अपना सकते हैं जो अपना सब कुछ त्याग मनुष्यता के पक्ष में खड़े हैं. कबीर के साहित्य ने मानवीय सरोकारों के साथ सामाजिक संवेदनों के महत्व का आकलन कर मनुष्य के प्रतिमान स्थापित किए हैं यह परंपरा कबीर से लेकर भारतेंदु हरिश्चंद्र, बालकृष्ण भट्ट, बालमुकुंद गुप्त से आगे बढ़कर हरिशंकर परसाई और शरद जोशी तक हमें देखने में मिल जाती हैं उसके बाद इसमें ठहराव सा नजर आता है. स्वतंत्रता के बाद परसाई ने सामाजिक सरोकारों, राजनीतिक विसंगति, मानवीय कमजोरियों और प्रवृत्तियों पर तीखे तेवर के साथ बात उठाई है. जिस सत्ता, समुदाय, और व्यक्ति की प्रवृत्तियों पर अपनी कलम चलाई है. वह सत्ता या व्यक्ति तिलमिला उठता है. परसाई पर अनेक प्रकार के दबाव और हमले हुए. पर वे डरे नहीं. अपने उद्देश पर डटे रहे. पुलिस की कार्यप्रणाली और भर्राशाही पर उन्होंने ‘इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर”, ‘भोलाराम  का जीव’ में शासकीय कार्यालयों में व्याप्त अराजकता और भ्रष्टाचार, ‘अकाल उत्सव’ में अकाल के समय पर अफसरों की अफसर शाही और उनके भ्रष्टाचार के नंगेपन को बेदर्दी से उजागर किया है. व्यक्ति की अपने स्वार्थवश फिसलती आस्था पर’ वैष्णव की फिसलन’ मानवीय चरित्र और परिवार की सत्ता पर ‘कंधे श्रवण कुमार के’ माध्यम से मानवीय सरोकारों की बात करते हैं धार्मिक अंधविश्वास और अवसरवाद पर ‘टार्च बेचने वाले’ में व्याप्त प्रपंच को सामने रखते हैं. यहां परसाई का सरोकार समाज, सत्ता में गिरे आचरण पर प्रहार कर व्यंग्य के प्रतिमान को स्थापित करना है. उनके समकालीन शरद जोशी ने शासकीय भर्राशाही ठाकुरसुहाती पर ‘वर्जीनिया वुल्फ से सब डरते हैं’ अफसरों की अवसरवादिता  और भ्रष्टाचार पर वे’ जीप पर सवार इल्लियां’, ‘पुलिया पर बैठा आदमी’ आदि रचनाओं से पाठक और सत्ता को सचेत करते हैं. उनके समकालीन शंकर पुणतांबेकर, अजातशत्रु, लतीफ घोंघी, ज्ञान चतुर्वेदी, प्रेम जनमेजय, हरीश नवल, श्रीराम ठाकुर ‘दादा’, रमेश सैनी आदि की लंबी परंपरा रही है. जिन्होंने व्यक्ति को मानवीय और सामाजिक सरोकारों से जोड़कर वंचितों, शोषितों पीड़ितों के पक्ष में खड़े होकर व्यंग्य के प्रतिमान को स्थापित किया है. इस कारण साहित्य और समाज में व्यंग्य प्रमुखता से उभर कर सामने आया है. आज व्यंग्य अखबार और पत्रकारों की आवश्यकता बन गया है. व्यंग्य संग्रहों का प्रकाशन प्रचुर मात्रा में हो रहा है. ये व्यंग्य के स्थायित्व  के प्रतिमान है जिसके पीछे व्यंग्यकार की निष्पक्षता निर्भरता के साथ जन सरोकारों के साथ खड़ा होना है. पाठक और जन सामान्य को ऐसा महसूस होता है कि यह यह हमारे मन की बात कह रहा है. हमारी आवाज को उठा रहा है. यह सत्ता की शक्ति के साथ नहीं शोषितों के साथ दिख रहा है. इसके पीछे पूर्व के व्यंग्यकारों द्वारा ईमानदारी से किए गए लेखकीय उपक्रम है जिस पर पाठक का विश्वास जगा है

जब हम वर्तमान समय को देखते हैं तो निराशा होती है. व्यंग्य का पाठक पर प्रभाव को देखते हुए अखबार और पत्रिका में स्पेस तो दे रहे हैं. पर उसको बौना बना दिया है. सीमित संख्या म़े सिकोड़कर रख दिया है. व्यंग्यकार देखने दिखाने और छपने के लालच में उसी ढर्रे पर चल निकला है वह अपनी बात को सीमित शब्दों में कहने का प्रयास कर रहा है. जिस कारण बात का संक्षिप्तीकरण होकर संकेतों में सीमित हो जाता है. कभी-कभी पाठक संकेतों को पूरी तरह से आत्मसात नहीं कर पाता है. सीमितता के चलते सभी व्यंग्य  अपने उद्देश्य में पूरी तरह खुल नहीं पाते हैं, या फिसल जाते हैं. फिर वर्तमान समय में कुछ ऐसी रचनाएं आ रही हैं. जो अपने समय की विसंगतियों, कमजोरियों को उजागर करती हैं. आज साहित्य का पूरा परिदृश्य बदल गया है. इसका पूरा प्रभाव व्यंग्य पर भी पड़ा है. आज लेखक, मीडियाकर, पत्रकार नफा नुकसान के गणित के साथ आगे बढ़ रहे हैं. सत्ता की कमजोरियों को छुपा कर उसे बचाकर चलने लगे हैं. इस कारण समाज में व्याप्त समस्याओं और प्रवृत्तियों का सच सामने नहीं आ रहा है. सत्ता भी अपने उपकरणों का उपयोग ऐन केन प्रकारेण सच को छुपाने में ही प्रयास करती है आज का व्यंग्यकार रिस्क नहीं लेना चाहता है. वरन सत्ता से लाभ लेने हेतु उसके साथ देखने का कोई भी अवसर नहीं छोड़ता है. इसकी परिणति यह है कि वह अपने मानवीय सरोकारों से हटकर गैरजरूरी विषयों पर घूम गया है. आज अनेक व्यंग्यकार स्वयं  यह सवाल उठाने लगे हैं कि सत्ता का विरोध क्यों? जबकि व्यंग्य  का उद्देश्य सत्ता का विरोध करना होता है. पर वह सत्ता घर में पिता की, ऑफिस में बॉस  की, या वे सभी प्रकार की सत्ता जो जबरन अपने विचार और प्रभाव को थोपना या मनवाना चाहती हैं. अधिकांश सत्ता का अर्थ है राजनीति से लेते हैं और वैचारिक प्रतिबद्धता के चलते उस सत्ता का विरोध नहीं कर पाते. जबकि वहां पर बड़े-बड़े ब्लैक होल्स है. यह साहित्य और व्यंग्य की बहुत बड़ी विडंबना है जो अपने सच को उजागर करने में अक्षम है. फिर भी  वर्तमान पूरी तरह धुंधला नहीं है. यहां भी दिए की रोशनी है जो सच का रास्ता दिखाने में सक्षम है. इन सब चीजों का आकलन विगत कारोना काल में आ रही रचनाओं से भली-भांति कर सकते हैं. इस समय हमें दोनों प्रकार के दृश्य देखने को मिल गए. शायद यही प्रकृति का चलन है।

© श्री रमेश सैनी 

सम्पर्क  : 245/ए, एफ.सी.आई. लाइन, त्रिमूर्ति नगर, दमोह नाका, जबलपुर, मध्य प्रदेश – 482 002

मोबा. 8319856044  9825866402

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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