श्री रमेश सैनी
(हम सुप्रसिद्ध वरिष्ठ व्यंग्यकार, आलोचक व कहानीकार श्री रमेश सैनी जी के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने व्यंग्य पर आधारित नियमित साप्ताहिक स्तम्भ के हमारे अनुग्रह को स्वीकार किया। किसी भी पत्र/पत्रिका में ‘सुनहु रे संतो’ संभवतः प्रथम व्यंग्य आलोचना पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ होगा। व्यंग्य के क्षेत्र में आपके अभूतपूर्व योगदान को हमारी समवयस्क एवं आने वाली पीढ़ियां सदैव याद रखेंगी। इस कड़ी में व्यंग्यकार स्व रमेश निशिकर, श्री महेश शुक्ल और श्रीराम आयंगार द्वारा प्रारम्भ की गई ‘व्यंग्यम ‘ पत्रिका को पुनर्जीवन देने में आपकी सक्रिय भूमिकाअविस्मरणीय है।
आज प्रस्तुत है व्यंग्य आलोचना विमर्श पर ‘सुनहु रे संतो’ की अगली कड़ी में आलेख ‘व्यंग्य निबंध – ‘व्यंग्य में हास्य की उपस्थिति होने से उसकी सम्प्रेषणीयता बढ़ जाती है पर प्रहारक क्षमता कमजोर हो जाती है.’।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो # 12 – व्यंग्य निबंध – व्यंग्य में हास्य की उपस्थिति होने से उसकी सम्प्रेषणीयता बढ़ जाती है पर प्रहारक क्षमता कमजोर हो जाती है. ☆ श्री रमेश सैनी ☆
[प्रत्येक व्यंग्य रचना में वर्णित विचार व्यंग्यकार के व्यक्तिगत विचार होते हैं। हमारा प्रबुद्ध पाठकों से विनम्र अनुरोध है कि वे हिंदी साहित्य में व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए उन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ]
व्यंग्य एक गंभीर विधा है. जो समाज, व्यक्ति के सरोकारों, मानवीय संवेदनाओं के साथ आगे बढ़ती हैं. जिसमें जीवन और समाज में व्याप्त सारी विसंगतियों पर अपनी बात करती है. जिससे व्यक्ति समाज,या शासन का का वह तबका जिसके कारण व्यक्ति समाज प्रभावित है वह सोचने को मजबूर ह़ो जाता है. व्यंग्य वह शक्ति निहित है कि शोषक तंत्र के माथे पर चिंता की रेखाएं खिच जाती है.. तब यह गंभीर चिंतनीय विचारणीय हो जाता है. इस स्थिति में हमारे पास वह अस्त्र होना चाहिए. जिससे सामने वाले पर तीखा प्रहार पड़े. उन अस्त्रों में हमारे पास शब्द हैं. शैली हैं. विचार हैं. इन अस्त्रों के उपयोग से ही हम सार्थक ढ़ंग से सामने वाले के पास अपनी बात पहुँचाने में सक्षम होंगे. अन्यथा अगर किसी एक टूल में कमजोर हो जाएंगे. तब इस स्थिति में हमारी विसंगति, सोच का असरहीन होने की पूरी संभावना है.इससे हमारे प्रयास और उद्देश्य विफल हो जाएंगे.यह विफलता शोषण और शोषक को शक्ति प्रदान करेगी।यह अराजकता धीरे धीरे समाज में बड़ी समस्या बन सामने आ सकती है. समस्या का विकराल में परिवर्तित होने पर समाज और व्यक्ति का बहुत बड़ा नुकसान होने की पूरी की पूरी संभावना है.इस स्थिति में हमें सिर्फ पश्चताने के सिवा कुछ हाथ नहीं आना है. सभी सभ्य समाज, व्यक्ति शासन, या सत्ता सदा सजग जिम्मेदार चिंतक, विचारक, लेखक कला साधक समाज सुधारक, समाज सुधारक संस्था की ओर आशा की नज़र से देखता है. इस समय लेखक कवि, और कलाकार का दायित्व बढ़ जाता है कि वह गंभीरता से उस विसंगति, कमजोरी, पर विचार करे. अपने पूरे टूल्स के साथ के उन कमजोरियों के समाज और सत्ता के सामने लाए. या उन विसंगतियों का संकेत करे. जिससे पीड़ित, शोषित वर्ग उन विसंगतियों के प्रति सजग सतर्क हो सके. यह काम सिर्फ और सिर्फ गंभीर प्रवृत्ति वाले लोग ही अच्छे ढ़ंग से कर सकते हैं. जिससे बेहतर समाज, बेहतर मनुष्य को बनाने की संकल्पना कर सकते हैं. यह कार्य हास्य की उपस्थित में पूरी क्षमता के साथ संभव नहीं है. गंभीरता में हमारी क्षमताओं का घनत्व बढ़ जाता है. जिससे हमारी सोच और बात की संप्रेषणीयता को विस्तार मिलता है. तब इससे इसकी पठनीयता बढ़ जाती है. संप्रेषणीयता और पठनीयता के तत्वों के कारण हमारे उद्देश्य की सफलता के अवसर बढ़ जाते हैं.हास्य रचनाओं में तरलता प्रदान करता है. जिससे रचनाओं का उद्देश्य कमजोर हो जाता है. किसी कमजोर चीज या शक्ति का प्रभावहीन होना बहुत साधारण सी बात है. तब हमारा उद्देश्य पीछे ह़ो जाता है. हमारा यह श्रम और प्रयास विफल हो जाता है. गंभीर से गंभीर रचना अपने सरोकार और संवेदनशीलताको लेकर अपनी बात समाज के सामने आती है.उसका प्रभाव सकारात्मक लिए होता है. यदि उसमें हास्य का मिश्रण कर दें. तब उसकी संप्रेषणीयता और पठनीयता तो बढ़ जाएगी. तब लोग उसको हास्य में ले लेंगे.और उसॆ हास्य में उड़ा देंगे. इस स्थिति में हमारा को उद्देश्य हास्यास्पद होने की संभावना बढ़ जाती है. यह विकट स्थिति है. इससे बचना चाहिए. हरिशंकर परसाई जी सदा विसंगतियों पर बहुत गंभीरता से लिखा. चाहे इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर,अकाल उत्सव, वैष्णव की फिसलन, पवित्रता का दौरा,आदि अनेक रचनाएं अपने गंभीर उद्देश्य को लेकर चलती है.. उनकी रचनाओं में हास्य के छीटे जरूर आते हैं पर व्यंग्य और विषय की गंभीरता को कम नहीं करते हैं. इस पर परसाई जी का कहना है कि “हास्य लिखना मेरा यथेष्ट नहीं है यदि स्वाभाविक रूप से हास्य आ जाए तो मुझे गुरेज भी नहीं है.” यहां पर परसाई जी ने हास्य को प्राथमिकता नहीं दी है. वरन वे अपनी बात को गंभीरता से क ने विश्वास करते हैं. उनकी चर्चित रचन ‘इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर ‘ का संवाद हैं
एक इंस्पेक्टर ने कहा – हाँ मारने वाले तो भाग गए थे. मृतक सड़क पर बेहोश पड़ा था. एक भला आदमी वहाँ रहता है. उसने उठाकर अस्पताल भेजा. उस भले आदमी के कपड़ों पर खून के दाग लग गए हैं.
मातादीन ने कहा- उसे फौरन गिरफ्तार करो
कोतवाल ने कहा – “मगर उसने तो मरते हुए आदमी की मदद की थी “
मातादीन ने कहा – वह सब ठीक है. पर तुम खून के दाग ढूंढने कहाँ जाओगे जो एविडेंस मिल रहा है. उसे तो कब्जे में करो. वह भला आदमी पकड़कर बुलवा लिया गया.
उसने कहा- “मैंने तो मरते आदमी को अस्पताल भिजवाया था. मेरा क्या कसूर है?
चाँद की पुलिस उसकी बात से एकदम प्रभावित हुई. मातादीन प्रभावित नहीं हुए. सारा पुलिस महकमा उत्सुक था। अब मातादीन क्या तर्क निकालते हैं।
मातादीन ने उससे कहा- पर तुम झगड़े की जगह गए क्यों? उसने जवाब दिया -“मैं झगड़े की जगह नहीं गया. मेरा वहां मकान है. झगड़ा मेरे मकान के सामने हुआ.
अब फिर मातादीन की प्रतिभा की परीक्षा थी. सारा महकमा उत्सुक देख रहा था.
मातादीन ने कहा- “मकान है, तो ठीक है. पर मैं पूछता हूं कि झगड़े की जगह जाना ही क्यों?” इस तर्क का कोई जवाब नहीं था. वह बार-बार कहता मैं झगड़े की जगह नहीं गया. मेरा वहां मकान है. मातादीन उसे जवाब देते – ‘तो ठीक है, पर झगड़े की जगह जाना ही क्यों ? इस तर्क प्रणाली से पुलिस के लोग बहुत प्रभावित हुए.
संवाद हमें ह़ँसने के लिए विवश अवश्य करता है. व्यंग्य के उद्देश्य कहीं भी तरल या कमजोर नहीं करता है. यहाँ हास्य हैं पर रचना की गंभीरता पर कोई असर नहीं पड़ता है. परसाई जी सदा इन विशेषता के आज भी याद आते हैं. उन्होंने अपने व्यंंग्य में टूल्स का समानुपातिक मात्रा में प्रभावी ढ़ंग से लिखा. यहां पर उनके समकालीन लेखक के पी सक्सेना जी का अवश्य ही उल्लेख करना चाहूंगा. उन्होंने विपुल मात्रा में लिखा। पर उनकी रचनाएं हमें समरण नहीं है. उनकी रचनाओं में पठनीयता थी लोगों को बहुत पसंद आती थी. वे मंच पर बहुत सराहे जाते थे. पर हास्यपरक होने के उन पर आरोप लगते रहे. उन्हें भी जीवन भर यह मलाल रहा कि मेरी रचनाओं में व्यंंग्य हैं परंतु यह स्वीकारते नहीं. इसके पार्श्व में मूल कारण यही था कि उनकी रचनाओं में हास्य व्यंंग्य की गंभीरता को तरल कर देते थे. जिससे व्यंग्य प्रभावहीन होकर अपने उद्देश्य में विफल हो जाता था. जब व्यंंग्य अपने सरोकारों और मानवीय संवेदना से छिटककर सामने आता है. तब प्राणहीन प्रस्तर प्रतिमा के समान दिखती है.उसका आकर्षण तो होता है, पर जीवंतता गायब रहती है.यही व्यंंग्य की गंभीर रचना में हास्य दुष्प्रभाव है.
© श्री रमेश सैनी
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