श्री शांतिलाल जैन
(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी के स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल में आज प्रस्तुत है उनका एक विचारणीय व्यंग्य “पाठकों से भी पल्ला झाड़ लेने का दौर”।)
☆ शेष कुशल # 33 ☆
☆ व्यंग्य – “पाठकों से भी पल्ला झाड़ लेने का दौर” – शांतिलाल जैन ☆
प्रिय पाठक,
कृपया इस लेख को सावधानी से पढ़ें. हँसते हँसते आपके पेट में दर्द हो सकता है; जोर से हँसते-हँसते आपको दिल का दौरा भी पड़ सकता है, आप परलोक भी सिधार सकते हैं; संपादक इसके लिए उत्तरदायी नहीं होंगे. ये भी हो सकता है कि लेख पढ़कर आप अपना सिर किसी दीवार से फोड़ लें; आप अपनी रिस्क पर पढ़ें; संपादक एवं प्रकाशक इसके लिए उत्तरदायी नहीं होंगे. गोया पठन-पाठन नहीं हुआ धूम्रपान हो गया, सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है. मुद्रित शब्द आपके वैचारिक और भावनात्मक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकते हैं.
पाठकों के लिए जारी की जानेवाली चेतावनियाँ अब फेंटेसी नहीं है, यथार्थ है. पिछले दिनों मैंने एक अंग्रेजी अखबार में पढ़ा कि अर्नेस्ट हेमिंग्वे के उपन्यासों और लघु कथाओं के ताज़ा संस्करणों को प्रकाशकों द्वारा इस चेतावनी के साथ पुनः प्रकाशित किया गया है कि रचना की भाषा, लेखकीय दृष्टिकोण और उसका सांस्कृतिक प्रतिनिधित्व कुछ पाठकों को अप्रिय लग सकता है; प्रकाशक इसके लिए उत्तरदायी नहीं होंगे. ‘ये लेखक के निजी विचार हैं’ – लेखकों की ओर से पल्ला पहले ही झाड़ चुके संपादक अब पाठकों के प्रति जवाबदेही से भी दूर जा रहे हैं. जो इन दिनों प्रकशित की जाती महाकवि कालिदास की ‘कुमारसंभव’ तो पहले पन्ने पर छपा होता – रचना पढ़ते समय पाठक खतरनाक ढंग से रोमांटिक हो सकता है. विक्रमादित्य प्रकाशन प्रायवेट लिमिटेड, उज्जयिनी इसके लिए उत्तरदायी नहीं होंगे.
निज़ाम नया, दौर नया. सिनेमा भी आप अपनी रिस्क पर देखें, देशभक्ति के जोश में पासवाली कुर्सी का दर्शक आपकी धुनाई भी कर सकता है. निर्माता, निर्देशक इसके लिए उत्तरदायी नहीं होंगे. कौन जाने फ्रेज़ाईल आस्थाएँ लिए घूमनेवाले भियाजी का फेंस क्लब आपका सिर इसी बात पर फोड़ दे सकता है कि आप अमुक लेख पढ़ ही क्यों रहे थे. रचना न हुई साहित्य की सवारी-मोटर हो गई, ‘यात्री अपनी जान और सामान की रक्षा स्वयं करें’. आप ई-बुक में फिट कैमरे की नज़र में हैं, पढ़ते-पढ़ते बाल नोंच ले सकते हैं. प्रकाशक इसकी सामग्री का समर्थन नहीं करते हैं. पढ़ते हुए आप अपने ही कपड़े फाड़ कर चौराहे की ओर दौड़ लगा सकते हैं, संपादक इसके लिए उत्तरदायी नहीं है. हर लेख, हर रचना अब एक ईंट है, एक पत्थर जो पाठकों की भीड़ पर उछाल दिया गया है – बचना पढ़नेवाली की जिम्मेदारी है.
‘हनुमान चालीसा’ में व्यक्त उद्गार गोस्वामी तुलसीदास के अपने निजी हैं’ प्रकाशक का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है. ‘जो घर फूंके आपना चले हमारे साथ’ कबीर का अपना निजी विचार है. कोई पाठक अपना घर फूँक ही ले तो प्रकाशक उत्तरदायी नहीं होंगे. संपादक ने नौकरी अपना घर चलाने के लिए की है श्रीमान, घर फुँकवाने के लिए नहीं. ‘अभिव्यक्ति के खतरे’ उठाने को वे भी तैयार नहीं हैं जो मुक्तिबोध पर पीएचडी करके प्रोफेसरगिरी कर रहे हैं, संपादक के तौर पर तो बिल्कुल भी नहीं. डिसक्लेमर लगाओ और चैन की नींद पाओ. लेखक जाने और उसका काम जाने, अपन की कोई जवाबदारी नहीं. सत्यता और सटीकता के प्रति भी नहीं. ‘हम लेख में दिए गए तथ्यों की पुष्टि नहीं करते’ – आज्ञा से संपादक. उसकी साहित्यिक, वैचारिक, और तो और पत्रकारितावाली समझ भी नेपथ्य में चली गई है. पूरा टैलेंट स्किन बचाने की कवायद में चुक जाता है. वैचारिकी की स्वतंत्रता, उन्मुक्त, भयमुक्त संपादन और फक्कड़, फ़कीरी, अलमस्त, बेफ्रिक लेखन का दौर अब का दौर समाप्त हो गया है.
अगला डिस्क्लेमर ये श्रीमान कि पुस्तक की समीक्षा प्रायोजित है और किताब की बिक्री बढ़ाने के हेतु से लिखी गई है. संपादक तो क्या खुद समीक्षक का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.
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© शांतिलाल जैन
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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈