श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक अप्रतिम और विचारणीय व्यंग्य  मोमबत्ती से मोमबत्ती का संवाद…” ।)

☆ शेष कुशल # 44 ☆

☆ व्यंग्य – “मोमबत्ती से मोमबत्ती का संवाद…” – शांतिलाल जैन 

सड़क पर निकले एक केंडल मार्च में कुछ देर पहले ही जलाई गई एक मोमबत्ती ने दूसरी से कहा – “थोड़ी-थोड़ी बची रहना.”

“वो किसलिए?” – जलती पिघलती मोमबत्ती ने प्रतिप्रश्न किया.

“ये आखिरी रेप नहीं है बहन, न ही आखिरी मार्च. जो मार डाली गई है वो आखिरी स्त्री नहीं है. आगे भी जलना है, जलते जलते सड़कों पर निकलना है. हमें लेकर निकलनेवाले हाथ बदल जाएँगे मगर जलनेवाला हमारा नसीब और रौंद दी जानेवाली स्त्री की नियति बदलनेवाली नहीं है.”

“डोंट वरी, हमें दोबारा तुरंत निकलने की नौबत नहीं आएगी. ये सदमे,  ये संवेदनाएँ,  ये आक्रोश,  ये बहस मुबाहिसे,  ये प्रदर्शन,  ये मेरा-तुम्हारा जलना, जलते हुए सड़कों पर निकलना तब तक ही है जब तक अभया खबरों में है. मिडिया में हेडलाईन जिस दिन बदली उस दिन मोमबत्तियाँ और मुद्दे दोनों किसी कोने-कुचाले में पटक दिए जाएँगे. हादसे उसके बाद भी रोज़ ही होंगे मगर जब तक न पड़े मेन स्ट्रीम मीडिया की नज़र धरना-प्रदर्शन अधूरा रहता है. तब वो लोग निकलेंगे जो उस समय विपक्ष में होंगे, वे ही मार्च करेंगे. स्त्री के पक्ष में सत्ता का प्रतिपक्ष ही क्यों खड़ा होता है हर बार ?” 

“सत्ता तक पहुँचने का रास्ता उसे प्रदर्शन की केंडल-लाईट में एकदम क्लियर दिखाई पड़ता है. शहर मेट्रोपॉलिटन हो, मुख्यधारा के मिडिया की उपस्थिति सुलभ हो और रेप हो जाए, बांछें खिल आती है प्रतिपक्ष की. उसे अपने तले का अँधेरा दिखलाई नहीं पड़ता. बहरहाल, जितना कवरेज उतना जोश. हमने जलने से कभी मना नहीं किया मगर दूर गाँव में,  झुग्गी बस्ती में,  ऑनर किलिंग में,  दलित स्त्री, छोटी बच्ची के लिए कब वे सड़कों पर उतरे हैं ?  अंकल, कज़िन,  पड़ोसी के विरूद्ध कौन उतर पाता है सड़कों पर. पुलिस के रोजनामचे में स्त्री, बच्चों के विरूद्ध सौ से ज्यादा यौन अपराध हर दिन दर्ज होते हैं. रोज़ाना कौन निकलता है सड़कों पर ? एक राह चलती अनाम-अदृश स्त्री के मारे जाने पर हम नहीं निकले हैं,  मज़बूत इरादों वाली सशक्त डॉक्टर स्त्री के लिए निकले हैं. वो भीड़ भरे अस्पताल के अन्दर निपट अकेली पड़ गई थी.” 

“गरिमा और जान दोनों से हाथ धोना पड़ा है उसे. छत्तीस घंटे काम करने के बाद ऐसी दो गज जमीन उसके पास नहीं थी जहाँ वह महफूज़ महसूस करती हुई आराम कर पाती. उस रात वो पूज्यंते नहीं थी इसीलिए देवता भी कहीं और रमंते रहे. सवेरे फिर तीमारदारी में जुटना था मगर वो सवेरा आया ही नहीं. सुलभ ऑन-कॉल रूम की कमी ने अभया की जान ली है.” 

“एक बार अस्पताल की लाईट जाने पर वहाँ ऑपरेशन तुम्हारी रोशनी में करना पड़ा था. तुमने तो देखा है अन्दर का मंज़र. क्या देखा तुमने बहन ?”

“जितनी जगह में एक ऑन-कॉल रूम बनता है उतनी जगह में तो एक ट्विन शेयरिंग वाला प्रायवेट वार्ड निकल आता है. करोड़ों के इन्वेस्टमेंट से बने हॉस्पिटल में महिलाकर्मी की आबरू और जान की क्या कीमत है!! सरकारी अस्पताल तो और भी भीड़ भरे, मरीज के लिए ठीक से बेड मयस्सर नहीं स्टाफ की कौन कहे. दड़बेनुमा नर्सिंग स्टेशन में सिकुड़कर सोई रहती हैं सुदूर केरल से आईं चेचियाँ. साफ शौचालय और चेंजिंग रूम किस चिड़िया का नाम है ? अभया डॉक्टर थी,  मेट्रो के सरकारी अस्पताल में थी,  मिडिया की नज़र पड़ गई तो मार्च निकाल लिया गया है. सफाईकर्मी,  आया,  दाई,  मेनियल वुमन स्टाफ के बारे तो न कोई सोचता है न उनके प्रति अपराध रिपोर्ट ही हो पाते हैं.”

“जानती हो बहन – हम जल तो सकती हैं चल नहीं सकती. जब तक जलाकर ले जाते हैं देर हो जाती है.”

“कभी कभी इतनी देर भी कि एक स्त्री बेंडिट क्वीन बन जाती है. वो मोमबत्ती जलाकर निकलनेवालों का इंतज़ार नहीं करती, मशाल फूंकती है और पूरा गाँव जलाकर खाक कर देती है, बहरहाल..”

“अभया की उम्र तीस-इकत्तीस रही होगी ?”

“रेपिस्ट उम्र-निरपेक्ष होते हैं,  वे तीन साल की लड़की से भी उतनी ही     नृशंसता से पेश आते हैं जितनी कि सत्तर साल की प्रौढ़ा से. अपराधबोध नहीं होता उन्हें. वे संसद में भी मर्दानगी का वही तमगा सीने पर लगाए विराजते हैं जिसे लगाए हुए गली-कूचे से गुजरते हैं.” 

प्रदर्शनकारी गंतव्य तक पहुँच गए थे, मंजिल न मिलना थी, न मिली. मोमबत्तियाँ जल कर पूरी तरह पिघल जाने के कगार पर थीं. पहली ने कहा – “चाहकर भी अगले जुलूस तक के लिए बच नहीं पाए हम, तब भी कोई गम नहीं, एक नोबल कॉज़ के लिए जलकर मरे हैं.” 

“अपनी अगली पीढ़ी को कहूँगी मैं – तैयार रहना, आर्यावर्त की सड़कों पर निकलनेवाले ऐसे मार्च अभी ख़त्म नहीं होनेवाले, अलविदा”, दम तोड़तीं मोमबत्तियाँ वहीं प्रस्थान कर गईं हैं जहाँ अभया चली गई है. 

-x-x-x-

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments