श्री शांतिलाल जैन
(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी के स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल में आज प्रस्तुत है उनका एक अप्रतिम और विचारणीय व्यंग्य “पूंजी, सत्ता, और बाज़ार का प्रॉडक्ट है लिट्फेस्ट…” ।)
☆ शेष कुशल # 47 ☆
☆ व्यंग्य – “पूंजी, सत्ता, और बाज़ार का प्रॉडक्ट है लिट्फेस्ट…” – शांतिलाल जैन ☆
‘मैं लिट्फेस्ट में गया था, वहाँ…..’ पिछले दस दिनों में दादू कम से कम दो सौ बार बता चुका है. सौ पचास बार तो मेरे सामने ही बता चुका है. साथ में तो मैं भी गया था. हर बार बताते समय उसका सीना छप्पन इंच से कुछ ही सेंटीमीटर कम फूला हुआ होता है. आमंत्रित रचनाकारों में दादू की वाईफ़ के मौसाजी के कज़िन भी थे जो सुदूर लखनऊ से आए थे. उत्सव की साईडलाईंस में हम उनसे मिलने और मौसी के लिए लौंग की सेव, घर की बनी मठरी, ठण्ड के करंट लड्डू और नींबू के आचार की बरनी देने गए थे. दादू को सपत्नीक जाना था मगर एनवक्त पर भाभीजी को माईग्रेन हो गया. वह मुझे साथ ले गया. वह राजनीति का मंजा हुआ ख़िलाड़ी है, मजबूरी में किए गए काम का भी क्रेडिट लेने और गर्व अभिव्यक्त करने के अवसर में बदल सकता है. ‘स्तरीय अभिरुचि’ और ‘साहित्य की श्रीवृद्धि में अकिंचन योगदान’ जैसे भावों से भरा दादू घूम घूम कर सबको बता रहा है ‘मैं लिट्फेस्ट में गया था, वहाँ…..’.
लिट्फेस्ट में कुछ लोग इंट्री फीस के साथ आए थे कुछ डोनेशन से मिलनेवाले वीआईपी ‘पास’ से. दादू ने इंट्री के लिए जुगाड़ से वीआईपी ‘पास’ का इंतज़ाम किया हुआ था. इंट्री सशुल्क रही हो या निःशुल्क, कुछ लोग अपने पसंदीदा लेखकों को सुनने, पुस्तकों पर हस्ताक्षर करवाने आए थे, शेष तो बस तफ़रीह को. रचनाकारों के हाथों में लगभग बिना ढक्कन का पेन होता था जो लिखने के काम आता तो नहीं दिखा, किताब पर हस्ताक्षर करने के काम अवश्य आ रहा था, उसी से उन्होंने रसीदी-टिकट पर दस्तख़त करने जैसा महत्पूर्ण कार्य संपन्न किया. आईएफएससी कोड, अकाउंट नंबर, बैंक डिटेल्स वे घर से लिखकर लाए थे. पेन उपकरण तो सरस्वतीजी का था मगर अपने स्वामी लेखक को लक्ष्मीजी तक पहुँचाने में उसकी महती भूमिका थी.
बहरहाल, वहाँ चार से छह सत्र एक साथ चल रहे थे. मेरी-गो राऊंड. इधर से घुसकर उधर निकल जाईए, उधर से घुसकर और उधर, उधर से और भी उधर, उधरतम स्तर पर पहुंचकर फिर इधर आ जाईए. दुनिया गोल है. सचमुच. सत्र होरीझोंटल ही नहीं वर्टिकल भी चल रहे थे. बैक-टू-बैक सत्र की खूबसूरती यह थी कि दर्शकों को एक ही लेखक को बहुत देर तक झेलना नहीं पड़ रहा था. अगले टाईम स्लॉट की मॉडरेटर अपने उतावले पेनल के साथ पास ही तैयार खड़ी थी. उसने आज ही अपने हेयर्स स्ट्रेट करवाए थे. उन्हें संभालते-संभालते वह शी…शी… की छोटी छोटी ध्वनियों से स्टेज जल्दी खाली करने के संकेत प्रेषित कर रही थी. यूं तो लेखक संकेत-इम्यून होता है, उसे पीछे से कुर्ता-खींच कर दिए गए संदेशों से निपटने का उसे पर्याप्त अनुभव होता है, मगर यहाँ उसे अगलीबार नाम कट जाने का डर का सता रहा था सो मन मारकर बैठ गया.
लिट्फेस्ट एक अलग तरह का अनुभव था. आप जितना आश्चर्य इस बात पर करते हैं कि आप कहाँ आ गए हैं उससे ज्यादा आश्चर्य इस बात पर होता है कि साहित्य कहाँ आ पहुँचा है! कुछ समय पहले के रचनाकारों ने कथा कविता को आमजन की चौक-चौपालों से उठाकर साहित्यिक संगोष्ठियों में पहुँचाया, वहाँ से प्रायोजकों की बैसाखियों पर चलकर लिटरेचर फेस्टिवल में आ पहुँचा है. सितारा होटलों, वातानुकूलित प्रेक्षागृहों, लकदक सजावट से घिरे अंतरंग कक्षों, रंगीन पर्दों से सजे बहिरंगों में गाँव की, मजदूर की, गरीब की कथा-कविता तो मिली, किसान, मजदूर या गरीब कहीं नहीं दिखा. कथा-कविता में खेत में बहते पसीने की गंध सुनाई दी, मगर उसने नाक में घुसकर हमारा मूड ख़राब नहीं किया. हैवी रूम-फ्रेशनर जो मार दिया गया था, हमने इत्मीनान से गहरी सांसें खींची. आप भी जा सकते हैं वहाँ. इयर-ड्रम्स के चोटिल होने का भी कोई ख़तरा नहीं. अहो-अहो और वाह-वाह के नक्कारखाने में प्रतिरोध की तूती सुनाई नहीं देगी. कुछ आमंत्रित लेखक बुलाए जाने पर सीना फुलाए फुलाए घूम रहे थे. कुछ जाऊँ, न जाऊँ की उहापोह में रहे होंगे, अब जब आ ही गए थे तो कह रहे थे – ‘कोई सुने न सुने तूती बोल तो रही है.’ सफाई भी, जस्टिफाई भी. यही क्या कम है कि निज़ाम ने अभी तक तूती की वोकल कार्ड को मसक नहीं दिया है. खैर, आयोजकों ने भी फेस सेविंग का पूरा इंतज़ाम किया हुआ था, चार अनुकूल रचनाकारों के पैनल में एक विपरीत विचार का रखकर बेलेंसिंग की गई थी. शहरी कुलीनताओं और एलिट अंग्रेज़ी साहित्य के सत्रों के बीच हर दिन एक दो सत्र हिंदी के और हिंद के शोषितों पर केंद्रित कर के भी रखे गए थे.
बहरहाल, अगर आप लिट्फेस्ट में बतौर श्रोता पहलीबार जा रहे हैं तो कुछ मशविरा आपके लिए.
एक तो अपनी पसंद के लेखक को ब्रोशर पर छपे फोटो या उनकी किताब के पीछे छपे फोटो से मिलान करके ढूँढने की गलती मत कीजिएगा. फोटो में वे एम एस धोनी जैसे बालों में हो सकते हैं और हकीकत में गंजे. हमें भी मौसाजी के कज़िन को ढूँढने में परेशानी हुई. फोटो उन्होंने अपनी जवानी का अवेलेबल कराया रहा होगा या शी-कलीग्स की पसंद का. जैसे वे ब्रोशर में थे सच में नहीं, जैसे सच में थे पोस्टर पर नहीं. मिलान करने के लिए आप चैट जीपीटी या डीपसीक की मदद ले सकते हैं. तब तक ऐसा करें कि थोड़े से खाली खाली खड़े लेखक के साथ सेल्फी लेते चलिए और वाट्सअप स्टेटस पर डालते चलिए. रील भी बना सकते हैं. अगर आप किसी लेखिका के संग सेल्फी लेना चाहते हैं तो अलर्ट रहिए और सत्र समाप्ति के दो तीन मिनिट में ही ले लीजिए, उसे मृगनयनी शो रूम से साड़ी खरीदने के लिए भागने की जल्दी जो होगी.
दूसरे, अपने रिश्तेदार से मिलने आप लंच टाईम के आसपास मत जाईएगा. बाउंसर आपको भोजन के तम्बू में बिना ‘पास’ के घुसने नहीं देगा और आपके मेहमान गुलाबजामुन की सातवीं किश्त का लुत्फ़ लिए बगैर बाहर आएँगे नहीं. साहित्य आपके ऑफिस की आधे दिन की सेलेरी कटवा देगा.
वैसे तो इन दिनों सनातन के बिना विमर्श के आयोजन पूरे होते नहीं, सो बजरिए मानस रामचर्चा का सत्र भी रखा गया है. लेकिन अगर आप महज़ मज़े के लिए जाना चाहते हैं तो शाम के सत्रों में पहुँचिएगा. सुबह गंभीर लेखकों से चलकर शाम होते होते विमर्श बॉलीवुड, ओटीटी, पॉपुलर बैंड, मंचीय कविता और स्टेंड-अप कॉमेडी के सेलेब्रिटीज तक पहुँच चुका होगा. मनोरंजन का नया डेस्टिनेशन! लिट्फेस्ट. अगर आप मक्सी, देवास, हरदा, इटारसी या बाबई में रहते हैं तो लिट्फेस्ट तो आप अपने शहर में एन्जॉय नहीं कर पाएँगे. इन शहरों में ये तब तक नहीं आएगा जब तक यहाँ साहित्य का बाज़ार विकसित नहीं हो जाता. लिटरेचर टूरिज्म बाज़ार का नया फंडा है. आप अपने हॉली-डेज जयपुर लखनऊ, भोपाल, दिल्ली, कलकत्ता, चेन्नाई, कोझिकोड के लिए प्लान कर सकते हैं. पूंजी, सत्ता, और बाज़ार का प्रॉडक्ट हैं लिट्फेस्ट. मीडिया मुग़ल, कारोबारी या अफसर उठता है और लिट्फेस्ट नामक जलसा आयोजित कर डालता है. जाने भी दो यारों, एन्जॉय दी फेस्ट.
और हाँ एक झोला लेते हुए जाईएगा. लौटते में आपके हाथों में कुछ पुस्तकें होंगी. कुछ भेंट में, मिलेंगी. कुछ आप उम्दा पसंदगी की नुमाईश करने के प्रयोजन से खरीदेंगे ही. दादू ने तो किताबों के साथ फोटो लेकर प्रोफाइल और स्टेटस पर लगा दी है. आप भी शान से कह पाएँगे – ‘मैं लिट्फेस्ट में गया था, वहाँ…..’
और हाँ, कहते समय शर्ट का ध्यान रखें, सीना फूल जाने से बटन टूट जाने का खतरा रहता है.
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© शांतिलाल जैन
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