श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक अप्रतिम और विचारणीय व्यंग्य  ब्लर्बसाज़ों को चिंतिंत करती एक ख़बर…” ।)

☆ शेष कुशल # 49 ☆

☆ व्यंग्य – “ब्लर्बसाज़ों को चिंतिंत करती एक ख़बर…” – शांतिलाल जैन 

वे एक नामचीन ब्लर्बसाज़ हैं. इन दिनों कुछ डिस्टर्ब चल रहे हैं. जिस खबर से वे सशंकित हैं उसे बताने से पहले हम आपको उनके बारे में थोड़ा सा विस्तार से बताना चाहते हैं.

कभी वे हिंदी के नामचीन लेखक रहे हैं मगर इन दिनों वे सिर्फ नई किताबों के ब्लर्ब भर लिखते हैं. प्रति सप्ताह औसतन दो से तीन ब्लर्ब तो लिख ही मारते हैं. प्रकाशकों के स्टाल पर सजी हुई हर तीसरी किताब का ब्लर्ब आपको उन्ही का लिखा मिलेगा. जिसका कोई नहीं उसका तो खुदा है यारों. जिस लेखक को कोई ब्लर्ब लेखक नहीं मिलता उनके लिए वे भगवान हैं.  ब्लर्बसाज़ी एक नशा है और वे उसके एडिक्ट. जिस सप्ताह उनके पास ब्लर्ब लिखने के लिए कोई किताब नहीं होती वो अपनी ही किसी पुरानी किताब का ब्लर्ब लिख मारते है. मुझसे बोले – “सांतिबाबू, जितने ब्लर्ब तुमने पढ़े नहीं होंगे उससे ज्यादा तो मैं लिख चुका हूँ.”

समय का सदुपयोग करना कोई उनसे सीखे. किसी परिचित का फ्यूनरल चल रहा हो तो एक ओर साईड में जाकर गूगल पर वॉईस इनपुट से बोलकर ब्लर्ब सेंड कर देते हैं. तकनीक ने उनका काम आसान कर दिया है. ब्लर्ब लेखन की दुनिया में उन्होंने वो मकाम हासिल कर लिया है कि नए लेखक खुद अपनी किताब का ब्लर्ब लिखकर ले आते हैं, वे उस पर सिग्नेचर जड़ देते हैं. कभी कभी उन्हें लटकती तलवार के नीचे बैठकर मंत्री जी की पीए से लेकर थानेदार साब की जोरू-मेहरारू तक की  किताब के लिए भी ब्लर्ब लिखना पड़ता है. ‘ना’ कह कर मुसीबत मोल लेने से बेहतर है कुछ मीठे नफीसतारीफों से भरे जुमले लिख दिए जाएँ. एक बार उन्होंने थानेदार की वाईफ़ की किताब पर लिख दिया – “कहानियाँ इतनी रोमांचक है कि पाठक सांस रोक पढ़ने को विवश हो जाता है.” उनकी बीड़ के पाठक चालाक निकले, उन्होंने पुलिस की नज़र बचाकर बीच बीच में सांस ले ली और मरने से बच गए. वे स्वयं सीवियर अस्थमेटिक रहे हैं, सांस रुक जाने के डर से उन्होंने भी इसे नहीं पढ़ा, मगर लिखने में क्या जाता है. वे मनुहार के कच्चे हैं. आग्रह हसीन हो, वाईफ की छोटी सिस्टर की किताब हो, बॉस की अपनी लिखी कविताओं की किताब हो तो मधुर-झूठ बोलने का पाप माथे लेने में वे कोई हर्ज़ नहीं समझते.

कोई यूं ही ब्लर्बसाज़ नहीं बन जाता है. किताब  के बाबत ऐसा ज़ोरदार लिखना पड़ता है कि गंजा भी कंघी खरीद ले. कुनैन की गोली को स्वीट-कैंडी बताने की कला विकसित करनी पड़ती है. हालाँकि वे घोषित प्रगतिशील हैं मगर मन ही मन बैकुंठ की आस पाले रहते हैं सो हर दिन सुबह ब्रम्ह मुहूर्त में उठकर पिछले दिन ब्लर्ब पर लिखे गए झूठ की प्रभु से क्षमा मांग लेते हैं. कुछ लोग इसे झांसा देने की साहित्यिक कला मानते हैं. एक बार एक किताब के ब्लर्ब पर उन्होंने लिख दिया ‘लेखक नया है मगर उसमें स्पार्क है.’ नामचीन लेखक के कहे गए इस वाक्य को  पढ़कर पाठकों ने पुस्तक मेले के स्पेशल ट्वेंटी परसेंट डिस्काउंट में किताब खरीद तो ली मगर कुछ पन्ने पढ़ने के बाद ही उसमें स्पार्क ढूँढने लगे कि मिले तो उसी से जला दें इस किताब को.

वे किताबों की हसीन दुनिया के जॉन अब्राहम हैं. भोलाभाले पाठक ब्लर्ब पर उनका नाम, कभी कभी फोटो भी, देखकर ही क्यूआर कोड से यूपीआई पेमेंट कर डालते हैं. थोड़ा सा पढ़ने के बाद उन्हें वैसी ही निराशा हुआ करती है जैसी अमिताभ बच्चन के कहने पर आपको नवरतन तेल खरीद लेने पर हुआ करे है. मगर इससे न अमिताभ की सेहत पर कोई फर्क पड़ता है न ब्लर्बसाज़ की.

किताब के बकवास निकल जाने पर कंज्यूमर कोर्ट में क्षतिपूर्ति के दावे नहीं लगा करते. ऐसी ठगी से किताब के उपभोक्ता को बचाने के लिए पिछले दिनों एक सुखद खबर अमेरिका से आई है और वही हमारे ब्लर्बसाज़ जी के डिस्टर्ब होने का सबब बनी हुई है. खबर यह है कि साइमन और शूस्टर नामक एक अमेरिकी प्रकाशक ने तय किया है अब से वह किताबों पर ब्लर्ब नहीं छापा करेगा. न रहेगा बांस न बजेगी बाँसुरी. न ब्लर्ब रहेगा न उस पर ‘अद्भुत’ लिखे जाने के भ्रामक दावे. ‘जागो पाठक जागो’ आन्दोलन के प्रणेताओं के लिए भले ही यह खबर सुकून देनेवाली हो मगर उनके तो हाथों के तोते उड़ने के लिए रेडी हैं. गर-चे भारत के प्रकाशकों ने ब्लर्ब न छापने का फैसला कर लिया तो ‘हम जी कर क्या करेंगे’. मन में वे एक आस पाले हुए हैं कि अपने आप में विधा बन चुका उनका विपुल ब्लर्ब लेखन उन्हें एक दिन ज्ञानपीठ सम्मान दिलवाएगा. अब उन्हें अपने सपनों पर पानी फिरता नज़र आ रहा है. भगवान् अमेरिकी प्रकाशक के फैसले जैसा समय भारत में कभी न आने दे. आमीन.

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© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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