श्री रमेश सैनी

ए.टी.एम. में प्रेम

(e-abhivyakti में सुप्रसिद्ध लेखक/व्यंग्यकार श्री रमेश सैनी जी का स्वागत है।) 

जब ए.टी.एम. नहीं थे तब सबको एक तारीख का इंतजार रहता था, भले यह इंतजार  से 2 तारीख से चालू हो जाता था। यह इंतजार सुनहरे सपनों की तरह था जो महीना भर साथ रहता था। मर्दों को एक तारीख का बहाना मिल जाता ‘‘घबड़ाओ नहीं एक तारीख को तुम्हारी सब इच्छाएं पूरी कर दूंगा। इस इंतजार में शेष समय शांति से बीत जाता। बच्चे भी खुश  और उनकी मां भी खुश । एक तारीख से हफ़्ते भर पहले पत्नी के उलझे बाल संवरने लगते। चेहरे पर रंग-रोगन की चमक आ जाती।  शाम को पत्नी सज-संवरकर तीखी मुस्कान से स्वागत करती। यह सिलसिला हफ़्ता भर चलता। इन दिनों सूखे में भी हरियाली रहती और पति भी चाहता था कि एक तारीख को सारी मांग पूरी कर दे। यह नाटक सिर्फ आखिरी दिनों में ही करना पड़ता और आखिरी दिनों में गीले आटे से सने हाथ, उलझी जुल्फों के साथ ओरिजनल साफ-सुथरी षकल दिखती। एक तारीख तो खास होती, उस दिन सोला टका नगद तनख्वाह मिलती, न कोई झंझट न कोई लफड़ा। ये भारतीय परिवार के अच्छे दिन थे। यह भी अधिक दिन नहीं चल पाया।

एक दिन सरकारी फरमान आ गया, आप लोगों का वेतन आपके खाते में डाल दिया जायेगा। जिस दिन से पत्नियों ने बैंक वाला फरमान सुना तबसे वे जरूरत  के समय ही समर्पित और शेष दिन अपनी मर्जी की जि़्न्दगी जीतीं। बैंक के भी मजे थे, नया-नया खाता था। पासबुक शानदार कवर चढ़ाकर रखते थे। बच्चे पासबुक को बड़ी ललक भरी नज़रों से देखते थे। उनकी इच्छा होती कि उसे स्पर्श कर लें, पर तुरन्त डांट पड़ जाती – यह गंदी हो जायेगी, यह बहुत कीमती चीज़ है। पत्नी को तो पासबुक दिखाते ही नहीं। अगर वह कहती – अपनी पासबुक दिखाओ। तब हम उसे टरका देते – तुम्हारे हाथ गंदे हैं, खराब हो जायेगी या अभी समय नहीं है, बाद में देख लेना। कुछ इसी तरह के बहाने बना देते और उसे पासबुक से दूर रखते। पढ़ी-लिखी पत्नियों के खतरे अधिक हैं और फायदे कम, वे पैसे के मामले में समझदार अधिक होती हैं, पासबुक में जमा राशि  पर उनकी नज़र  रहती है, अतः सावधान रहना पड़ता है।

बैंक से पैसे निकालने के हमने अनेक तरीके ईजाद  किये। जिस दिन पैसा निकालने बैंक जाते, उस दिन हमारी खास सेवा- सुश्रुशा होती। खाली चाय नहीं, साथ में तगड़ा नाश्ता भी होता। हमको सजा-संवरा देख मोहल्ले वाले टोक देते – ‘‘गुप्ता जी बैंक जा रहे हो!’’ जाने के पहले हम चैकबुक निकालते, बच्चों को दिखाते, देखो इसे चेक कहते हैं। इस कागज के टुकड़े पर बैंक वाला हमें पैसे दे देगा। चेक को बुक से सावधानी से अलग करते, दो-चार बार उलटते-पलटते, फिर पत्नी से पूछते – ‘‘कितना लाना है।’’ वह जितना बताती उससे अधिक पैसा निकालते, शेष अपनी जेब में और बाकी से थमा देते। चेक में रकम भरते, अंकों में लिखते और दस्तखत करने के पूर्व दो चार बार बारीकी से चैक करते – यदि स्कूल और काॅलेज की परीक्षाओं में कापी जमा करने के पहले इतनी बारीकी से चैक करते तो शायद अपनी इस स्थिति का मलाल न रहता – तब दस्तख़त करते, फिर अपने ही दस्तख़त पर मंत्र-मुग्ध होते – ‘‘क्या शानदार हैं, क्या पाॅवर है हमारे दस्तख़तों में।’’ बैंक जाते, दो-चार लोगों से मेल मुलाकात करते – ‘‘देखो हमारा भी बैंक में खाता है, या हम भी बैंक वाले हैं। उसका रुआब ही अलग होता। पहले बैंक में खाता होना एक स्टेटस था। पर आज बैंक से लोन लेना स्टेटस होता है। लोग शान से बताते हैं – ‘हमने फलाने बैंक से इतना लोन लिया है। हमारी इतनी लिमिट हो गयी है। खाते में बिना पैसे के इस लिमिट तक पैसा निकाल सकते हैं। क्या उधार लेना सम्मान की बात हो गयी है? कि लोन लो और वापिस मत करो। लोन लो, भूल जाओ। टेंशन मत लो। फिर तो बैंक का टेंशन हो जाता है, आपका टेंशन, बैंक का टेंशन । आप टेंशन-मुक्त।

खैर दिन गुजरने लगे। चैक से पैसे निकलते रहे। फिर एक दिन एक दिन एक दुर्घटना घटी एक दिन बैंक से पैसे निकालने गये कि बाबू ने फार्म पकड़ा दिया और कहा – ‘‘बस नीचे सुन्दर हस्ताक्षर कर दो, शेष  फाॅर्म हम भर देंगे। अब अगले महीने से हमारे पास पैसे लेने मत आना। आपके पास एक कार्ड आएगा, जिससे बाहर लगी मशीन से ज़रूरत  के मुताबिक पैसा निकाला जा सकता है। हमने कहा – ‘‘मशीन से कैसे पैसा निकालेंगे।’’ तब उसने कहा – ‘‘आप कार्ड लेते आना, हम तरीका समझा देंगे।‘‘ एक दिन कार्ड आ गया, जिसे लेकर हम बैंक पहुंचे और बाबू से कहा, अब बताओ इससे कैसे निकलेगा पैसा? उसने पैसा निकालने का तरीका समझाया, जो आसान था। एक मित्र ने बताया, इसे मात्र कार्ड भर न समझो, यह लक्ष्मी है, लक्ष्मी! इसे संभाल कर रखो। तब से हम उसे पूजते, एहतियात बरतते और पत्नी-बच्चों से बचाकर लाॅकर में रखते।

इस तरह जिंदगी अच्छी खासी चल रही थी कि एक दिन नोटबंदी की घोषणा हो गयी। मशीन ने नोट उगलना बंद कर दिया। अब स्थिति यह हो गयी कि बैंक और मशीनों में ‘नोट देने रुकावट के लिए खेद’ का बोर्ड लगा दिया गया। बैंक के सामने लंबी लाइन लग गईं। अब अख़बारों में समाचार और विज्ञापन छपेंगे कि फलानी जगह का फलाना एटीएम बंद है, अतः आप कष्ट  न करें। इससे एटीएम का नये ढंग से उपयोग होने लगा।

अब अपना पैसा भी लाईन में लगकर लो। बैंक वाला तो, ‘अंधा बांटे रेवड़ी, चीन्ह-चीन्ह कर देय।’ अपना पैसा लो और अपमान ब्याज में, मन चाहा पैसा भी नहीं ले सकते हैं। जितना मशीन कहेगी, उतना ही मिलेगा, वह भी जेन्टलमेन की भांति कतार में लगकर। अब मशीन भी धोखा दे देती, उसका पूरा आदेश का  पालन करो, फिर अंत में कह देती है, पैसा नहीं है, कष्ट के लिए खेद है। कभी-कभी तो यह स्थिति आई कि गार्ड बाहर से ही टरका देता। हम एक दिन पड़ौस के एटीएम पहुंचे, बाहर गार्ड साहब ने दूर से ही रोका, ‘बाबूजी मशीन में रुपया नहीं है।‘ हमने कहा, ‘कोई बात नहीं, अपना बेलेंस पता कर लेंगे।’

– उससे क्या फायदा?

– अपना जमा पैसा मालूम हो जायेगा।

– कोई फायदा नहीं मशीन बंद है।

अंदर से कुछ खटपट की आवाज़ आ रही थी। हमारा संवाद सुन एक युवा जोड़ा लगभग चिपका हुआ बाहर निकला। दोनों हाथों में हाथ डाले मुस्कराते हुए आगे बढ़ गये।

मैंने पूछा – यह क्या है?

गार्ड ने कहा – प्रेम…!

– प्रेम, मशीन में प्रेम, पर मशीन तो बंद है।

– सर, मशीन बंद है पर उसका ए.सी. चालू है। बहुत सुकून मिलता है उन्हें।

– और तुम क्या कर रहे हो?

– सर मशीन बंद है, तो हम भी पुण्य कमा रहे हैं।

© रमेश सैनी 

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