हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ सवाल एक – जवाब अनेक – 7 ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

 

 

 

“सवाल एक – जवाब अनेक (7)”

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी के एक प्रश्न का  विभिन्न  लेखकों के द्वारा  दिये गए विभिन्न उत्तरआपके ज्ञान चक्षु  तो अवश्य ही खोल  देंगे।  तो प्रस्तुत है यह प्रश्नोत्तरों की श्रंखला।  

वर्तमान समय में ठकाठक दौड़ता समाज घोड़े की रफ्तार से किस दिशा में जा रहा, सामूहिक द्वेष और  स्पर्द्धा को उभारकर राजनीति, समाज में बड़ी उथल पुथल मचा रही है। ऐसी अनेक बातों को लेकर हम सबके मन में चिंताएं चला करतीं हैं। ये चिंताएं हमारे भीतर जमा होती रहतीं हैं। संचित होते होते ये चिंताएं क्लेश उपजाती हैं, हर कोई इन चिंताओं के बोझ से त्रास पाता है ऐसे समय लेखक त्रास से मुक्ति की युक्ति बता सकता है। एक सवाल के मार्फत देश भर के यशस्वी लेखकों की राय पढें इस श्रृंखला में………

तो फिर देर किस बात की जानिए वह एकमात्र प्रश्न  और उसके अनेक उत्तर।  प्रस्तुत है  सातवाँ  जवाब  लखनऊ शहर की ख्यातिलब्ध व्यंग्यकारा  सुश्री इन्द्रजीत कौर जी  (हाल ही में आपका व्यंग्य संकलन “पंचरतंत्र की कहानियां”  प्रकाशित हुआ है) की ओर से  –  

सवाल :  आज के संदर्भ में, क्या लेखक  समाज के घोड़े की आंख है या लगाम ?

साहित्य समाज का दर्पण होने के साथ ही सुधारक भी होता है । दूसरे शब्दों में वह समाज की आंख के साथ लगाम भी होता है।
लेखक आंख बनकर समाज की तस्वीर लोगों के सामने रखता है। अनदेखे व अनछुए पहलुओं को  उजागर करवा कर आमजन में जागरूकता फैलाता है ।  इसके लिए जरूरी है कि लेखक आखों को हमेशा और पूरी खुली रखें। ऐसा न हो कि कुछ घटनाओं पर वह आंखें बंद कर ले और कुछं पर आंखे इतनी ज्यादा चौड़ी कर ले कि समाज के लिए खतरा ही बन जाए। किसी भी घटना के अनेक कोण होते हैं लेखक की सजगता इस बात में है कि वह हर कोण से देखकर कार्य ,कारण और परिणाम में संबंध स्पष्ट करें।
 हां ,वह लगाम भी है ।सिर्फ आँखं बनकर नहीं रहा जा सकता कि समाज की तस्वीर देखी और पेश कर दी । दंगा ,फसाद , भ्रष्टाचार, छेड़खानी , दबंगई आदि देखकर उसनेे हूबहू कागज पर उतार दिया। इससे तो हम महाभारत के संजय ही बन पाएंगे कृष्ण नहीं। उचित /अनुचित की राह दिखाना भी जरूरी है । विनाश की राह से विकास की तरफ लगाम खींचना  आवश्यक है  ।
इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि सदा चाबुक मारते जाए । लेखक को इस परिवर्तनशील समाज में अपनी मानसिकता भी बदलनी होगी। वह अगर इस बात का रोना रोए कि अब महिलाओं के सिर पर घूंघट नहीं है। सांस्कृतिक पतन हो रहा है तो इसे लगाम नहीं कहेंगे ।
बढ़ते दायरे में लगाम को ढीला करना ही पड़ेगा ताकि घोड़े की दृष्टि और पहुंच व्यापक हो सके। कोई भी चीज सदियों से चली आ रही है इसका मतलब यह नहीं कि वह सही है । जींस पर बहुत कलमें चलीं। इस भागदौड़ वाली अति व्यस्त जिंदगी में लड़कियों के लिए जींस एक सुविधा की तरह है । इस पर बहुत लगाम खींचे गये। क्या यह समझने की कोशिश की गई कि समाज में वह आगे बढ़ने की जद्दोजहद करें या मर्द को देखकर पल्लू ही संभालती रह जाए । ऐसा भी तो लिखा जा सकता था कि पुरुष अपना दृष्टिकोण सही करें। अगर सही अर्थों में लेखक को समाज की आंख और लगाम बनना है तो कुए के मेंढक बनने से परहेज करते हुए उसे कलम चलानी होगी।
इतना ध्यान रखना होगा कि ज्यादा लगाम खींचने से लगाम टूट भी सकती है और अति ढीला करने से घोड़ा छूट सकता है। सन्तुलन आवश्यक है।
– सुश्री इंद्रजीत कौर
(अगली कड़ियों में हम आपको विभिन्न साहित्यकारों के इसी सवाल के विभिन्न जवाबों से अवगत कराएंगे।)