हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ सवाल एक – जवाब अनेक – 8 ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

 

 

 

“सवाल एक – जवाब अनेक (8)”

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी के एक प्रश्न का  विभिन्न  लेखकों के द्वारा  दिये गए विभिन्न उत्तरआपके ज्ञान चक्षु  तो अवश्य ही खोल  देंगे।  तो प्रस्तुत है यह प्रश्नोत्तरों की श्रंखला।  

वर्तमान समय में ठकाठक दौड़ता समाज घोड़े की रफ्तार से किस दिशा में जा रहा, सामूहिक द्वेष और  स्पर्द्धा को उभारकर राजनीति, समाज में बड़ी उथल पुथल मचा रही है। ऐसी अनेक बातों को लेकर हम सबके मन में चिंताएं चला करतीं हैं। ये चिंताएं हमारे भीतर जमा होती रहतीं हैं। संचित होते होते ये चिंताएं क्लेश उपजाती हैं, हर कोई इन चिंताओं के बोझ से त्रास पाता है ऐसे समय लेखक त्रास से मुक्ति की युक्ति बता सकता है। एक सवाल के मार्फत देश भर के यशस्वी लेखकों की राय पढें इस श्रृंखला में………

तो फिर देर किस बात की जानिए वह एकमात्र प्रश्न  और उसके अनेक उत्तर।  प्रस्तुत है  आठवाँ  जवाब  अबू धाबी से ख्यातिलब्ध व्यंग्यकारा  सुश्री समीक्षा तेलंगजी  एवं सवाई माधोपुर से श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी की ओर से  –  

सवाल :  आज के संदर्भ में, क्या लेखक  समाज के घोड़े की आंख है या लगाम ?

अबु धाबी से सुश्री समीक्षा तेलंग जी का जबाब ___
यदि आप समाज को घोड़ा मानते हैं तो आप खुद को उसकी आंख या लगाम भी मान सकते हैं। पर मैं, लेखक को स्वयं अश्व मानती हूं। आपने हॉर्सपावर सुना होगा…। किसी भी मशीन की क्षमता इसी इकाई से मापी जाती है। घोड़े की बुद्धि और ताकत का कोई सानी नहीं। वो चाहे तो दुनिया को हांक सकता है। उसकी तीक्ष्ण बुद्धि हवा के वेग से भी ज़्यादा होती है। और मनुष्य से अधिक संवेदनशील भी घोड़ा ही होता है। मैं लेखक को भी उतना ही संवेदशील मानती हूँ। तभी वो सृजन भी करता है।
लेकिन एक बात जो लेखकों को ही अपने आप में बाँटती है वो ये कि लेखक अपनी मानसिकता के हिसाब से लिखता है। कुछ लोगों के लिए वह दिशाविहीन लेखन होता है। कोई उसे सृजनात्मक मानता है। तो कोई उस लेखन को किसी दस्तावेज़ से कम नहीं मानता। एक का ही लिखा पढ़ने वाले की मानसिकता और लेखक की अपनी मानसिकता पर निर्भर करता है।
यदि लेखक घोड़ा है तो समाज उस ताँगे की तरह है, जिसके विचारों को लेखक और सुदृढ़ बनाता है। बशर्ते वह लेखन समाज को ध्यान में रखकर लिखा गया हो। हम भूल जाते हैं कि ताँगे के घोड़े की आँख पर ऐनक चढ़ा होता है। तभी वो अपने ताँगे को सही दिशा में हाँक पाता है, ख़ाली लगाम से नहीं। लगाम उसके वेग को कम ज़्यादा कर सकती है लेकिन दिशा नहीं दिखा सकती।
बग़ैर ऐनक वह आजू बाजू आगे और कुछ हद तक पीछे भी देख सकता है। क्या हो यदि उसे ऐनक न चढ़ाया जाए? वह मात्र भटका हुआ प्राणी हो जाता है। यही स्थिति लेखक की भी है।
मनुष्य भले ही अपनी गर्दन ३६० डिग्री पर नहीं घुमा सकता लेकिन ख़ुद घूमकर सही ग़लत का जायज़ा लेकर समाज में पनप रही विकृतियों को ज़रूर उजागर कर सकता है।
पहले के युद्धों में हरेक राजा का एक प्रिय घोड़ा ज़रूर होता था। किन्हीं स्थितियों तक वह उस राजा की जीत का भागीदार होता था। क्योंकि वह दुश्मन की आहट को बख़ूबी भाँप लेता था। और अपने प्रिय घुड़सवार को उन परिस्थितियों से बचा लेता था।
लेखक की भूमिका समाज के प्रति भी ऐसी ही होनी चाहिए। पीत पत्रकारिता जिस प्रकार समाज को विषैला प्रदूषित कर रही है। उसी प्रकार लेखक के एक एक शब्द का प्रभाव समाज पर भी पड़ता है। इसलिए लेखक, घोड़े की आँख या लगाम बनने से बचें और ख़ुद अश्व बनकर दुनिया की असलियत उजागर करने का दंभ रखें।
– समीक्षा  तैलंग, अबु धाबी (यू.ए.ई.)

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सवाई माधोपुर से श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी का जबाब ___
वर्तमान समाज, बेलगाम घोड़ा है। इसकी लगाम छीन कर कहीं गहरे दफन कर दी गई है। लाख ढूंढो तो भी नहीं मिलेगी। फिर सवाल घोड़े की आंख का है। पहले वे आंखें सीधे ही लक्ष्य पर केन्द्रित होती थीं। भटकने की कोई गुंजाइश ही नहीं थी। अब, आंखों का वह दिशा नियंत्रक भी नदारद है और यह बेशर्म घोड़ा अब खूब नैन मटक्का करता है। लेखक भी समाज का अंग है। अत:, आज के सन्दर्भ में लेखक घोड़े की आंख है।
– प्रभाशंकर उपाध्याय, सवाई  माधोपुर