हिन्दी साहित्य- व्यंग्य – ☆ समझदारी का त्रासद अन्त ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

☆ समझदारी का त्रासद अन्त ☆

(प्रस्तुत है  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी का एक बेहतरीन व्यंग्य।  डॉ कुन्दन सिंह जी के पात्रों  के सजीव चित्रण का मैं कायल हूँ। लगता है उनके पात्र हमारे आस पास ही हैं। आवश्यकता से अधिक ज्ञान प्राप्त करना और उसे बांटने में अपनी ऊर्जा खत्म कर तनाव झेलना आम हो गया है। फिर ऐसी समझदारी का त्रासद अन्त कैसे होता है वह आप ही पढ़ लीजिये।)

रामसुख अपने नाम के हिसाब से ही हमेशा शान्त और सुखी रहते हैं। दफ्तर से लौटते हैं, थोड़ी देर टाँगें सीधी करते हैं, फिर टहलने निकल जाते हैं। लेकिन उनका टहलना दूसरों के टहलने जैसा नहीं होता। दूसरे लोग स्वास्थ्य-वर्धन के लिए, भोजन पचाने के लिए टहलते हैं, रामसुख सिर्फ दुनिया देखने के लिए, मन बहलाने के लिए टहलते हैं। दाहिने बायें देखते हुए, धीरे धीरे चलते हैं। जहाँ कुछ दिलचस्प दिखा, रुक गये। कोई मजमा, कोई तमाशा, झगड़ा, मारपीट होती दिखी, रुक गये। जितनी देर झगड़ा, मारपीट चलती रही, देखते रहे, फिर धीरे धीरे आगे बढ़ गये। कहीं भाषण होता दिखा तो वहीं रुक गये। थोड़ी देर सुना, फिर आगे बढ़ गये। रास्ते में कोई मंदिर पड़ा तो भीतर जाकर सिर झुकाकर प्रसाद ले लिया। भजन-कीर्तन हो रहा हो तो थोड़ी देर उसमें शामिल हो गये, नहीं तो प्रसाद फाँकते आगे बढ़ गये।

ऐसे ही रामसुख एक शाम एक ऐसी सभा में पहुँच गये जहाँ एक संत का प्रवचन चल रहा था। रामसुख टाइम काटने को भाषण सुनने बैठ गये, लेकिन जल्दी ही उनके कान खड़े हुए। संत बड़ी दिलचस्प बातें कह रहे थे। कह रहे थे—–‘भक्तजनो! हम पुरूष बहुत बड़ी गलती करते हैं कि अपनी पत्नियों को वैधव्य के लिए तैयार नहीं करते। जीवन अनिश्चित है, आज है कल नहीं। सामान सौ बरस का है, कल की खबर नहीं। पति को अचानक कुछ हो जाता है तो पत्नी को न उसके बैंक का पता होता है, न पासबुक का। यह भी पता नहीं होता कि उसका बीमा कितने का है, बीमा दफ्तर कहाँ है। किससे कितना लेना है, किसे कितना देना है। कई स्त्रियों ने तो अपने पति का दफ्तर तक नहीं देखा। पति एकाएक परलोक सिधार जाए तो पत्नी असहाय हो जाती है। उसे समझ में नहीं आता कि कहाँ जाएँ, क्या करें। यह हाल पढ़ी-लिखी स्त्रियों का भी है, बेपढ़ी लिखी स्त्रियों को तो छोड़ ही दीजिए।

‘इसलिए पतियों को चाहिए कि पत्नियों को इस बात की पूरी जानकारी दें कि यदि उनका ऊपर से अचानक बुलावा आ जाए तो उन्हें क्या करना है, किस तरह रहना है। अपने को अमर समझकर नहीं रहना चाहिए।’

सुनकर रामसुख के दिमाग़ में जैसे बल्ब जला। क्या मार्के की बात कही है! जिंदगी का क्या ठिकाना?सौ नयी बीमारियां पैदा हो गयी हैं। अभी सड़क पर चल रहे हैं, दूसरे पल पता चला ऊपर ट्रांसफर हो गया। सड़क पर इतने वाहन चलते हैं। थोड़ा धक्का लगा और छुट्टी। लूट-मार इतनी बढ़ गयी है कि अंधेरे में कहीं से निकलने में डर लगता है। आजकल लौंडे बात बाद में करते हैं, पहले चाकू निकालते हैं। संत जी ने ठीक कहा। पत्नी को सब जानकारी दे देना चाहिए।

घर आये तो खटिया पर लेट गये। पत्नी शकुंतला देवी को बुलाकर पास बैठा लिया। छत की तरफ देखकर दार्शनिक अंदाज़ में बोले, ‘जिन्दगी का कोई ठिकाना नहीं है। आज यहां कल वहां।’

शकुंतला देवी बोलीं, ‘क्या हुआ? कोई मर वर गया क्या?’

रामसुख गंभीर मुद्रा में बोले, ‘नहीं! मैं तो आदमी की जिंदगी के बारे में सोच रहा था। क्या पता कब क्या हो जाए! जिंदगी और मौत के बीच कितना फासला है, किसे मालूम?’

शकुंतला देवी बोलीं, ‘टीवी में किशन जी महाराज जो गीता का परवचन दे रहे हैं, लगता है उसी का असर हो गया है।’

रामसुख बोले, ‘नहीं! आज एक संत जी का भाषण सुना। वे कह रहे थे कि आदमी की जिंदगी का कोई ठिकाना नहीं है, इसलिए पत्नी को घर-द्वार के बारे में सब समझा कर रखना चाहिए।’

शकुंतला देवी गुस्से में बोलीं, ‘चूल्हे में जाएं ऐसे संत। खबरदार जो आगे ऐसी बात मुँह से निकाली। जिंदगी जाए तुम्हारे दुश्मनों की।’

वे झपट कर घर के भीतर चली गयीं। रामसुख तम्बाकू की जुगाली करते, छत की तरफ ताकते, लेटे सोचते रहे।

दूसरी शाम उन्होंने अपनी दोनों पासबुक निकालकर तकिये के नीचे रख लीं, फिर शकुंतला देवी को बुलाया। जब वे आकर बैठ गयीं तो पासबुक निकालकर उन्हें दिखाकर बोले, ‘बताओ ये पासबुक किन बैंकों की हैं।’

शकुंतला देवी भौंहें चढ़ाकर बोलीं, ‘हमें क्या मालूम।’

रामसुख दुखी भाव से बोले, ‘यही तो गड़बड़ी है। देखो, यह काली वाली पासबुक महाराष्ट्र बैंक की है और गुलाबी वाली नागरिक बैंक की।’

शकुंतला देवी बोलीं, ‘होगी। तो हम क्या करें?’

रामसुख बोले, ‘अरे भाई, जरा समझो तो। सब दिन मूरख ही बनी रहोगी। आओ तुम्हें समझायें कि पासबुक में रकम कहाँ लिखी होती है।’

शकुंतला देवी फिर झटक कर खड़ी हो गयीं। बोलीं, ‘तुम पर फिर कल वाला भूत सवार हो गया। पहले तो कभी कभी भांग खाते थे, अब लगता है रोज जमाने लगे हो। ज्यादा आंय बांय बकोगे तो ओझा जी को बुलाकर तुम्हारा भूत उतरवाऊँगी।’

रामसुख चुप्पी साध गये।

लेकिन संत जी की बातें उनके दिमाग़ से निकलती नहीं थीं। अगले दिन फिर उन्होंने शकुंतला देवी को बुलाकर बैठा लिया। पुचकार कर बोले, ‘तुम मेरी बात का बुरा मान जाती हो। अरे, मैं मर थोड़े ही रहा हूँ। देखो न काठी एकदम ठोस है, टनाटन। लेकिन आदमी और औरत गिरस्ती की गाड़ी के दो पहिये होते हैं। दोनों को सब चीजों की जानकारी होनी चाहिए। अब देखो, वर्मा जी बीच में पत्नी को बिना कुछ बताये परलोक चले गये तो मिसेज़ वर्मा को कितनी परेशानी हुई। इसलिए सब बातों की जानकारी रखना जरूरी है।’

अब की बार शकुंतला देवी नाराज़ नहीं हुईं। बोलीं, ‘बाद में देखेंगे। अभी ये रामायण बन्द करो।’

रामसुख खुश हुए। चलो, बीजारोपण हो गया। अब धीरे धीरे सब हो जाएगा।

अगले दिन से वे शकुंतला देवी को पासबुक के बारे में समझाने लगे। कहाँ जमा पैसा लिखा जाता है, कहाँ निकाला हुआ, कहाँ बाकी चढ़ता है। शकुंतला देवी थोड़ी देर सुनतीं, फिर ‘उँह, बाद में देखेंगे, काम पड़ा है,’ कह कर उठ जातीं।

धीरे धीरे शकुंतला देवी की दिलचस्पी बढ़ने लगी। अब वे खुद ही पतिदेव से प्राविडेंट फंड, बीमा वगैरः के बारे में पूछताछ करने लगीं। फुरसत में उनके कागजात उलट-पलट कर समझने की कोशिश करती रहतीं। रामसुख और खुश हुए। एक दिन उन्हें अपनी स्कूटर के पीछे बैठा कर बैंक ले गये। वहाँ समझाते रहे कि पैसा कहाँ और कैसे जमा किया और निकाला जाता है। एक दिन बाहर से उन्हें अपने दफ्तर के दर्शन भी करा लाये।

एक दिन शकुंतला देवी पूछने लगीं, ‘क्यों जी! जिसका बैंक में खाता है, उसे भगवान न करे कुछ हो जाए तो उसका पैसा पत्नी को मिल जाता है न?’

रामसुख उत्साह से बोले, ‘हाँ, हाँ, बैंक में फार्म भरते वक्त उसका नाम देना पड़ता है जिसे पैसा मिलेगा। कोई दिक्कत नहीं होती।’

लेकिन उत्तर देने के बाद रामसुख के मन में ‘टुक्क’ से डंक जैसा लगा। यह तो एकदम मेरे मरने की सोचने लगी।मन कुछ बुझ गया।

एक दो दिन बाद रामसुख खटिया पर लेटे लेटे शकुंतला देवी को सुनाकर बोले, ‘आजकल सरकार ने अच्छा इंतजाम कर दिया है। कोई सरकारी कर्मचारी मर जाता है तो कफन-दफन के लिए चौबीस घंटे के भीतर आठ-दस हजार रुपये मिल जाते हैं।’

शकुंतला देवी सब्जी काटते काटते बोलीं, ‘यह तो अच्छी बात है।’

रामसुख के मन में फिर ‘टुक्क’ हुआ। यह तो ऐसे सहज भाव से बोल रही है जैसे मैं आलू खरीदने की बात कर रहा हूँ।

तीन चार दिन बाद शकुंतला देवी पूछने लगीं, ‘क्यों जी, यह जो आदमी के मरने के बाद औरत को पिंसिन ग्रेचूटी मिलती है उसमें कोई घपला तो नहीं होता? पूरा पैसा मिल जाता है?’

रामसुख भकुर गये। कुढ़ कर बोले, ‘तुम्हें और कोई काम नहीं है क्या? दिन भर यही फालतू बातें सोचती रहती हो।’

शकुंतला देवी बोलीं, ‘अरे भाई, आजकल हर जगह भरस्टाचार मचा है। इसलिए पूछ रही हूँ।’

रामसुख बड़ी देर तक भकुरे लेटे रहे।

अब रामसुख ने शकुंतला देवी को ज्ञान देना बन्द कर दिया था।शकुंतला देवी ही उनसे जब-तब पूछती रहती थीं। अब उनके हर सवाल पर रामसुख को झटका लगता था। उन्हें लगता जैसे वे उनके परलोक सिधारने का इंतज़ार कर रही हों।

एक दिन शकुंतला देवी पूछने लगीं, ‘आदमी नौकरी करता मर जाए तो औरत को कितनी पिंसिन मिलती है?’

रामसुख लेटे थे, उठ कर बैठ गए। खीझ कर बोले, ‘दो चार दिन में मर जाऊँगा तो अपने आप पता लग जाएगा। यही चाहती हो न?’

शकुंतला देवी ठुड्डी पर उंगली रखकर बोलीं, ‘हाय राम! मरें तुम्हारे दुश्मन। तुम्हीं तो कहते थे कि सब जानना चाहिए।’

रामसुख बोले, ‘हाँ, बहुत जान लिया। अब आज से जानना और पूछना बंद करो, नहीं तो मैं पगला जाऊँगा। ज्योतिषी ने कहा है कि मैं नब्बे साल की उमर तक जिऊँगा। बत्तीस साल पेंशन खाऊँगा।’

शकुंतला देवी बोलीं, ‘ए लो। पहले तो हमारे पीछे पड़े रहते थे कि यह जानो वह जानो। अब कहते हैं पगला जाएंगे। हमें क्या करना है, तुम जानो तुम्हारा काम जाने। अब आगे से हमें किन्हीं संत जी की बातें मत बताना।’

 

© कुन्दन सिंह परिहार
जबलपुर (म. प्र.)