हिन्दी साहित्य- व्यंग्य – ☆ मेरा अभिनंदन ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

☆ मेरा अभिनंदन ☆

(प्रस्तुत है  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी का एक बेहतरीन व्यंग्य।  अभी तक  जिन  साहित्यकारों का अभिनंदन नहीं हुआ  है यह व्यंग्य उनके लिए प्राणवायु का  कार्य अवश्य करेगा। )

आम तौर से जो साहित्यकार पचास पार कर लेते हैं उनका खोज-खाज कर अभिनंदन कर दिया जाता है।कोई और नहीं करता तो उनकी मित्रमंडली ही कर देती है। पचास पर अभिनंदन करने के पीछे शायद भावना यह होती है कि अब तुम जीवन की ढलान पर आ गये, पता नहीं कब ऊपर से सम्मन आ जाए। इसलिए समाज पर जो तुम्हारा निकलता है उसे ले लो और छुट्टी करो। बिना अभिनंदन के मर गये तो कब्र में करवटें बदलोगे।

लेकिन कुछ अभागे ऐसे भी होते हैं जिनका पचास से आगे बढ़ लेने के बाद भी अभिनंदन नहीं होता। ऐसे अभागों में से एक मैं भी हूँ। पचास पार किये कई साल हो गये लेकिन इतने बड़े शहर से कोई चिड़िया का पूत भी अभिनंदन की बात लेकर नहीं आया। धिक्कार है ऐसे जीवन पर और लानत है ऐसी साहित्यकारी पर।

इसी ग्लानि से भरा एक दिन बैठा ज़माने को कोस रहा था कि दो झोलाधारी युवकों ने मेरे घर में प्रवेश किया। हुलिया से ही समझ गया कि उनका संबंध साहित्य से है। काफी ऊबड़-खाबड़ दिख रहे थे। उनमें से एक का कुर्ता घुटने के नीचे तक था। थोड़ा और लंबा सिलवा लेते तो पायजामे की ज़रूरत न रहती।

छोटे कुर्ते वाला बोला, ‘हम लोग अभिशोक साहित्यिक संस्था से आये हैं। मैं ‘कंटक’ हूँ, संस्था का सचिव, और ये ‘शूल’ जी हैं, संस्था के सहसचिव।’

मैंने दुखी स्वर में कहा,’मिलकर खुशी हुई। क्या सेवा करूँ?’

वे बोले,’हमारी संस्था साहित्यकारों का अभिनंदन करती है। खोजने पर पता चला कि आप उन दो चार साहित्यकारों में से हैं जिनका अभी तक अभिनंदन नहीं हुआ,  इसलिए आपके पास चले आये। हम आपका अभिनंदन करना चाहते हैं।’

मेरे मन के सूखे पौधों में एकाएक हरीतिमा का संचार हुआ। प्राणवायु के लिए फड़फड़ाते आदमी को आक्सीजन मिली। मन की पुलक को दबाते हुए मैंने कहा, ‘जैसी आपकी मर्जी, लेकिन मैं तो बहुत छोटा लेखक हूँ। इस सम्मान के योग्य कहाँ!’

मेरी विनम्रता को सराहने के बजाय ‘शूल’ जी आह भरकर बोले, ‘आप ठीक कहते हैं। लेकिन हमें तो किसी का अभिनंदन करना है।’

‘कंटक’ जी कागज़-कलम निकालकर बोले, ‘इस कागज़ पर अपना नाम ठीक ठीक लिख दीजिए। मैंने आपकी एक दो रचनाएं तो देखी हैं, लेकिन पूरा नाम याद नहीं है। बाकी अपना और कच्चा-चिट्ठा भी लिख दीजिए। झूठ मत लिखिएगा। कई साहित्यकार झूठ ही लिख देते हैं कि यह पुरस्कार मिला, वह पुरस्कार मिला। ज़्यादा तारीफ भी मत लिखिएगा। वह काम हम पर छोड़ दीजिए। हम दस साल से यही कर रहे हैं।’

कच्चा-चिट्ठा लिखवाने के बाद ‘कंटक’ जी बोले, ‘एक बात स्पष्ट कर देना ज़रूरी समझता हूँ। हमारा बजट सिर्फ श्रीफल के लिए ही पर्याप्त है। अगर आपको शाल भी लेना हो तो कुछ आर्थिक सहयोग देना होगा।’

मैं तुरंत सतर्क हुआ। कहा, ‘श्रीफल काफी है। मेरे पास तीन चार शाल हैं। और लेकर क्या करूँगा?’

‘शूल’ जी बोले,’तो फिर ऐसा करते हैं, आप अपना कोई नया सा शाल दे दीजिए। हम मुख्य अतिथि के हाथों वही आपको ओढ़वा देंगे।’

मेरे भीतर का वणिक और सतर्क हुआ। मैंने कहा, ‘अजी छोड़िए। कहीं शाल आपसे खो-खा गया तो अभिनंदन मुझे मंहगा पड़ जाएगा।’

‘कंटक’ जी बोले, ‘हमारे बजट में उपस्थित लोगों के लिए सिर्फ चाय की गुंजाइश है। आप अगर कुछ और जोड़ना चाहें तो आर्थिक सहयोग करना होगा।’

मैंने तुर्की-ब-तुर्की जवाब दिया, ‘चाय काफी है। खाने पीने की चीज़ें ज़्यादा रखने से कार्यक्रम की गंभीरता नष्ट होती है।’

‘कंटक’ जी हंसकर बोले, ‘मैं समझ गया कि आपका अभिनंदन अभी तक क्यों नहीं हुआ।’

फिर बोले, ‘हम चलते हैं। शीघ्र ही आपको सूचित करेंगे।’

मैंने कहा, ‘एक बात बताते जाइए। आपकी संस्था के नाम का अर्थ क्या है? ‘अभिषेक’ शब्द तो जानता हूँ, ‘अभिशोक’ पहली बार सुना।’

वे पुनः हँस कर बोले, ‘बात यह है कि हमारी संस्था साहित्यकारों के लिए दो ही काम करती है—–अभिनंदन और शोकसभा। इसीलिए दोनों शब्दों को मिलाकर अभिशोक नाम रखा।’

मैंने हाथ जोड़कर कहा, ‘यह अच्छा है कि आप मेरा अभिनंदन किये दे रहे हैं, अन्यथा फिर शोकसभा के लायक ही रह जाता।’

अभिनंदन के लिए बड़ी उमंग से सज-धज कर पहुंचा, लेकिन वहां उपस्थित सिर्फ दस बारह श्रोताओं को देखकर मेरा दिल बैठ गया। उनमें भी दो तीन मेरे मित्र थे। इनका अभिनंदन अभी बाकी था, इसलिए वे अपने अभिनंदन में मेरी उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए आये थे। यह परस्पर लेन-देन का मामला था।

‘कंटक’ जी मुझसे फुसफुसा कर बोले, ‘थोड़ा और रुक लें? शायद कुछ लोग और आ जाएं।’

मैंने फुसफुसा कर जवाब दिया, ‘बिलकुल मत रुकिए। विलंब होने पर इनमें से भी कुछ खिसक सकते हैं।’

कार्यक्रम शुरू हुआ। शुरू में ‘कंटक’ जी बोले। उन्होंने मेरी प्रशंसा के खूब पुल बांधे। उस दिन ही मुझे पता चला कि मैं कितने वज़नदार गुणों का स्वामी हूँ। कस्तूरी-मृग की तरह मैं उनसे अनभिज्ञ ही रहा।’कंटक’ जी बार बार कहते थे ‘अब इनके बारे में क्या कहूँ’, और फिर आगे कहने लगते थे।

उनके बाद संस्था के अध्यक्ष ने बाकी बचे हुए गुणों से मुझे विभूषित किया। उनके भाषण के खत्म होने तक संसार के सारे गुण मेरे हिस्से में आ गये। मैं समझ गया कि उन्हें मेरे गुण-दोषों से कुछ लेना-देना नहीं है। उनके पास खूबियों की एक फेहरिस्त थी जिसे वे हर अभिनंदन में बाँच देते थे। अब कोई उसे सच समझ ले तो उनकी बला से।

उनके भाषण के बाद मुझे अभिनंदन-पत्र और श्रीफल भेंट किया गया। मेरे आश्चर्य और सुख की सीमा न रही जब श्रीफल देने के बाद मुझे एक शाल उढ़ाया गया। मैं समझ गया कि मेरे लिए संस्था ने कुछ गुंजाइश निकाल ही ली। यह एक ठोस उपलब्धि थी।

जब मैंने बोलना शुरू किया तो ज़्यादातर श्रोता जम्हाइयाँ लेने लगे। उनके खुले मुख के अंधकार को देखकर मुझे अपना भाषण छोटा करना पड़ा। संस्था के पदाधिकारियों को उनके साहित्य-प्रेम के लिए बधाई देकर मैं बैठ गया।
वापस लौटते वक्त मैं अकेला था। मित्र लोग अपनी ड्यूटी करके और मुझे ईर्ष्यापूर्ण बधाई देकर फूट लिये थे।

दस पंद्रह कदम ही बढ़ा हूँगा कि किसी ने पीछे से आवाज़ दी। मुड़ कर देखा तो ‘कंटक’ जी थे। मैंने सोचा उन्हें शाल की अप्रत्याशित भेंट के लिए धन्यवाद दे दूँ।

वे नज़दीक आये तो मैंने कहा, ‘शाल के लिए – – – –

वे मेरी बात बीच में ही काटकर बोले, ‘मैं शाल के लिए ही आया हूँ। दरअसल संस्था के अध्यक्ष जी कहने लगे कि अब तक ऐसा कभी नहीं हुआ कि हमने अभिनंदित को शाल न उढ़ाई हो, भले ही वह उसी के पैसे की हो। बोले कि शाल नहीं उढ़ाई तो संस्था की पोल खुल जाएगी। इसलिए मैं अपने एक मित्र से शाल लेकर आया। अब काम हो गया। शाल वापस कर दीजिए।’

मेरा मुंह फूल गया। गुस्से में बोला, ‘यह क्या तरीका है? आपको शाल वापस ही लेना था तो आप कल मेरे घर आ सकते थे।’

‘कंटक’ जी बोले, ‘चीज़ एक बार पेटी में पहुँच जाए तो निकलवाना मुश्किल होता है। आपके घर पहुँचकर हल्ला भी नहीं कर सकता, क्योंकि संस्था की बदनामी होगी। इसलिए आप यहीं दे दीजिए। यह हमारा इलाका है, यहाँ वसूल करना आसान है।’

स्थिति प्रतिकूल देखकर मैंने तुरंत रुख बदला और हँस कर कहा, ‘मैं तो मज़ाक कर रहा था। यह रहा आपका शाल।’

मैंने शाल उतारकर उन्हें पकड़ा दिया। वे उसे तह करते हुए बोले, ‘प्रणाम! फिर भेंट होगी। कहा-सुना माफ कीजिएगा।’

फिर वे घूम कर अंधेरे में अंतर्ध्यान हो गये और मैं अपने अभिनंदन के बचे हुए प्रमाण श्रीफल और अभिनंदन-पत्र को लिये घर आ गया। कहने की ज़रूरत नहीं कि शाल की दास्तां मैं घर के लोगों से साफ छिपा गया।

© कुन्दन सिंह परिहार
जबलपुर (म. प्र.)