हिन्दी साहित्य- व्यंग्य – ☆ बच्चूभाई की शौर्यगाथा ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(प्रस्तुत है  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी का एक बेहतरीन व्यंग्य।  डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी के Sense of Humour को दाद देनी पड़ेगी। व्यंग्य में हास्य का पुट  देकर अपनी बात पाठक  तक पहुंचाने  की कला में  परिहार जी का कोई सानी  नहीं ।  यह  उनकी अपनी मौलिक शैली  है और इसके लिए उनकी लेखनी को नमन।)

☆ बच्चूभाई की शौर्यगाथा  ☆

बच्चूभाई की एक ही हसरत है —-एक शेर मारने और उस पर पाँव रखकर फोटो खिंचाने की। बच्चूभाई के दादा और पिता मशहूर शिकारी रहे। उनके पास कई पुराने, पीले पड़े फोटो हैं जिनमें उनके दादा या पिता मृत शेर पर पाँव धरे खड़े हैं। हाथ में बंदूक और चेहरे पर गर्व है। बच्चूभाई के पास अब भी उनकी दो बंदूकें और कुछ कारतूस हैं। वे कभी कभी उनकी सफाई करके तेल वेल लगा देते हैं और आह भरकर उन्हें कोने में रख देते हैं।

वीरों के वंशज बच्चूभाई एक दफ्तर में क्लर्क हैं। दिन भर कलम से फाइल पर निशाना लगाते रहते हैं। शिकार पर प्रतिबंध लग गया है। अब शेर मारें तो कैसे, और फोटो कैसे खिंचे?

मायूसी से कहते हैं, ‘लगता है यह हसरत मेरे साथ चिता पर चली जायेगी। ऊपर जाऊँगा तो पिताजी और दादाजी को क्या मुँह दिखाऊँगा?’

मैंने कहा, ‘मुँह दिखाने की छोड़ो। मुँह तो तुम्हारा यहीं रह जाएगा। कहते हैं ऊपर तो सिर्फ आत्मा जाती है। आत्मा के मुँह कहाँ होता है?’

बच्चूभाई कहते हैं, ‘कुछ भी हो। शेर नहीं मारूँगा तो मुझे मुक्ति नहीं मिलेगी। मेरी आत्मा यहीं भटकती रहेगी।’

एक दिन बच्चूभाई मिले तो बहुत खुश थे। बोले, ‘जुगाड़ जम रहा है। एक वनरक्षक को पटा लिया है। वह इंतजाम कर देगा। कह रहा था सिर्फ खाल लेकर आने देगा। बाकी वहीं छोड़ कर आना होगा।’

मैंने कहा, ‘तुमने बंदूक चलायी तो है नहीं। शोभा के लिए रखे रहे। अब कैसे चलाओगे?’

बच्चूभाई कहते हैं, ‘तुमको बताया था न, कि स्कूल में एन.सी.सी. लिये था। तब तीन चार बार चलायी थी।’

मैंने कहा, ‘तुम्हें शिकार का अनुभव नहीं है। कहीं शेर की जगह कोई आदमी मत मार देना। और जहाँ तक मेरा सवाल है, तुम्हारे घर में बंदूक तो है, मेरे घर में वह भी नहीं। कैसे शिकार करोगे?’

बच्चूभाई मेरे कंधे पर हाथ रखकर बोले, ‘उसका भी इंतजाम कर लिया है। नगली गाँव के पुराने शिकारी रुस्तम लाल मेरे पिताजी के बड़े अच्छे दोस्त थे।उन्हें साथ ले जाएंगे।’

मैंने कहा, ‘तुम्हारे पिताजी के समय के हैं तो उनके हाथ-पाँव काँपते होंगे। वे तुम्हारे किस काम आएंगे?’

बच्चू बोले, ‘अमाँ यार, उनसे तो सिर्फ गाइडेंस चाहिए। बाकी हम खुद कर लेंगे।’

बच्चू बहुत उत्साह में थे।शिकार का दिन तय हो गया। बताया कि वनरक्षक मचान बनवा देगा। एक बकरे का इंतज़ाम भी हो गया, जिसका मिमियाना शेर को ठिये तक बुलायेगा। एक जीप का प्रबंध भी कर लिया गया।

बच्चू ने मुझसे कहा, ‘कैमरा ले चलने की जिम्मेदारी तुम्हारी है। तीन चार फोटो खींचना, खास तौर से शेर पर पाँव रखकर खड़े होने वाली।’

एक दोपहर रुस्तम लाल आ गये। बुढ़ा गये थे, लेकिन धज पूरी शिकारी की थी —-जंगल बूट, जुराबें, नेकर, जरकिन और आगे की तरफ झुकायी हुई चमड़े की गोल टोपी। हाथ में बंदूक और छाती पर कारतूसों की माला।

कहने लगे, ‘इस सरकार ने शेर के शिकार पर रोक लगाकर ठीक नहीं किया। अब हम बहादुर लोग अपनी वीरता कहाँ दिखाएं? चिड़ियों, खरगोशों को मारकर संतोष करना पड़ता है, लेकिन उसमें वह थ्रिल कहाँ जो शेर के शिकार में है।’

मैंने कहा, ‘आप फौज में भर्ती क्यों नहीं हो गये? वहाँ वीरता दिखाने के काफी मौके मिल जाते।’

वे बोले, ‘हमारी काफी ज़मीन ज़ायदाद है। ज़मींदारी छोड़कर फौज में जाते तो यहाँ का काम कौन देखता?’

मैंने कहा, ‘तो फिर आप डाकुओं, आतंकवादियों से निपटने में सरकार की मदद कीजिए।’

वे नाराज़ हो गये, बोले, ‘आप तो मज़ाक करते हैं। मैं शेर के शिकार की बात करता हूँ और आप डाकुओं से निपटने की। मैं तो शिकारी हूँ। मुझे डाकुओं को मारने से क्या लेना देना?’

थोड़ी देर में बच्चूभाई तैयार होकर आ गये। मैंने देखा तो पहचान नहीं पाया —–ब्रीचेज़, जंगल बूट, जरकिन, सिर पर टोपी। सब पिताजी की पुरानी पेटी से निकाले हुए।सिर्फ चाल से ही पता चलता था कि शिकारी असली नहीं है। फाइलें देखते देखते कमर कुछ झुक गयी थी।

बंदूकें और सर्चलाइट लेकर हम चल पड़े। जहाँ से जंगल शुरू होता था वहाँ से एक बूढ़ा देहाती हमारे साथ हो लिया। उसने एक बकरा जीप में रख लिया। ठिये पर पहुँचते पहुँचते शाम हो गयी।

देखा, एक पेड़ पर बढ़िया मचान बना था। बच्चूभाई  मुँह उठाकर चिंतित स्वर में बोले, ‘मचान तक कैसे चढ़ेंगे?’

देहाती हंसने लगा। बच्चूभाई शर्मा गये।

बकरे को थोड़ी दूर एक पेड़ से बाँध दिया गया। उसने अपनी मिमियाने की ड्यूटी शुरू कर दी।फिर हम लोग मचान पर चढ़े। देहाती ने सहारा देकर बच्चूभाई को चढ़ाया, फिर भी उनकी ब्रीचेज़ फट गयी। शहर में होते तो तुरंत बदलनी पड़ती। यहां ज़रूरी नहीं था। रुस्तम लाल भी सहारा लेकर कांपते कांपते ऊपर चढ़े। बंदूकें, कारतूस, सर्चलाइट, खाना-पीना भी ऊपर पहुँचाया गया।

जीप वाला और देहाती सबेरे आने की कह कर चले गये।

अब हम थे और जंगल की रात और सन्नाटा। मेरी हालत खराब हो रही थी, और बच्चू की भी। हम शहर के लोग ऐसे सन्नाटे के आदी कहाँ हैं?वहाँ तो रात को बिजली चले जाने से घबराहट होने लगती है, यहाँ रात भर पेड़ों और जंगली जानवरों की आवाज़ों के बीच रहना था। रुस्तम लाल बैठे बैठे झपकी ले रहे थे।

रात गुज़रती गयी। करीब एक बज गया। वनरक्षक ने बच्चूभाई को पक्का आश्वासन दिया था कि शेर यहाँ आएगा। बकरा अपनी मिमियाने की ड्यूटी निष्ठा से कर रहा था। हम बीच बीच में सर्चलाइट से उसे देख लेते थे।

एकाएक पौधों के चटकने की आवाज़ आयी। हमने सर्चलाइट डाली, और हम भय और आश्चर्य से जड़ हो गये। सचमुच एक शेर चला आ रहा था, इत्मीनान और निश्चिंतता के साथ चलता हुआ। रुस्तम लाल चौकन्ने हुए। उन्होंने जल्दी से बंदूक बच्चूभाई को थमायी। बकरा अब डर के मारे फटी आवाज़ में मिमिया रहा था।

शेर ने बकरे की तरफ देखा भी नहीं। वह आराम से चलता हुआ मचान के पास आ गया। बच्चूभाई भय या उत्तेजना के मारे बंदूक लिये मचान पर खड़े हो गये। मैं बराबर सर्चलाइट डाल रहा था।

एकाएक शेर ने ज़ोर की दहाड़ मारी। पूरा जंगल उसकी दहाड़ से काँप गया। उसके दहाड़ते ही बच्चूभाई ने कलाबाजी खायी और मय बंदूक के सीधे नीचे शेर के चरणों में जा गिरे। हमारे प्राण हलक में आ गये।

बच्चूभाई मुर्दे की तरह निस्पंद, आँखें बंद किये, शेर के पाँवों के पास पड़े थे। मचान की ऊँचाई तो ज़्यादा नहीं थी लेकिन शायद डर के मारे बेहोश हो गये थे।

रुस्तम लाल अपनी बंदूक संभाल रहे थे। इतने में शेर बोला, ‘ए बूढ़े, बंदूक रख दे, नहीं तो मैं तेरे इस बहादुर साथी को हलाल करता हूँ।’

हम शेर को आदमी की तरह बोलते  सुनकर स्तब्ध रह गये। एकदम चमत्कार। रुस्तम लाल ने बंदूक नीचे रख दी।

शेर ने अपना एक पंजा बच्चूभाई की छाती पर रखा और मुँह उठाकर बोला, ‘फोटो खींचो।’

मैंने फट से कैमरे का बटन दबाया। फोटो खिंच गयी।

शेर रुस्तम लाल को संबोधित करके बोला, ‘सुन बूढ़े! मैं जानता हूँ तू पुराना पेशेवर हत्यारा है। तेरे जैसे लोगों ने हमारे वंश का बहुत नाश किया है। अब तो बुढ़ा गया है, राम नाम ले।’

रुस्तम लाल सन्नाटे में थे।

शेर फिर बोला, ‘बहादुर है तो फिर ऊपर मचान पर बैठकर बंदूक से क्यों मारता है? बड़ा सूरमा है तो नीचे उतरकर बिना बंदूक के मुझसे कुश्ती लड़। मेरे पास नाखून हैं तो तू भी एकाध छुरी ले ले।’

रुस्तम लाल मुँह पर दही जमाये, सिर झुकाये बैठे थे।

शेर बोला, ‘मैं तो जा रहा हूँ। इस बेचारे बकरे को फालतू ही यहाँ लाकर मरवाने को बाँध दिया। मैं तुम लोगों के फेर में आकर इसे नहीं मारूँगा। तुम लोग दो हत्याएं करना चाहते थे।’

अब तुम लोग मचान के किनारे दूसरी तरफ मुँह करके बैठ जाओ। ज़रा भी हरकत की कि मैंने तुम्हारे दोस्त पर झपट्टा मारा। दस मिनट बाद पीछे मुड़ कर देखना।’

हम मचान के किनारे दस मिनट बेवकूफों जैसे बैठे रहे। दस मिनट बाद पीछे मुड़ कर देखा तो शेर का कहीं अता-पता नहीं था।

हम जल्दी जल्दी नीचे उतरे। देखा, बच्चूभाई लेटे लेटे आँखें मुलमुला रहे थे।उन्हें सही-सलामत देखकर हमारी जान में जान आयी।

मैंने पूछा, ‘ज़्यादा चोट तो नहीं आयी?’

वे उठकर बैठ गये। हाथ पाँव थथोलकर बोले, ‘थोड़ी सी आयी है, कोई चिन्ता वाली बात नहीं है। लेकिन यह शेर तो हमको पट्टी पढ़ा गया। अब फोटो का क्या होगा?’

मैंने कहा, ‘जो फोटो मैंने खींची है उसी को ड्राइंगरूम में टाँग लेना। वह एक दुर्लभ फोटो होगी। मुझे ज़रूर इस फोटो पर इनाम मिलेगा।’

बच्चूभाई नाराज़ होकर बोले, ‘तुम्हें हमेशा मज़ाक सूझता है। मेरी हसरत तो धरी की धरी रह गयी।’

फिर बोले, ‘लेकिन क्या यह मेरी बहादुरी नहीं है कि छाती पर शेर का पंजा रखा होने के बाद भी मैं जिन्दा रहा?’

मैंने कहा, ‘सो तो है। यह बात तुम गर्व से लोगों को बता सकते हो।’

हम फिर किसी तरह मचान पर चढ़कर सुबह का इंतज़ार करते करते सो गये। बकरा अब बेमतलब मिमिया रहा था। बच्चूभाई को उसके मिमियाने पर गुस्सा आ रहा था।

सबेरे जीप उस देहाती को लेकर आ गयी और हम अपना सामान समेटकर मय बकरे के चल दिये।

एक मोड़ पर वह वनरक्षक हमारा इंतज़ार करता मिल गया। जीप रुकने पर उसने बच्चूभाई से रहस्यमय आवाज़ में पूछा, ‘हो गया?’

बच्चूभाई संत की तरह गंभीर मुद्रा में बोले, ‘नहीं। मुझे रात को मचान पर बैठे बैठे ज्ञान हुआ कि जीवहत्या पाप है। इसलिए मैंने अपना इरादा बदल दिया। आपको सहयोग के लिए धन्यवाद।’

© कुन्दन सिंह परिहार
जबलपुर (म. प्र.)