श्री जय प्रकाश पाण्डेय
“सवाल एक – जवाब अनेक (10)”
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी के एक प्रश्न का विभिन्न लेखकों के द्वारा दिये गए विभिन्न उत्तरआपके ज्ञान चक्षु तो अवश्य ही खोल देंगे। तो प्रस्तुत है यह प्रश्नोत्तरों की श्रंखला।
वर्तमान समय में ठकाठक दौड़ता समाज घोड़े की रफ्तार से किस दिशा में जा रहा है, सामूहिक द्वेष और स्पर्द्धा को उभारकर राजनीति, समाज में बड़ी उथल पुथल मचा रही है। ऐसी अनेक बातों को लेकर हम सबके मन में चिंताएं चला करतीं हैं। ये चिंताएं हमारे भीतर जमा होती रहतीं हैं। संचित होते होते ये चिंताएं क्लेश उपजाती हैं, हर कोई इन चिंताओं के बोझ से त्रास पाता है ऐसे समय लेखक त्रास से मुक्ति की युक्ति बता सकता है। एक सवाल के मार्फत देश भर के यशस्वी लेखकों की राय पढें इस श्रृंखला में………
तो फिर देर किस बात की जानिए वह एकमात्र प्रश्न और उसके अनेक उत्तर। प्रस्तुत है इंदौर से श्री सुधीर कुमार चौधरी, जबलपुर से श्री रमेश सैनी, बैंगलोर से श्री अरुण अर्णव खरे, जबलपुर से डॉ कुन्दन सिंह परिहार, मुंबई से श्री शशांक दुबे,बावनकर एवं देवास से श्री प्रदीप उपाध्याय की ओर से –
सवाल : आज के संदर्भ में, क्या लेखक समाज के घोड़े की आंख है या लगाम ?
वस्तुतः साहित्य किसी भी समाज का सेफ्टी वाल्व होता है ।साहित्य समाज के आक्रोश ,कुंठा और तनाव को अभिव्यक्त करता है ।साहित्य समाज के संस्कारों को सहेजता है। साहित्य सामाजिक मूल्यों ,आदर्शों और सिद्धांतों का शिल्पी और रक्षक दोनों ही होता है। साहित्य के धरातल पर सामाजिक आस्था और विश्वास अंकुरित होते हैं। साहित्य के दर्पण में समाज का चेहरा प्रतिबिंबित होता है।
लेखक अपनी कलम के स्टैथोस्कोप से समाज की धड़कनों का लेखा-जोखा रखता है ।इसमें तनिक भी अनियमितता अनुभव करने पर वह साहित्य की दवाओं से इसका उपचार प्रारंभ कर देता है। समाज की नब्ज पर लेखक का सदैव हाथ होता है ।वह समाज की दिनचर्या और आचार व्यवहार पर कड़ा नियंत्रण रखता है। समाज की दिशा निर्धारित करता है ।लेखक की कलम समाज की लगाम को खींच कर रखती है।
साहित्य के पन्नों में समाज स्पंदित होता है ।लेखक समाज की आवाज को मुखरित करता है। वस्तुतः साहित्य समाज का ऊर्जा कोष होता है। लेखक इस ऊर्जा कोष का सजग र्चौकीदार होता है ।लेखक समाज की सीमा पर तैनात वह सिपाही होता है जो उसकी सांस्कृतिक ,चारित्रिक और भाषाई संपदा की रक्षा करता है ।संस्कृति और संस्कारों पर होने वाले हमले की रक्षा कलम की तलवार ही करती है।साथ ही कलम समाज की उच्छृंखलता और विवेक हीनता पर नियंत्रण भी रखती है।समाज को दिग्भ्रमित और दिशाहीन होने से बचाती है ।कलम समाज का परिष्कार और निर्माण के साथ साथ इस पर नियंत्रण भी रखती है।
समाज और साहित्य की सह जीविता से मानवता उन्नत और समृद्ध होती हैं ।लेखक की कलम छैनी और नश्तर दोनों की ही भूमिका का निर्वाह करती है। एक और कलम समाज को गढ़ती है वहीं दूसरी और सामाजिक विसंगतियों और विरोधाभासों के उन्मूलन के लिए वह नश्तर बन जाती है।कलम के नियंत्रण से विहीन समाज पतनशील हो जाता है ।कलम की ऊर्जा से समाज सत्य सदैव गतिशील रहता है ।लेखक की कलम लगाम बनकर समाज को नियंत्रित करती हैं।
– श्री सुधीर चौधरी, इंदौर
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जबलपुर से श्री रमेश सैनी जी का जबाब ____
पिछले 50- 60 वर्षों में समाज में काफी परिवर्तन हुआ है. पहले समाज के प्रेम, भाईचारा, मोहल्ले बंदी एक दूसरे से सहयोग की भावना, छोटे-बड़ों में परस्पर सम्मान आदि महत्वपूर्ण तत्व थे,पर अब समाज में बहुत बड़ा परिवर्तन आया है आज व्यक्ति का सम्मान उसकी गुणों की अपेक्षा उसकी आर्थिक संपन्नता और सत्ता शक्ति से नापा जाता है. समाज में व्याप्त राजनीति ने भी बहुत बड़ा परिवर्तन किया है. भारतीय समाज की संस्कृति, संस्कार को भी राजनीति ने बहुत प्रभावित किया है. पहले लोग जीवन मूल्य और समाज के अनुशासन को मानते थे. जब लोग इन मूल्यों और अनुशासन के विपरीत आचरण करते थे, और लेखक इन पर संकेत करता था तो उसका प्रभाव होता था. उस समय को कुछ हद तक थोड़ा नियंत्रण/लगाम लेखक कह सकते हैं. यह इसलिए कह सकते हैं कि समाज में लेखक का सम्मान होता था. पर आज आधुनिक तकनीक, बाजारवाद और वैश्वीकरण ने समाज के मूल स्वरूप में सेंध मार दी है.समाज धीरे धीरे बिखरने लगा है, लोगों के आचरण में अनेक मुखौटों ने जगह ले ली है. लेखक भी इससे अछूता नहीं है. लेखक भी समयानुसार अपना आचरण तय करता है. अतः उसका प्रभाव भी कम पड़ा है. अब उसके हाथ से लगाम खिसकने लगी है. इसी का असर है कि सत्ता स्तर पर भी राज्यसभा में मानद सदस्यों का मनोनयन भी उसके गुणों/विशेषज्ञता की वजह से नहीं, व्यक्ति सत्ता के कितने नजदीक है, इससे किया जाता है. यह समाज के बदलते मूल्यों का प्रतिफलन है. आज लेखक के नियंत्रण में कुछ नहीं है. हाँ यह जरूर है कि पुराने इतिहास को देखकर भ्रम पाले है कि वह घोड़े की लगाम/आंख है.
– श्री रमेश सैनी, जबलपुर
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बैंगलोर से श्री अरुण अर्णव खरे जी का जबाब ___
बड़ा ट्रिकी प्रश्न है । घोड़ा मनुष्य के सम्पर्क में आने वाला सबसे पहला जानवर है अतएव मनुष्यों से दोस्ती का उसका बहुत पुराना इतिहास है । भारतीय इतिहास में सत, त्रेता और द्वापर युगों में घोड़ों के प्रशिक्षण और उनकी युद्ध में उपयोगिता को लेकर अनेक वृतांत हैं । सूरज के रथ में सात घोड़े हैं । महाभारत में पाण्डवों ने अपने अज्ञातवास का समय विराट नगर में अश्वों की सेवा में ही व्यतीत किया था । नकुल को अश्व विद्या में निपुणता हासिल थी । महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक को इतिहास में नायकों जैसा स्थान हासिल है । रानी लक्ष्मीबाई को भी उनके अश्व ने तब तक अंग्रेज़ों के हाथों में नहीं पड़ने दिया था जब तक उसमें जान थी । मतलब यह घोड़ा आदि काल से मनुष्यों का सबसे अच्छा मित्र और वफ़ादार रहा है ।
यहाँ सवाल घोड़े की आँख को लेकर है । सवाल आख़िर घोड़े की आँख ही क्यों ? घोड़े की आँख में ऐसा क्या है जो इस सवाल की ज़रूरत पड़ी । शायद ज़मीन पर रहने वाले सभी जानवरों में घोड़े की आँख सबसे बड़ी होती है । घोड़ा दिन और रात के समय में भी आँखें खुली रखता है । घोड़े की आँख सुदूर की चीज़ों को भी सटीकता पूर्वक देख सकती है ।
प्रश्न के उत्तर की तलाश में घोड़े की ऑँख को लेकर इतने विस्तार में जाना ज़रूरी लगा । लेखक का समाज के प्रति दायित्व भी घोड़े की आँख के समान अधिक है । समाज के सभी पक्षों पर सतत नज़र रखना अच्छे सृजन के लिए ज़रूरी है तभी कोई भी लेखक समाज के उत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है ।
आज के परिवेश में जब समाज में विघटन बढ़ रहा है, इतिहास की ग़लत व्याख्या हो रही है, मनगढ़न्त और आधारहीन तथ्यों को आधार बनाकर मनचाहा खेल खेला जा रहा है तब लेखक के लिए लगाम लगाने का काम करना भी आवश्यक प्रतीत हो रहा है । लेखक ही ग़लत तथ्यों को सही परिप्रेक्ष्य में समाज के सामने ला सकता है और भ्रम फैलाने वाले प्रयासों पर लगाम लगा सकता है ।
मेरे दृष्टिकोण से लेखक की भूमिका दोनों रूपों में ज़रूरी है .. घोड़े की ऑंख के रूप में जागरूकता फैलाने के लिए और लगाम के रूप लें ग़लत बातों को रोकने के लिए ।
– श्री अरुण अर्णव खरे, बैंगलोर
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जबलपुर से डाॅ कुंदन सिंह परिहार जी का जबाब ___
लेखक समाज के घोड़े की आँख भी है और लगाम भी।दोनों का अपना अपना महत्व है।आँख का काम देखना है और लगाम का काम नियंत्रण करना। लेखक समाज की आँख है क्योंकि वह सामान्य व्यक्ति की तुलना में स्थितियों को अधिक सूक्ष्मता और स्पष्टता से देख-परख सकता है।लेकिन यह आँख तभी ठीक ठीक देख और दिखा सकती है जब इस आँख के पीछे सही दृष्टि, नीर-क्षीर विवेक और वैज्ञानिक सोच हो।पीलियाग्रस्त, पूर्वाग्रह से पीड़ित आँख, जिसे अंग्रेजी में ‘जांडिस्ड आई’ कहते हैं, न खुद चीज़ों को सही परिप्रेक्ष्य में देख सकती है, न समाज को सही दिखा सकती है।जो खुद सही मार्ग न देख सके, वह समाज को सही मार्ग कैसे दिखाएगा?लेकिन सिर्फ देखना ही काफी नहीं होता।कभी कभी आँख दिखाना और तरेरना भी ज़रूरी होता है, अन्यथा सीधी-सादी आँख की कोई परवाह नहीं करता।
लेखक समाज की लगाम या वल्गा तभी बन सकता है जब उसकी समाज में पैठ और समाज पर प्रभाव हो।इसके लिए लेखक को ‘स्व’ से निकलकर ‘पर’ तक आना पड़ता है।इसके लिए समाज से जुड़ना होता है और अपनी चिंता से ज़्यादा समाज की चिंता करनी होती है।इसके लिए लेखक को लेखक के अलावा ‘सोशल एक्टिविस्ट’ बनना पड़ता है।सिर्फ अपने खोल में दुबक कर कागद कारे करते रहने से काम नहीं चलता।
भूतकाल में अनेक लेखकों का समाज पर काफी प्रभाव रहा है।अकबर के नवरत्नों में ‘आईने अकबरी’के रचयिता अबुल फजल, महान गायक तानसेन और अपने दोहों के लिए आजतक लोकप्रिय ‘रहीम’ थे।तुलसीदास आज भी भारत के हर घर में उपस्थित हैं क्योंकि उन्होंने रामकथा लिखने के अतिरिक्त समाज के लिए एक आचरण-संहिता प्रस्तुत की।
देश में अनेक कवियों और लेखकों का पर्याप्त सम्मान रहा है तथा समाज और शासन ने उनकी बात सुनी है।इनमें सुभद्राकुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, दादा माखनलाल चतुर्वेदी, मैथिलीशरण गुप्त, रामधारी सिंह ‘दिनकर’,नागार्जुन,केदारनाथ अग्रवाल जैसे कवि रहे हैं।हाल के वर्षों में जब तक परसाई जी स्वस्थ थे, उनका कद और सम्मान देखते ही बनता था।अन्त तक नगर के छात्र अपनी समस्याओं पर उनकी राय लेने के लिए उन्हें घेरे रहते थे।जबलपुर के उन्नीस सौ साठ के सांप्रदायिक दंगों के समय दंगों को शांत करने में परसाई जी और उनके मित्रों की भूमिका महत्वपूर्ण रही।
लेखक अपना कच्चा माल समाज से उठाता है, इसलिए उसे उसी परिमाण में समाज को लौटाना होगा।तभी समाज उसे अपने ऊपर लगाम डालने की अनुमति देगा।आज लेखक समाज से और समाज लेखक से विमुख है।सब तरफ ‘अहो रूपं,अहो ध्वनि’ का शोर है।लेखक ‘नार्सिसस कांप्लेक्स’ से ग्रस्त है, आत्मप्रचार और आत्मप्रशंसा में सारे वक्त मसरूफ है।अब हर लेखक के हाथ में आइना है,जिसके पार देखने की उसे फुरसत नहीं है।सारा वक्त अपनी नोंक-पलक संवारने में ही बीतता है।व्यवस्था की जांच-परख करने के बजाय लेखक सरकारी पुरस्कारों और सम्मानों के लोभ में ऐसा फंसा है कि व्यवस्था के सामने वह दयनीय और हीनता-बोध से ग्रस्त है।जिस लेखक को उसका पड़ोसी ही न जानता हो,वह समाज की लगाम के रूप में कितना प्रभावी हो सकता है यह समझा जा सकता है।
– डॉ कुन्दन सिंह परिहार, जबलपुर
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मुंबई से श्री शशांक दुबे जी का जबाब ___
आज यदि लेखक यह मानकर चल रहा है कि वह समाज के घोड़े की लगाम है, तो इसका मतलब यह है कि वह खुशफहमी के संसार में जी रहा है. साहित्य समाज में व्यापक स्तर पर हलचल पैदा करने में असमर्थ है. जब इलेक्ट्रोनिक चैनलों और सोशल मीडिया का दायरा इतना बढ़ा नहीं था और जब अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त माध्यम लेखनी हुआ करती थी, तब लेखक में समाज को प्रभावित करने की, उनकी सोच में परिवर्तन लाने की थोड़ी बहुत क्षमता होती थी. यह क्षमता भी सीमित थी, क्योंकि तब का समाज भी हर किसी लेखक की कही बात का अनुसरण नहीं करता था. अलबत्ता पढ़ा लिखा मध्यवर्ग आज़ादी से पहले गणेश शंकर विद्यार्थी और आजादी के बाद सत्तर के दशक में राजेन्द्र माथुर और अस्सी के दशक में प्रभाष जोशी जैसे साहसिक पत्रकारों की लेखनी से प्रभावित होकर अपने विचार गढ़ता रहा. तब कलम की ताकत थी और लेखक भी इतने ईमानदार थे. आज जो लेखन किया जा रहा है, वह समाज सुधार या जन उद्धार के लिए नहीं किया जा रहा. आज का लेखन महज यश की प्रार्थना के लिए है. हालांकि इसमें भी अवलोकन के अलावा चिंताएँ हैं, मनोरंजन है, पीड़ाएँ हैं, आक्रोश हैं, खुशियां हैं, लेकिन यह सभी महज अपनी बात को रेखांकित करने के लिए, अपनी बात को प्रभावी बनाने के लिए, अपनी मामूली सी बात में वजन पैदा करने के लिए. लोक कल्याण की कम है. कहीं है भी तो वह लोक तक पहुँचने और उनका मानस बदलने में असमर्थ है. कहना न होगा, लेखक घोड़े की आँख ही है, लगाम नहीं.
– श्री शशांक दुबे, मुंबई
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देवास से श्री प्रदीप उपाध्याय जी का जबाब ___
आज के संदर्भ में लेखक समाज के घोड़े की खुली आँख है।लेखक का काम किसी बात को नियंत्रित करना नहीं है,वह किसी बात को होने से रोक भी नहीं सकता, वह राह दिखा सकता है।इस परिप्रेक्ष्य में हम कह सकते हैं कि लेखक समाज के घोड़े की लगाम नहीं है।हाँ,वह अपनी चौकस दृष्टि से समस्त विसंगतिपूर्ण स्थिति को उजागर कर सकता है।अपनी खुली आँख से ही वह अच्छे-बुरे की पहचान कर सकता है।अतः वह समाज के घोड़े की आँख के समान ही है।यहाँ यह भी जरूरी है कि ये आँखें ऐसी न हो जिसे चमड़े का पट्टा चढ़ाकर तीस डिग्री तक ही देखने को मजबूर किया गया हो।लेखक को अपनी आँख का दायरा घोड़े की आँख के समान एक सौ अस्सी डिग्री तक विस्तारित रखना चाहिए, साथ ही उसमें इतनी दूरदृष्टि होना चाहिए कि जो उसके सामने घटित न भी हो रहा हो, वह भी पूर्वभास और पूर्वानुमान के साथ उसकी दृष्टि में तीन सौ साठ डिग्री तक समाहित हो जाए।
लेखक की इसी दृष्टि के कारण हमेशा शक्ति सम्पन्न वर्ग, सत्ता पक्ष और शोषक समाज को कष्ट पहुँचता आया है और अभिव्यक्ति की आजादी पर येनकेन प्रकारेण रोक लगाने के प्रयास होते आए हैं।बुद्धिजीवी वर्ग पर दबाव, डर,लोभ,प्रलोभन द्वारा ऐसा वातावरण उत्पन्न किया जाता रहा है कि वह भी घोड़े की दोनों आँखों पर चढ़े दो चमड़े के पट्टे जिन्हें घोड़ा ऐनक, अंग्रेजी में Blinders या Blinkers कहते हैं, के समान चष्मे लगा लेता है जिससे कि वह अपने आसपास और पीछे कुछ भी नहीं देख पाए।अपने चालक की इच्छानुरूप सिर्फ एक सीधी राह ही चलता चला जाए।
लेखक को बिना किसी दबाव के अपनी क्षमताओं को पहचानना चाहिए और बिना किसी लोभ-लालच,प्रलोभन, दबाव या डर के घोड़ा ऐनक को छोड़कर समाज के घोड़े की आँख के समान अपनी दृष्टि और दृष्टिकोण रखना चाहिए।तभी वह समाज के हित में अपना सच्चा योगदान दे सकता है।लेखक घोड़े की लगाम तो हो ही नहीं सकता है क्योंकि लगाम हमेशा दूसरों के हाथ ही होती है।लेखक गलत-सही की पहचान करा सकता है, सही दिशा ज्ञान करा सकता है,उचित राह दिखा सकता है।अतः मेरे मत में लेखक समाज के घोड़े की आँखें ही हैं।
– श्री प्रदीप उपाध्याय, देवास
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सत्यता को उद्घाटित करते हुए सटीक जबाव