हिन्दी साहित्य- व्यंग्य – ☆ गुरुकुल और कुलगुरु ☆ श्री विनोद साव

श्री विनोद साव 

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध व्यंग्यकर श्री विनोद साव जी का  गुरु पूर्णिमा पर विशेष व्यंग्य “गुरुकुल और कुलगुरु”।)

 

☆ व्यंग्य – गुरुकुल और कुलगुरु ☆

 

परंपराओं की इस दुनिया में  गुरुकुल और कुलगुरु भी एक प्राचीन परंपरा रही है। हमारी शिक्षा प्रणाली का  यह  प्रारंभिक रूप  पहले  ऋषि मुनियों के कब्जे में था। अब  न ऐसे  ऋषि तपस्वी रहे  और ना उनका  कब्जा रहा। गुरुकुल व्यवस्था  एक पाठशाला के समान थी जिसमें एक गुरु  और उनके  कुल  शिष्य  हुआ करते थे। एक गुरु से  शिक्षा प्राप्त करने वाले  शिष्यों का समूह  उस  गुरु के कुल के रूप में जाना जाता था। आज के विद्यालयों के समान  तब  गुरुकुल में  अनेक गुरु  नहीं होते थे। इसलिए  वह एक  अध्यापक गुरुकुल का प्रधान तो  होता था लेकिन अध्यापक नहीं।

गुरु को यदि कुल के पार्श्व में लगा दें तब यह कुलगुरु बन जाता है.  गुरुकुल में गुरु आगे होते थे और शिष्यों का कुल पीछे.  कुलगुरु में कुल का वर्चस्व होता था जहाँ गुरु को जाना पड़ता था.  गुरुकुल में शिष्य गुरु के पास जाते थे तो कुलगुरु शिष्यों के घर जाते थे.  एक गुरुकुल में गुरु विश्वामित्र हुए तो एक कुल के कुलगुरु वशिष्ठ हुए.  कुछ गुरुओं ने अपने को भगवान का अवतार भी घोषित कर दिया जहाँ वे ‘योग से भोग’ लगाने तक का सारा कारोबार सशुल्क निपटाते हैं.

आजकल यह दोनों परंपरा कहीं-कहीं संगीत के उस्तादों व उनके शागिर्दों के बीच, कुछ धर्माश्रमों तथा वहां से उपजी साध्वियों के मध्य और राजनीति में दलाली करने वालों के बीच काफी फल फूल रही है। कुछ गुरुओं ने अपने को भगवान का अवतार भी घोषित कर दिया है। इनके शिष्य त्याग तपस्या में चंदा एकत्र करके अपने आश्रमों को भेजते हैं जहां एयर कंडीशन महलों वह एयर कंडीशन कारों में रहने वाले कुछ गुरु ‘संभोग से समाधि’ लगाने तक का सारा कारोबार निपटाते हैं। मथुरा में ऐसा ही एक गुरुकुल है कृपालु कुंज जहां के कृपालु महाराज अपनी शिष्याओं पर कृपा करते हुए नागपुर में रंगे हाथ गिरफ्तार हुए थे।

राजनीति में गुरुकुल से ज्यादा कुलगुरु परंपरा दिखाई देती है. यहाँ राजनेताओं का ‘कुल’ किसी न किसी गुरु के इशारे पर नाचता है. इन कुलगुरुओं के शिष्य कई कई देशों के राष्ट्र-नायक, मंत्री, राज्यपाल व सचिव जैसे प्रभावशाली लोग होते हैं.  ये सत्ता की दलाली करने, निगमों-प्रतिष्ठानो में अपने प्रिय भक्तों को नामज़द करवाने, भक्तो को योगासन करवाने से लेकर स्विस बैंक में खाता खुलवाने, देश की सुरक्षा का भार उठाते हुए हथियारों की खरीद-फरोख्त में हाथ बंटाने की गूढ़ शिक्षा अपने भक्तों को वक्त-बेवक्त देते रहते हैं.

अब आज की शिक्षा प्रणाली में इस परंपरा का निर्वाह देखें तो आज के स्कूल का एक मास्टर गुरुकुल और कुलगुरु दोनों की भूमिकाएं एक साथ निभा देता है. जब वह पढाने जाता है तो उसका स्कूल एक गुरुकुल होता है. फिर वही मास्टर शिष्यों के घर जाकर टयूशन पढाता है तब वह कुलगुरु बन बैठता है.  आज शिष्य जिस गुरुकुल में जाते हैं वहीं का गुरु उनका कुलगुरु भी होता है. वे दिन में ‘गुरुकुल’ में पढते हैं और शाम को ‘कुलगुरु’ से पढते हैं.  एक ही मास्टर गुरुकुल और कुलगुरु दोनों की आमदनी अकेला हजम कर जाता है. वह गुरुकुल में शिष्य को फेल कर अपने को कुलगुरु बनाये जाने को बाध्य करता है. ऐसा कर लेने के बाद वह मूर्ख शिष्य को मेरिट में लाने का चमत्कार कर दिखाता है.

आज जो शिष्य गुरुकुल और कुलगुरु दोनों ही जगह सुर में सुर मिलाएगा वही अपने ‘केरियर’ को बेसुरा होने से बचाकर चैन की बंसी बजायेगा.

 

सौजन्य: विनोद साव के संग्रह

(‘मैदान-ए-व्यंग्य’ से )