हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆☆ जाकी रही भावना जैसी….☆☆ – श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। आज  प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का नया व्यंग्य “जाकी रही भावना जैसी…. ”। मैं श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य पर टिप्पणी करने के जिम्मेवारी पाठकों पर ही छोड़ता हूँ। अतः आप स्वयं  पढ़ें, विचारें एवं विवेचना करें। हम भविष्य में श्री शांतिलाल  जैन जी से  ऐसी ही उत्कृष्ट रचनाओं की अपेक्षा रखते हैं। ) 

 

☆☆ जाकी रही भावना जैसी…. ☆☆

 

कॉलोनी के मेन गेट पर नया सिक्युरिटी गार्ड आया है – महेश. उसके आने के तीन चार दिन बाद से ही गोयल साब ने मेन गेट से आना जाना कम कर दिया है. पीछेवाले गेट से जुड़ी सड़क ऊबड़ खाबड़ है. बाज़ दफा स्ट्रीट लाईट बंद रहती है. मेन रोड पर आने के लिए लंबा चक्कर लेना पड़ता है. परेशानियों के बाद भी यही गेट उनकी पहली पसंद बन गया है.

यूँ तो वे कहीं से भी आयें-जायें. किसी को क्या ? लेकिन, मन है कि कयास लगाता रहता है. टोटका हो सकता है. जाते समय काणा आदमी दिख जाये तो काम बिगड़ जाता है. लेकिन महेश की एक आँख बकरे की नहीं है. उस तरफ कुछ आवारा कुत्ते घूमते तो रहते हैं लेकिन महेश ने कभी उनको गोयल साब पर छूssss नहीं किया. वो इच्छाधारी साँप भी नहीं है कि व्हीकल के साईड मिरर में उनको उसका असली रूप नज़र आ गया हो. मामला स्टार प्लस के फेमिली सीरियल्स वाला भी लग नहीं रहा था कि उनकी मैरेज एनिवर्सरी की पार्टी में केक कटने से जस्ट तीस सेकंड पहले महेश की इंट्री हो और वो बताये कि वो उन्हीं का खून है. तब भी कुछ तो है !!!

क्या है ये धीरे धीरे मेरी समझ में आया. वे महेश की नमस्ते से बचने की यथासंभव कोशिश करते हैं. वे हर उस गार्ड से, सफाई कर्मी से, मेसन से, प्लंबर से बचते हुवे चलते हैं जो उनसे नमस्ते करता है. महेश तो झुककर नमस्ते करता है. अदब से, जितनी बार निकलो उतनी बार नमस्ते करता है. वे इसी से डरते हैं. एक दिन उन्होने मुझे महेश से बात करते हुवे देख लिया. एक तरफ ले जाकर धीरे से बोले – “शांतिबाबू बच कर रहना, ऐसे लोग बहुत शातिर होते हैं. नमस्ते नमस्ते कर के रिलेशन बढ़ाते हैं और एक दिन उधार मांग लेते हैं. देखना एक दिन वो आपसे सौ रूपये मांगेगा और लौटा देगा, फिर दो सौ, पाँच सौ, हज़ार सब वापस कर देगा. फिर पाँच हज़ार ले जायेगा. और एक दिन गायब हो जायेगा.”

“मुझे तो स्वाभिमानी और ईमानदार लगता है. रूपया नहीं माँगेगा.”

“उधार न सही, स्कूटर ही मांग ले या फ्रिज, टीवी, सोफा, टेबल कुछ भी कि साब आप नया ले लो, पुराना मेरे को दे दो. छोटे लोग हैं, मुफत सामान की जुगत लगे रहते हैं. हफ्ते-दस दिन नमस्ते की, आपने रिस्पांस दिया कि फंसे उनके ट्रेप में.“

“नहीं साब, गाँव से अभी अभी आया सीधा लड़का है, कोई बेहतर काम ढूंढकर चला जायेगा.“

“यस, अब सही पकड़ा है आपने. एक दिन वो जरूर कहेगा कि मेरी पक्की नौकरी लगवा दो. तब क्या ?”

“सब करते हेंगे गोयल साब, आपने भी तो मंत्रीजी को बोलके लड़के को प्राधिकरण में इंजीनियर फिट करवा दिया.“

“मेरे को ही लपेट रहे हो शांतिबाबू. मैं तो आपके भले की कह रहा था. बाय-द-वे हमारे घरेलू रिलेशन हैं मंत्रीजी से, पुराने.” – कह कर वे कट लिए.

तुलसी ने चार सौ बरस पहले लिखा था – “जाकी रही भावना जैसी….”. कौन जाने गोयल साब के लिये ही लिखा हो.

 

© श्री शांतिलाल जैन 

F-13, आइवोरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, TT नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837