श्रीमती समीक्षा तैलंग
(आज प्रस्तुत है श्रीमति समीक्षा तैलंग जी की व्यंग्य रचना रामायण में रहने की विशाल योजना. समझ में नहीं आता कि इसे सामयिक कहूं या प्रासंगिक. चलिए यह निर्णय भी आप पर ही छोड़ देते हैं. )
☆ व्यंग्य – रामायण में रहने की विशाल योजना*☆
उनको देखकर बड़ी ही शत्रु टाइप फीलिंग आती। बड़े बड़े शत्रु भी हडबडा जाएं जब लाउड आवाजों को कोई खामोश कर दे। सुनते ही भगदड़ मच जाती कि कहीं ये बंदा शॉटगन से हल्ले का शिकार न कर दे। लेकिन धीरे धीरे समझ आता गया कि ये केवल घन के शत्रु हैं। इसलिए तब से अपन का डर, खलीफा हो गया। हमारे जैसे तो इतने निट्ठल्ले कि एक शत्रु बनाने की हैसियत न रखते।
दुनिया में ऐसे कई उदाहरण मिलते, जिनका गले मिलना भी शत्रुता की मिसाल हैं। भरत मिलाप वो भी शत्रु के साथ…। वाह! यही तो सुंदरता है इस कलयुग की…। ऐसे मेल मिलापों में अक्सर एकाध राम भी पैदा हो जाते। बस भगवान बनने की ताकत न रखते।
उन्हें रामायण इतना आकर्षित करती कि वे रामायण में ही रहते, सोते, खाते। अपना कतरा कतरा रामायण को ही न्यौछावर कर देते। इतना कि रामायण के भीतर और बाहर रामायण के ही किरदार पाए जाते। लेकिन पाने और होने में वही फर्क है जो अरुण गोविल और श्रीराम में…।
किरदारों का क्या… कल के दिन राम के किरदार से निकलकर धृतराष्ट्र या दुर्योधन में घुस जायें। लेकिन हकीकत में तो वही रहेंगे, जो हैं…। सत्य को तो ग्रह भी नहीं झुठला पाए। किसी के पास एक चांद, तो किसी के पास दस-बारह।
भले भगवान के दोनों जुडवां पुत्रों का नाम लव कुश था। लेकिन ऐसा कहीं नहीं लिखा कि शत्रुघ्न अपने पुत्रों का वही नाम नहीं रख सकता। उन्होंने भी रखा। घर में सारे किरदार तैयार थे। असल रामायण में लवकुश की कोई बहन न थी। सो उन्हें कुछ अलग रखना पड़ा। सुनहरी आंखों वाली या झील सी आंखों वाली टाइप। नाम रखने में क्या कटुता…। विश्व की अलग अलग भाषाओं में नाम रखना आजकल का फैशन है।
लेकिन वे रामायण में रहते इसलिए वैदिक नामों से प्रेरित थे। नाम कोई भी रख सकते थे। उस पर जीएसटी का कोई प्रावधान नहीं। सोचा होगा, लव कुश ही रख लो। उन्हें थोड़े अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा पकड़ना है।
चाहें भी तो संभव नहीं। समय के साथ साथ काफी कुछ असंभव भी होने लगा है। न तो गाय और कुत्ते को रोटी खिला सकते, न सांप को दूध…। सब हमारी धरोहर हैं। उन्हें बचाना हमारा परम कर्तव्य है। इसलिए प्रतिबंधित है। कहो, कल के दिन हमारी सांसों पर ही कोई प्रतिबंध लगा दे कि भई कुछ ज्यादै ऑक्सीजन छोड़ते हो…।
असंभावना के बीच ही सम्भव भवित होता है। अभी वाचन प्रतिबंधित नहीं हुआ है। हम कुछ भी बांच सकते, गल-अनर्गल सब कुछ। फिर भी हम बांचते ही नहीं।
उन्होंने भी पुस्तक की जगह एक ठो व्यक्तिगत दूरभाषित यंत्र पकडवा दिया अपने बच्चों को। और वे, आज्ञाकारी बच्चों से लगे अपनी हस्त उत्पादित स्वचित्र खेंचने में। इस खेंचा खेंची में वे भूल गए कि दुनिया में स्व-ज्ञान की कितनी आवश्यकता है।
पर्दे पर अपने ही चित्र की वाहवाही करने से उन्हें फुर्सत न मिलती। फिर कहां का ज्ञान जुटाते। अज्ञानी सोच ही नहीं पाता कि सौंदर्य ज्ञान नहीं देता किंतु ज्ञान सौंदर्य अवश्य देता है। लेकिन ये सोच भी तो ज्ञान से ही आती है।
पर्दे की विद्रुपता यही है कि वो असली दर्शन नहीं करा पाता। सब कुछ ढंका छुपा…।
वो ठाठ बाट से अपने रामायण का गुणगान करते हुए वहाँ बैठती हैं। लेकिन जब उनसे पूछा जाता कि संजीवनी किसके लिए लायी गई, तब वे ठिठक जातीं। वे सोचतीं कि शायद राम या फिर भरत या हो सकता है लक्ष्मण को जरूरत पड़ी हो। लेकिन वे श्योर नहीं हो पातीं। क्योंकि उनके घर के लक्ष्मण को कभी संजीवनी की जरूरत नहीं पड़ी। या यों कहें कि हनुमंत उनके घर नहीं। उनकी माता, माथा फोडने के सिवाय कुछ नहीं कर पायी। अपने अंश को नहीं समझा पायी कि रामायण में रहने और रामायण को हृदय में बसाने में वही अंतर है जो धरती पर बसने और आकाश में उडने का है।
©समीक्षा तैलंग, पुणे