हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष-1 ☆ घोडा, न कि …. ☆ डॉ सुरेश कान्त
ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक -1
डॉ सुरेश कान्त
(हम प्रख्यात व्यंग्यकार डॉ सुरेश कान्त जी के ह्रदय से आभारी हैं जिन्होंने इस अवसर पर अपने अमूल्य समय में से हमारे लिए यह व्यंग्य रचना प्रेषित की. आप व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं. वर्तमान में हिन्द पाकेट बुक्स में सम्पादक हैं। आप भारतीय स्टेट बैंक के राजभाषा विभाग मुंबई में उप महाप्रबंधक पद पर थे। महज 22 वर्ष की आयु में ‘ब’ से ‘बैंक जैसे उपन्यास की रचना करने वाले डॉ. सुरेश कान्त जी ने बैंक ही नहीं कॉर्पोरेट जगत की कार्यप्रणाली को भी बेहद नजदीक से देखा है। आपकी कई पुस्तकें प्रकाशित।)
☆ व्यंग्य – घोड़ा, न कि… ☆
शहर के बीचोबीच चौक पर महात्मा गांधी की मूर्ति लगी थी।
एक दिन देर रात एक राजनीतिक बिचौलिया, जिसकी मुख्यमंत्री तक पहुँच थी, उधर से गुजर रहा था कि अचानक वह ठिठककर रुक गया।
उसे लगा, मानो मूर्ति ने उससे कुछ कहा हो।
नजदीक जाकर उसने महात्मा से पूछा कि उन्हें कोई परेशानी तो नहीं, और कि क्या वह उनके लिए कुछ कर सकता है?
महात्मा ने उत्तर दिया, “बेटा, मैं इस तरह खड़े-खड़े थक गया हूँ। तुम लोगों ने सुभाष, शिवाजी वगैरह को घोड़े दिए हैं…मुझे भी क्यों कुछ बैठने के लिए नहीं दे देते?…क्या तुम मुझे भी एक घोड़ा उपलब्ध नहीं करा सकते?”
बिचौलिए को दया आई और उसने कुछ करने का वादा किया।
अगले दिन वह मुख्यमंत्री को ‘शिकायत करने वाले’ महात्मा का चमत्कार दिखाने के लिए वहाँ लेकर आया।
मूर्ति के सामने खड़ा होकर वह बोला, “बापू, देखो मैं किसे लेकर आया हूँ! ये आपकी समस्या दूर कर सकते हैं।”
महात्मा ने मुख्यमंत्री को देखा और फिर नाराज होकर बिचौलिये से बोले, “मैंने तुमसे घोड़ा लाने के लिए कहा था, न कि…!”
© डॉ सुरेश कान्त
दिल्ली